यूनिकोड ने सिद्ध किया, मानकीकरण का कोई विकल्प नहीं- बालेन्दु शर्मा दाधीच


विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन जोहानीसबर्ग से :

जोहानीसबर्ग में आयोजित नौवें विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान हुए प्रौद्योगिकी सत्र में हिंदी से जुड़े अहम तकनीकी मुद्दों, समस्याओं और लक्ष्यों पर चर्चा की गई और सुझाव दिए गए। सत्र का विषय था- सूचना प्रौद्योगिकीः हिंदी और देवनागरी का सामर्थ्य।

सत्र का संचालन प्रभासाक्षी.कॉम के संपादक और चर्चित तकनीकविद् बालेन्दु शर्मा दाधीच ने किया। इसमें वरिष्ठ तकनीकविद् डॉ. ओम विकास, प्रसिद्ध कवि तथा तकनीक-प्रेमी अशोक चक्रधर, सीडैक (पुणे) के जिस्ट समूह के सहयोगी निदेशक महेश कुलकर्णी, नागरी लिपि परिषद के महासचिव तथा नागरी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. परमानंद पांचाल और डेवलपर जगदीप दांगी शामिल थे। मुख्य अतिथि सांसद अलका बलराम क्षत्रिय और विशिष्ठ अतिथि राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह थे।

बालेन्दु दाधीच ने कहा कि न्यूयॉर्क में हुए आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन और मौजूदा सम्मेलन के दौरान पाँच साल की अवधि में हिंदी में उत्साहजनक तकनीकी प्रगति हुई है। तकनीकी दुनिया में हिंदी की बुनियादी समस्या, मानकीकृत सार्वत्रिक टेक्स्ट एनकोडिंग प्रणाली का अभाव, यूनिकोड की आशातीत सफलता के साथ लगभग हल हो चुकी है। इसने मानकीकरण की अहमियत को सिद्ध करने के साथ-साथ यह संदेश दिया है कि तकनीक के दूसरे क्षेत्रों में भी मानकों के विकास, क्रियान्वयन तथा जागरूकता-प्रसार की आवश्यकता है। अब टेक्स्ट इनपुट, फॉन्ट निर्माण, उच्चारण व ध्वनि संबंधी फ़ोनीकोड मानकीकरण आदि पर फोकस किए जाने की जरूरत है ताकि तकनीकी क्षेत्र में हिंदी की जड़ें जमाने के लिहाज़ से सुस्पष्ट तथा मानकीकृत जेनेरिक पृष्ठभूमि तैयार हो सके। इससे नए सॉफ्टवेयरों, अनुप्रयोगों तथा कन्टेन्ट प्लेटफॉर्मों का विकास गति पकड़ेगा और अंग्रेजी की ही तरह विभिन्न डिजिटल डिवाइसेज, ऑपरेटिंग सिस्टमों, वेब-तंत्रों, संचार माध्यमों आदि में हिंदी की प्रोसेसिंग में एकरूपता आ सकेगी।

श्री दाधीच ने कहा कि पिछले पाँच साल में हिंदी से जुड़ी तकनीकी चिंताओं, मुद्दों, चुनौतियाँ, फौरी लक्ष्यों तथा दूरगामी योजनाओं का चेहरा बदल गया है। पहले यूनिकोड को आम लोगों तक पहुँचाना, फॉन्ट कनवर्जन की समस्याओं को दूर करना, आम जरूरत के अनुप्रयोगों का विकास, ब्लॉगिंग की लोकप्रियता तथा इंटरनेट पर हिंदी कन्टेन्ट की मौजूदगी सुदृढ़ बनाना अहम लक्ष्य था। लेकिन आज इनमें से अधिकांश उद्देश्यों को थोड़ी या अधिक सफलता प्राप्त हो चुकी है। सरकारी, गैर-सरकारी संस्थानों तथा विश्व भर में फैले उत्साही हिंदी सेवी डेवलपर्स ने हिंदी का तकनीकी माहौल बदलने में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन साथ ही साथ वह अपने आसपास हो रहे बदलावों से भी प्रभावित हो रही है। सोशल नेटवर्किंग की बढ़ती लोकप्रियता, टैबलेट व स्मार्टफोन जैसी शक्तिशाली हैंडहेल्ड डिवाइसेज का धमाकेदार आगमन, ई-बुक जैसे नए कन्टेन्ट माध्यमों का उभार, दूरसंचार माध्यमों का सशक्त होना, आम लोगों तक मोबाइल फोन के रूप में एक तकनीकी युक्ति का पहुँचना और इंटरनेट का इस्तेमाल अपेक्षाकृत सुलभ होना ऐसे अहम कारक हैं जो हिंदी के तकनीकी विकास की दिशा बदल रहे हैं। आज हमारी चिंताएँ आधुनिक हिंदी अनुप्रयोगों के विकास के साथ-साथ हिंदी इंटरनेट डोमेन नेम, हैंडहेल्ड डिवाइसों के अऩुकूल तकनीकी विकास, सोशल नेटवर्किंग जैसे मंचों का हिंदी के हित में उपयोग, ई-बुक्स तथा दूसरे रूपों में हिंदी कन्टेन्ट को सुलभ कराना तथा दैनिक जन-जीवन में प्रयुक्त तकनीकी सेवाओं के हिंदीकरण की दिशा में बढ़ी हैं जो इस बात का प्रमाण है कि तकनीकी क्षेत्र में हिंदी एक सीढ़ी ऊपर चढ़ चुकी है।

बालेन्दु दाधीच ने कहा कि यूनिकोडोत्तर हिंदी के तकनीकी विकास का यह दूसरा चरण उचित परिणति तक पहुँचे इसके लिए विभिन्न माध्यमों में गंभीर प्रयास किए जाने की जरूरत है। हमारी ज़रूरतों का कैनवस बहुत विस्तृत है जिसमें आम प्रयोक्ता को सशक्त बनाने से लेकर दिग्गज तकनीकी कंपनियों को साथ लेने, सेवाओं के हिंदीकरण और इंटरनेट पर हिंदी कन्टेन्ट को अंग्रेजी की तर्ज पर ही विस्तार देने की जरूरत है।

सत्र के बीज वक्ता प्रो. ओम विकास ने विभिन्न ऑपरेटिंग सिस्टमों, युक्तियों तथा वेब-माध्यमों में हिंदी से जुड़ी तकनीकी समस्याओं का विस्तृत विवरण देते हुए उनके समाधान के बिंदु भी सुझाए। उन्होंने सुझाव दिया कि यूनिकोड की तर्ज पर फोनीकोड मानक पर तुरंत काम शुरू किया जाना चाहिए तथा भारत सरकार द्वारा विकसित करवाए गए यूनिकोड समर्थित हिंदी फॉन्ट्स को आम लोगों के साथ-साथ वाणिज्यिक सॉफ्टवेयरों में भी इस्तेमाल के लिए खोल दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जल्दी ही हिंदी डोमेन नेम (आईडीएन) का प्रयोग सफल होने के बाद इंटरनेट पर हिंदी सेवाओं तथा अनुप्रयोगों को नई ऊर्जा तथा सक्षमता मिलेगी। उन्होंने हिंदी की भाषायी मजबूती की तरफ इशारा करते हुए कहा कि देवनागरी लिपि पाणिनी की सारिणी पर आधारित है जो न सिर्फ बेहद वैज्ञानिक ढंग से तैयार की गई थी बल्कि उसमें ध्वनियों को विशेष महत्व दिया गया था।

अशोक चक्रधर ने कहा कि तकनीकी क्षेत्र में हिंदी में कामकाज को बढ़ावा देने के लिए कीबोर्ड के मुद्दों पर काम किया जाना बहुत जरूरी है। जिन लोगों के पास पर्याप्त तकनीकी साधन नहीं हैं यदि वे हिंदी में काम करने के लिए रोमन (ट्रांसलिटरेशन) कीबोर्ड का प्रयोग करते हैं तो इसमें हर्ज नहीं है, लेकिन मानकीकरण की अहमियत को देखते हुए मानक कीबोर्ड (इनस्क्रिप्ट) के बारे में जागरूकता पैदा करने और सभी डिजिटल युक्तियों के लिए इनस्क्रिप्ट टेक्स्ट इनपुट के साधन तैयार करने की जरूरत है। महेश कुलकर्णी ने सीडेक की तरफ से किए गए तकनीकी विकास का खाका पेश किया।
सांसद अलका बलराम क्षत्रिय ने भी कहा कि जब भारत में हिंदी टेक्स्ट इनपुट के लिए मानक कीबोर्ड लेआउट मौजूद है और उसे सरकार का समर्थन भी प्राप्त है तो उसे अपनाने में देरी नहीं की जानी चाहिए। राजद नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा कि जिस तरह बेहतर सम्प्रेषण के लिए भाषा का जनता से तालमेल ज़रूरी है, उसी तरह तकनीक को भी आम भाषा तथा आम लोगों के प्रति सरोकार दिखाना चाहिए। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में विश्व भर से आए हिंदी प्रेमी और दक्षिण अफ्रीका के उत्साही लोग मौजूद थे।

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हिंदी के बिना देश का विकास संभव नहीं: त्रिवेदी


नई दिल्ली। हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती पर उन्हें याद किया गया और इस मौके पर कुछ रचनाकारों को सम्मानित किया गया। मशहूर पर्यावरणविद और ग्लोबल युनिवर्सिटी (नगालैंड) के कुलपति प्रियरंजन त्रिवेदी ने कहा कि हिंदी के विकास के बिना देश का विकास नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि हिंदी की वजह से ही देश के पहचान है और वह हमें एक सूत्र में बंधती है। त्रिवेदी इंद्रप्रस्थ इंडिया इंटरनेशल के तत्वधान में आयोजित राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जयंती समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि हमारी शिक्षा पद्धिति ठीक नहीं है जिसकी वजह से बेरोजगारी बढ़ी है। उन्होंने कहा कि पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी भी हमारी है और इसे हर स्तर पर ठीक करना होगा, तभी हम राष्ट्रकवि दिनकर के उन सपनों को पूरा कर पाएंगे, जो सपना उन्होंने देखा था। संस्था के महासचिव अंजनी कुमार राजू ने कहा कि हमें दिनकर के जीवन से प्रेरणा लेनी होगी, जिन्होंने हिंदी का परचम हमेशा बुलंद रखा। आज हम हिंदी को भूलते जा रहे हैं जबकि हिंदी हमें बेहतर ढंग से संप्रेषित करती है। राजू ने अफसोस जताया कि राजनीति से जुड़े लोग दिनकर जयंती को भी गंभीरता से नहीं लेते हैं। उन्होंने कहा कि एक केंद्रीय मंत्री को जब हमने आयोजन के लिए न्योता तो उन्होंने कहा कि समारोह में हम हिंदी में बात करेंगे तो हम दक्षिण के जिस प्रदेश से आते हैं, वहां हमारा विरोध होगा। राजू ने दिनकर की रचनाओं की चर्चा करते हुए कहा कि जरूरत इस बात की है साहित्य के जरिए फिर से क्रांति लाई जाए। संस्था के अध्यक्ष डॉ जी पी एस कौशिक ने कहा कि दिनकर जी की रचनाएं हमें बेहतर समाज बनाने के लिए प्रेरित करती हैं। उन्होंने बताया कि हम यह कार्यक्रम और भव्य तरीके से मनाना चाहते ते और इस कार्यक्रम के लिए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से समय मांगा गया था लेकिन वर्तमान राजनीतिक हलचल की वजह से राष्ट्रपति भवन से जो संदेश मिला उसमें कहा गया कि अक्तूबर या नवंबर की कोई तारीख आपको दी दाएगी। कौशिक ने कहा कि हम दो महीने बाद दिनकर जी को याद करने के बहाने जुटेंगे और भव्य कार्यक्रम करेंगे। इस मौके पर सांसद प्रदीप सिंह, अधिवक्ता रामनगीना सिंह और निशलेश ने भी दिनकर के साहित्यिक योगदान पर अपनी बात रखी। इस मौके पर अनिल सुलभ, फजल इमाम मल्लिक, डा. कौशलेंद्र नारायण, रविकांत सिंह को दिनकर साहत्यि रत्न सम्मान से नवाजा गया। समाजसेवा के क्षेत्र में जहांगीर, रणजीत कुमार और ओमप्रकाश ठाकुर को सम्मानित किया गया।

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पेड़ पर नहीं उगते पैसे क्‍या ? उगते हैं, उगते हैं, उगते हैं


पी एम ने कहा कि ‘पेड़ पर नहीं उगते पैसे’, उनके बयान में से इस एक हिस्‍से पर सबने ध्‍यान केन्द्रित किया गया और बवंडर मचाया गया जबकि वे वाक्‍य के अंत में ‘क्‍या’ जोड़ना भूल गए थे। अ‍ब इतनी छोटी चूक होनी स्‍वाभाविक थी क्‍योंकि एक लंबे अरसे के बाद उन्‍होंने अपनी जबान को तकलीफ दी थी, उस छोटी चूक को मोटी बनाने में क्‍या पब्लिक, क्‍या नेता, क्‍या पक्ष और क्‍या विपक्ष मतलब पूरा संसार ही उमड़-घुमड़ पड़ा है। जिस काम को करने में सब जुट जाएं तो वे सफल हो ही जाते हैं और सब पीएम की फजीहत करने में बुरी तरह सफल हो गए। सभी को सोचना चाहिए था कि वे अपने भारतदेश के पीएम हैं न कि विदेश के, कि सब उनकी लानत- मलामत करने लगे। माना कि नेता लोग बेशर्म हो गए हैं और आंखों के पानी, चुल्‍लू भर पानी के मिलने पर भी वे इसके भीगने से बचे रहते हैं। 

जब तक पीएम को अपनी चूक समझ में आती, तब तक तीर उनकी जुबान से छूट चुका था। उन्‍होंने सोचा कि मैं पीएम हूं एक तीर चल गया तो कोई बात नहीं, दूसरा तीर प्रयोग कर लूंगा, यही गफलत हो गई और अर्थ का अनर्थ हो गया। अब क्‍योंकि वे अर्थशास्‍त्री पहले हैं और पीएम बाद में बने हैं, वे और भी सफाई देना चाहते थे किंतु उन्‍होंने सोचा कि सफाई देना बेहद चालाकी भरा कदम कहा जाएगा। कोई उन्‍हें धूर्त भी समझ सकता है इसलिए  पीएम ने संबोधन के दौरान सफाई देना जरूरी नहीं समझा।

अब वे ‘क्‍या‘ जोड़ना भूल गए, फिर उनसे एक और चूक हो गई क्‍योंकि एक बार गलती हो जाए तो फिर गलतियों का क्रम शुरू हो जाता है। वे इतना किंकर्तव्‍यूविमूढ़ हो गए कि अगली कई बातें कहना औा तथ्‍यों का उल्‍लेख करना  भूल गए। इस पढ़ना भूलने को दुर्घटना ही कहा जाएगा। वैसे तो उन्‍हें भाषण की पूरी तैयारी कराई गई थी, उन्‍होंने इसे रट भी लिया था, कई बार अपने विशेषज्ञों को सुनाया भी। अनेक बार अभ्‍यास भी किया था किंतु चैनलों को सामने देखकर वे ‘सुजान’ न बन सके और ‘जड़मति’ ही रह गए।  

चैनलों की मजबूरी तो समझ में आती है कि उन्‍हें 24 घंटे चैनल चलाने होते हैं इसलिए बात का बतंगड़ बनाना जरूरी है किंतु पब्लिक ने सबके साथ मिलकर जो कयामत ढाई है, उनकी इस बेवफाई की वजह पीएम की समझ में तो नहीं आई है। जबकि वे पब्लिक के हित के लिए सदा ही पैट्रोल, डीजल, गैस और अन्‍य जीवन चलाने के लिए आवश्‍यक वस्‍तुओं पर सब्सिडी देते रहते हैं तथा उनकी कीमतों को बढ़ाने से बचते हैं। बतलाने वाले तो इसे वोट पाने का लालच करार देते हैं परंतु उन्‍होंने इसकी भी कभी परवाह नहीं की है और संभवत: इसी वजह से महंगाई भी आजकल सरकार से नाराज है। 

पैसे पेड़ पर नहीं उगते क्‍या, पैसे पेड़ पर भी उगा करते हैं। बल्कि इन्‍हें पैसे पेड़ पर फला करते हैं, कहना अधिक समीचीन है। समीचीन शब्‍द को सुनकर आप चीन की वस्‍तुओं की याद मत करने लगिएगा। मेरा ऐसा इरादा नहीं है कि मैं बात तो आपकी करूं, आप किस तरह पैसे कमाते हैं, इस पर चर्चा करूं और विदेश की मिसालें दूं। जिस फल का पेड़ होता है उसी के अनुसार पेड़ पर फल लगते हैं। कहा भी गया है कि ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाए’।  कोई भी पेड़ अपने फलों को खुद नहीं खाते हैं, इस सच्‍चाई को सभी जानते हैं और यहीं से पेड़ पर पैसे उगने शुरू हो जाते हैं मतलब आप उनके फलों को बेचें और पैसे बनाएं। 

बाढ़ खेत को खा सकती है, इसके बारे में हम सब जानते हैं। पुलिस को बलात्‍कार में संलिप्‍त पाया जाता है, जिस पुलिस पर पब्लिक की सुरक्षा की जिम्‍मेदारी है, वही पुलिस समय पड़ने पर पब्लिक को डंडों और गालियों से धुन-धुन कर अधमरा कर देती है और अनेक बार तो जान निकालने से भी गुरेज नहीं करती है। उसका मानना है कि कभी-कभी तो सौंपी गई जिम्‍मेदारी को पूरी तरह निभाना चाहिए। मंत्रियों ने भी इसी मार्ग पर चलते हुए खूब घोटाले किए हैं जिसमें उनकी कोई गलती इसलिए नहीं है क्‍योंकि ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते हैं कि पीएम उनके कारनामों को अनदेखा करते रहें और उन्‍होंने इसका फायदा उठाया तो इसमें कुछ गलत नहीं किया है।

आपके स्‍वामित्‍व में जिस फल का पेड़ होगा, आपकी कमाई भी उसी के हिसाब से ज्‍यादा या और भी ज्‍यादा होगी, कम होने का तो सवाल ही नहीं उठता है। बादाम, अखरोट, सेब, आम, पपीते, अमरूद इत्‍यादि  मतलब जितने भी किस्‍म के पेड़ होते हैं और उनके फलों को बेचकर सबसे खूब कमाई की जाती है। कुछ पेड़ बहुत लंबे होते हैं जबकि उनके ऊपर लगे फल संख्‍या में भी कम होते हैं और सस्‍ते भी बिकते हैं। लंबाई से किसी की उपयोगिता का अंदाजा नहीं लगाया जाना चाहिए। नारियल के पेड़ पर लगा नारियल सस्‍ता बिक रहा है जबकि उस लंबे पेड़ पर चढ़कर उसे तोड़कर लाने में काफी सफर तय करना पड़ता है। पेड़ पर चढ़ना फिर एक-एक नारियल को तोड़ पर संभाल कर नीचे लाया जाता है कि कहीं हाथ से छूट न जाए और नारियल टूट न जाए।

इसी सावधानी के लिए पीएम ने हाथ मजबूत करने की बात भी कही थी। जिसका आशय यह लगाया गया कि वे अपने हाथ मजबूत करने के बाद पब्लिक को घूंसे मारेंगे जबकि मारने-पीटने की वे कभी सोचते भी नहीं हैं। अगर ऐसा होता तो रोज ही वे किसी न किसी मंत्री की पिटाई कर रहे होते। मंत्रियों ने इतने रंग-बिरंगे ढंग से संगीन घोटाले खेल समझ कर किए किंतु पीएम ने उफ तक इसलिए नहीं की क्‍योंकि वे मार-पिटाई के खिलाफ रहे हैं। आप शायद जानते नहीं होगे कि स्‍कूलों में मास्‍टरों की पिटाई के विरुद्ध कानून बनवाने में भी उनकी अहम भूमिका रही है। जब घोटाले करने वाले मंत्री नहीं पिट रहे हैं तो उस देश के स्‍कूलों के बच्‍चे अपने मास्‍टरों के हाथों क्‍यों पिटें जबकि मास्‍टर उन विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ाकर कमाई भी करते हैं। जब वे ट्यूशन से कमाई करते हैं तभी बच्‍चों की पिटाई का हक वे खो देते हैं।

पेड़ के बाद उन्‍हें पौधों का जिक्र करना था। जिसमें वे बतलाते कि जिन पेड़ों पर फल नहीं उगा करते, उनकी लकडि़यां बेच कर खूब पैसे कमाए जाते हैं, जिन लकडि़यों से फर्नीचर नहीं बनाया जा सकता। उन्‍हें दाह-संस्‍कार में काम में ले लिया जाता है और वहां पर भी लकड़ी आजकल महंगी बिकती है। इसके बाद उन पौधों का नंबर आता है जिन पर फल नहीं उगते, उनके फूलों को बेचकर धन कमाया जाता है। आजकल फूल और फलों की खेती धन कमाने के लिए ही की जाती है। कोई भी पेड़-पौधों पर उगाए गए फलों और फूलों का फ्री वितरण नहीं करता है।

उस पर तुर्रा यह है कि बाबा रामदेव ने उनके ‘अर्थशास्‍त्री’ होने पर इस तनिक सी चूक के लिए उन्‍हें ‘अनर्थशास्‍त्री’ तक कह दिया जबकि पीएम ने उनके काले धन को लेकर किए गए ऊधम और शरारतों को भी सहजता से ही लिया और कभी अपना आपा नहीं खोया। न ही ‘रामदेव’ को ‘कामदेव’ की संज्ञा दी। जबकि वे चाहते तो ‘कालाधन’ के ‘का’ को वे उनके ‘रामदेव’ के ‘रा’ से रिप्‍लेस कर सकते थे परंतु उन्‍होंने ऐसा करके अपने बड़प्‍पन का परिचय दिया और बाबा ने उन्‍हें ‘अनर्थशास्‍त्री’ कहकर अपने ‘छिछोरेपन’ को ही दर्शाया है।   सोशल मीडिया यानी न्‍यू मीडिया ने भी इस बात पर बेवजह बहुत ही धमाल मचाया है, उनकी ऐसी गैर-जिम्‍मेदाराना हरकतों की वजह से सरकार इस पर रोक लगाना चाहती है तो इसमें क्‍या गलत बात है।

अब आप किस मुंह से कहेंगे कि पैसे पेड़ों पर नहीं उगा करते हैं ?

- अविनाश वाचस्‍पति 
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फ़जल इमाम को दिनकर साहित्य रत्न सम्मान



नई दिल्ली। साहित्यकार और पत्रकार फ़ज़ल इमाम मल्लिक को दिनकर साहित्य रत्न सम्मान से नवाजा गया। सम्मान रविवार की शाम उन्हें दिल्ली स्थित कांस्टयुटीशन क्लब के स्पीकर हाल में आयोजित दिनकर जयंती समारोह में दिया गया। समारोह का आयोजन इंद्रप्रस्थ इंडिया इंटरनेशनल ने किया था। पर्यावरणविद् और राजीवगांधी ग्लोबल युनिवर्सिटी के कुलपति प्रियरंतन त्रिवेदी, सांसद प्रदीप सिंह और इंद्रप्रस्थन इंडिया इंटरनेशनल के अध्यक्ष डॉ जी पी एस कौशिक ने फ़ज़ल इमाम मल्लिक को सम्मानित किया। सम्मान के तहत उन्हें प्रशस्तिपत्र, स्मृति चिन्ह और अंगवस्त्र भेंट किया गया। बिहार के शेख़पुरा ज़िला के चेवारा के रहने वाले फ़ज़ल इमाम मल्लिक जनसत्ता अख़बार में बतौर वरिष्ठ उपसंपादक कार्यरत हैं। वे कई समाचार चैनलों से जिनमें चैनल वन, आलमी सहारा और लाइव इंडिया प्रमुख हैं बतौर विशलेषक के तौर पर भी जुड़े हैं।
हिंदी खेल पत्रकारिता में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले फ़ज़ल इमाम मल्लिक का सरोकार साहित्य से भी है और उनकी कविताएं, कहानियां, टिप्पणिया देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। हाल ही में उन्हें पत्रकारिता के लिए वर्ष के श्रेष्ठ पत्रकार का पुरस्कार मिला था। इससे पहले राजीव गांधी एक्सलेंस अवार्ड सहित कई दूसरे अवार्ड मिल चुके हैं। दिनकर जयंती समारोह के मौक़े पर संस्था के महासचिव अंजनी कुमार राजू, अधिवक्ता रामनगीना सिंह भी मौजूद थे। समारोह में राष्ट्रकवि दिनकर को याद किया गया और देश में हिंदी की जो स्थिति है उस पर चर्चा की गई। सम्मान ग्रहण करने के बाद फ़ज़ल इमाम मल्लिक ने आयोजकों और ख़ास कर संस्था के अध्यक्ष डॉ जी पी एस कौशिक और महासचिव अंजनी कुमार राजू का धन्यवाद करते हुए कहा कि इस सम्मान से उन्हें और बेहतर करने की प्रेरणा मिलेगी। उन्होंने कहा कि यह इत्तफ़ाक़ है कि दिनकर उसी अविभाजित मुंगेर ज़िला के रहने वाले थे जहां मेरा घर है और उन्होंने लंबा समय शेख़पुरा और बरबीघा में बिताया और वहां हिमलय जैसी कविता लिखी। दिनकर साहित्य रत्न सम्मान साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में बराबरा उन्हें अच्छा और बेहतर साहित्य रचने के लिए प्रेरित करता रहेगा।
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ढंग के इस बेढ़गे ढंग को बंद करो जी


आज मोहब्‍बत बंद है’ गीत फिजा में गूंज रहा है जबकि कल भारत बंद था। भारत बंद होने पर मोहब्‍बत पर तो अपने आप ही लॉक लग जाएगा। गीत का सकारात्‍मक संदेश है कि मोहब्‍बत बंद हो सकती है लेकिन हिंसारक्‍तपातखून खराबामारपीटी शुरू होने के बजाय महंगाई बंद होनी चाहिए। इसके विपरीत भारत बंद हुआ क्‍योंकि महंगाई ने नंगपना मचा रखा हैजिसमें नाच देखने वालों और नाचने वालों में नेताओं के शागिर्द होते हैं। इन्‍हें आप भाईजीगुंडेबाउंसरसक्रिय कार्यकर्ता इत्‍यादि नामों से पहचानते हैं। बहरहाल, सच्‍चाई यह है कि धरती का आधार प्रेम है। प्रेम से ताकतवर कुछ नहीं है। प्रेम के बिना झगड़े भी नहीं है। किसी से प्रेम होगा तो किसी से उसी प्रेम के लिए झगड़ा भी होगा। यही इस सृष्टि का सनातन सत्‍य है।

भारत बंद महंगाई रूपी बुराई को हटाने के लिए प्रेम का शक्ति प्रदर्शन है। महात्‍मा गांधी ने अनशन का रास्‍ता अपनाया। बे-सत्‍ता वालों ने भारत बंद का। भारत बंद के लिए किसी भारत घर की व्‍यवस्‍था नहीं है। काले धन की तरह इसे किसी विदेशी भूमि पर बंधक नहीं बनाया जा सकता है। चिडि़याघर काफी लंबे चौड़े होते हैं लेकिन उसमें से चिडि़यों को बाहर निकालेंतब भारत को बंद करने की सोचें। परंतु चिडि़याएं कौओं के लिए अपना घर खाली करने से रहीं। व्‍यंग्‍यकार का कवि मन कह रहा है कि वे प्रतीक तौर पर भारत बंद का शोर मचाते हैं। करते तो हों दुकानें बंदमार्केट बंदआफिस बंदयातायात बंदसिनेमा हाल बंद और चिल्‍लाते हैं कि कर दिया भारत बंद। माना कि भारत दुकानों में बसता है और दुकानों में सर्वसुखदायक करेंसी नोट। न्‍यू मीडिया पर अभी सरकार का ही बस नहीं चल रहा है। जबकि सरकार ने घोषणा कर दी है कि ‘न्‍यू मीडिया’ को बंद करने के लिए वे तत्‍पर हैं। अच्‍छी चीजें बंद और बुरी रखें खुली।

भारतभारत न हुआ कोई गुनहगार हो गया या दिल्‍ली ने जुर्म किया है, इसे तुरंत हिरासत में बंद कर दो। पेट्रोल के रेट कैसे बढ़ाएसीएनजी के रेट क्‍यों बढ़ाएडीजल में कीमतों का तड़का क्‍यूं लगाया, कीमतों को बंद नहीं करके रखा इसलिए भारत या राजधानी दिल्‍ली को तो बंद होना ही होगा। बंद करना है तो पुलिस के अत्‍याचारोंब्‍यूरोक्रेसी में भ्रष्‍टाचार फैलाने वालों,अच्‍छाईयों के दुश्‍मनों को करो। उन पर आपका बस कहां चलता है। वहां पर तो आप सिरे से पैदल चलना शुरू कर देते हैं। भारत बंद का शोर मचाते हैं और बुरे विचारों पर लगाम नहीं लगा पाते। दिल्‍ली बंद करते हैं परंतु दिल में से काले धन और कोयले के साक्षात दीदार हो रहे हैं।

सचमुच में बंद करने का इतना ही मन है तो कन्‍या भ्रूण हत्‍या को करोप्रसव पूर्व लिंग जांच को करोमिलावटी दवाईयों को करोक्‍या आप नहीं जानते कि एक चूहे को चूहेदानी में बंद करने के लिए भी कितनी मशक्‍कत करनी होती है। भारत बंद करने का आशय देश की सक्रियता को किडनैप करके देश को नुकसान पहुंचाने से है। मैं तो नहीं चाहता कि बंद रूपी ग्रहण का वायरस  मोहब्‍बत या भारत को लगेमहंगाई को यह कैंसर की मानिंद जकड़ लें, आप भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे हैं क्‍या ?
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न्यू मीडिया बिगड़ गया हिंदी-साहित्यकार के लिए

हँसना गुनाह हो गया
हँसाना गुनाह हो गया
गुनहगार हो गए 
हम मित्रों के।

भाते नहीं हमारे चित्र उन्हें
सुंदर पहले भी नहीं था
बीमारी ने चेहरा बिगाड़ दिया
भाषा ब्लॉगरों वाली हो गई।

ब्लॉगर खराबभाषा खराब
अब विचार भी विकृत हुए
न्यू मीडिया बिगड़ गया
हिंदी-साहित्यकार के लिए ।

विशेष : हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग, व्‍यंग्‍य लेखन और फेसबुक, ट्विटर रूपी सोशल मीडिया में सक्रियता से ही मुझे हैपिटाइटिस सी से उबरने का हौसला मिला। चार महीने का मेरा एकांत वास इसी न्‍यू मीडिया ने महसूस नहीं होने दिया। मेरा जीवन इसी की वजह से है, वरना मैं आज जीवित ही नहीं होता।  खैर ... मेरी टिप्‍पणी से जिन्‍हें संताप हुआ। वे अपने ताप से मुक्ति पाएं और अपने प्रताप को बुलंदियों पर पहुंचाएं। इसी कामना के साथ। शिकायत आपसे नहीं, अपने से है मित्रो।
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हिंदी ब्‍लॉगरों और फेसबुकधारियों के लिए उपयोगी है यह पाठ्यक्रम : गूगल में रजिस्‍ट्रेशन करें और करें पढ़ाई, मत शर्माएं, प्रमाण पत्र भी पाएं - पहले रजिस्‍ट्रेशन कर लें

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यूआरएल दीजिएगा , मतलब
जो सच है वही लिखिएगा

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आप स्‍वयं होंगे।

मौका मत गंवाइएगा
चूकने वाले चौहान मत बनिएगा
कक्षाएं 24 सितम्‍बर 12 से
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इसलिए पंजीकरण अभी कीजिए

इस पोस्‍ट का लिंक सबको दीजिए
इस अच्‍छे कार्य को सबसे साझा कीजिए
कहां से मिली आपको जानकारी
इस लिंक  http://www.nukkadh.com/2012/09/blog-post_19.html
को ही वहां पर कापी करके
पेस्‍ट कर दीजिए।


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साझी विरासत के अलमबरदार

फ़ज़ल इमाम मल्लिक
हिंदी-उर्दू के सवाल भारत में अक्सर तलवारें खिंची रहती हैं और इसे लेकर सियासत भी कम नहीं होती है। कई बार भाषा को लेकर यह विवाद आपसी रिश्तों में भी कड़वाहट घोल देता है। लेकिन हिंदी-उर्दू के सवालों को परे रख कर आस्ट्रेलिया में बसे भारत-पाकिस्तान के शायरों और कवियों ने एक बड़ी लकीर खींच कर हमें यह बताने की कोशिश की है कि साहित्य की कोई भाषा नहीं होती और अदब एक बेहतर और रोशन दुनिया बसाने का ज़रिया है। इसे क़बीलों, धर्म और मज़हब के साथ जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।
कुछ दिन पहले कवि-मित्र हरिहर झा का मेल मिला था। उन्होंने अपने मेल में इस बात का ज़िक्र किया था कि आस्ट्रेलिया में रह रहे कवियों-शायरों का एक साझा संग्रह ‘गुलदस्ता’ का प्रकाशन भारतीय विद्या भवन ने किया है। संग्रह में उर्दू और हिंदी दोनों ही रस्मुलख़त में रचनाएं प्रकाशित की गर्इं है। मैं चाहता हूं आप इसे पढ़ें। अपने मेल में उन्होंने संग्रह की समीक्षा की बात भी कही थी। मुझे क्या उज्रÞ हो सकता था। जवाबी मेल भेज कर मैंने उन्हें संग्रह की प्रति भेजने को कहा।
हरिहर झा से क़रीब दो साल पहले मेरा परिचय हुआ था। मेरी लिखी कुछ समीक्षाएं, आलेख और कुछ दूसरी चीजें उन्होंने नेट पर पढ़ी थीं। फिर मेल के ज़रिए एक-दूसरे से परिचय हुआ था। उन्होंने मुझे अस्ट्रेलिया में रह रहे कवियों का संग्रह ‘बूमरैंग’ भेजा था। आस्ट्रेलिया में बस गए हिंदी भाषी कवियों के उस संग्रह की रचनाओं में देश की मिट्टी की महक को महसूस किया जा सकता था। साथ ही अपनी भाषा को लेकर एक अलग तरह का अनुराग उनमें था, जो अच्छा लगा था। इस बार हिंदी-उर्दू ही नहीं भारत और पाकिस्तान के लोगों ने इस काम को विस्तार दिया है। ‘गुलदस्ता’ (संपादक: गंभीर वत्स, अब्बास रज़ा अलवी और ज़फ़र सिद्दीक़ी) इसकी तसदीक़ इन पंक्तियों के साथ करता है- ‘बस्ती बस्ती जंगल जंगल / हिंदी उर्दू को साथ लिए / गुज़रे पथरीली राहों से / ऐ तेज़ हवाओं के झोंको / मत रौंदो नन्ही कलियों को / हिंदी उर्दू की बगिया में / जो खिलती है अरमानों से (अब्बास रज़ा अलवी)’।
‘गुलदस्ता’ में सैंतालीस कवि-शायरों की कविताएं, गीत, नज्Þमें और ग़ज़लें शामिल हैं। अब्बास गिलानी, अब्बास रज़ा अलवी, अनिल वर्मा, अनीता बरार, अरशद सईद, अशरफ़ शाद, चौधरी फ़ुरक़ान अली, अरशद सईद, फ़रहत इक़बाल, फ़रीदा लखानी, ग़जÞाला फ़सीह सना, हैदर रिज़वी, हरिकृष्ण जुलका, हरिहर झा, हेमंत कुमार तन्ना, कैलाश भटनागर, कमलेश चौधरी, कनीज़ फ़ातिमा किरण, किशोर नांगरानी, मोहम्मद अली, मृदुला कक्कड़, नादिया मंज़ूर शाह, नलिन कांत, ओमकृष्ण राहत, पीर तरीन, राजेंद्र चोपड़ा राजन, रज़ा किरमानी, रेहान अलवी, रेखा राजवंशी, रियाज़ शाह, सादिक़ आरिफ़, सैफ़ चोपड़ा, शाहिद तिरमज़ी, शहला वाहिद, शैलजा चतुर्वेदी, शमीम इस्हाक़, शुजा आतिफ़, सुभाष शर्मा, सैयद नज्म सिबतैन हसनी, सैयद नसीम हैदर, सैयद शब्बीर हैदर, तनवीर नासिर ख़ान, तौक़ीर हसनैन, वीणा गुप्ता, वक़ार फ़ातिमा इस्हाक़, यासमीन शाद, यासमीन ज़ैदी नकहत की रचनाओं से सजा यह गुलदस्ता गंगा-जमुनी तहज़ीब का आईना तो है ही, मुल्क की सरहदों और ज़बान की बंदिशों से रचना को निकाल कर एक बड़े और विशाल दुनिया से उसे जोड़ता है।
संग्रह की कविताएं हमारी उंगिलयां पकड़ कर एक हमें एक ऐसे संसार में ले जाती हैं, जहां जीवन कई-कई रंगों में हमसे सरोकार बनाती है। इन कविताओं में हिज्रो-विसाल भी हैं, राज़ो-नियाज़ भी, इश्क़ो-मोहब्बत भी है, इंतज़ार और वस्ल की बातें भी हैं। देस की मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू भी है और परदेस में रहने का दर्द भी। वतन की याद में आंखें बारहा नम होती हैं और नम आंखों से लिखी कई कविताएं संग्रह में शामिल की गई हैं। रिश्तों की एक महक भी इन कविताओं में फैली दिखाई देती हैं जो सरहदों को लांघ कर हिंदुस्तान और पाकिस्तान के घरों तक पहुंचती है। साहित्य और अदब के ज़रिए दोनों मुल्कों के बीच पनपी खाई को पाटा जा सकता है, संग्रह की कुछ कविताएं इस सच की अक्कासी करती हैं।
आस्ट्रेलिया में रह रहे इन शायरों और कवियों ने इस संग्रह का प्रकाशन कर एक बड़ा काम किया है। हिंदुस्तान में इस तरह का प्रयोग अब तक नहीं हुआ है, लेकिन ‘गुलदस्ता’ को नज़ीर मान कर अगर ऐसी कोशिश की जाए तो भाषाओं की सियासत करने वालों को जवाब दिया जा सकता है। संग्रह की कविताओं में जीवन के जो विभिन्न शेड्स हैं उसमें हम अपना होना महसूस करते हैं। यह संग्रह मोहब्बत की एक नई इबारत लिखेगा और आस्ट्रेलिया से दूर भारत और पाकिस्तान में भी इस गुलदस्ता के फूलों की ख़ुशबू पहुंचेगी, ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है।
गुलदस्ता (काव्य संग्रह): संपादक: गंभीर वत्स, अब्बास रज़ा अलवी और ज़फ़र सिद्दीक़ी, प्रकाशक: भारतीय विद्या भवन, 100 / 515 केंट स्ट्रीट, सिडनी एनएसडब्लू 2000 (आस्ट्रेलिया), मूल्य: 550 रुपए व साढ़े सत्ताइस डालर।

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समकालीन सरोकार का प्रवेशांक पाठकों के हाथ में





प्रधान संपादक --सुभाष राय
संपादक --हरे प्रकाश उपाध्याय
फोन संपर्क--9455081894, 8756219902
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‘सॉरी’ हिंदी दिवस पर अंग्रेजी बोली



हिंदी का सौभाग्‍य माने या दुर्भाग्‍य कि सितम्‍बर माह में प्रत्‍येक बरस हिंदी बतौर सेलीब्रेटी पहचानी जाती है। इस महीने में सिर्फ हिंदी की जय जयकार ही होती है। जो अंग्रेजी में ‘लोंग लिव हिंदी’ के नारे लगाते हैं, वे फिर ‘सॉरी’ कहकर अपनी गलती भी मान लेते हैं। हिंदी का जन्‍मदिन हिंदी दिवस है, ऐसा सोचने वाले अपने मुगालते को दुरुस्‍त कर लें क्‍योंकि यह वह दिन है जिस दिन हिंदी को राष्‍ट्रभाषा का दर्जा देकर तुरंत दराज में बंद कर दिया गया और दराज क्‍योंकि मेज में होती है इसलिए वह आफिस में कैद होकर रह गई। हिंदी आज तक उस कैद से छूट नहीं सकी है। सिर्फ इसलिए कि जिससे उसका दिल ऑफिस में लगा रहे, उसके नाम पूरा माह आंबटित कर दिया गया है। हिंदी प्रेमी इस हरकत से भड़क न उठें इसलिए उनसे इस माह में खूब भाषण, वक्‍तव्‍य, चर्चाएं करवा ली जाती हैं और उसके बदले में उन्‍हें पांच सौ या एक हजार रुपये देकर बहला दिया जाता है। इसके अतिरिक्‍त कार्यालय में अंग्रेजी में काम करने वालों से हिंदी में निबंध, टिप्‍पणी, शब्‍द अर्थ और टाइपिंग जैसे कार्य करवा कर प्रति‍योगिता करवा दी जाती है और उनकी जेबों में पारितोषिक के नाम पर कुछ करेंसी नोट का चढ़ावा चढ़ा दिया जाता है।

हिंदी वाले इतने भोले हैं कि वे ऐसे भालों की चुभन को हंस हंसकर सह लेते हैं।  हिंदी वालों के लिए ही, अंग्रेजी वालों के साथ घु‍ल मिलकर सितम्‍बर माह को बतौर उत्‍सव सेलीब्रेट किया जाता है।  जिसे मनाने के लिए हम ग्‍यारह महीने पहले से इंतजार करते है और फिर 15 दिन पहले से ही नोटों की बिंदिया गिनने के लिए सक्रिय हो उठते हैं। अध्‍यक्ष और जूरी मेंबर बनकर नोट बटोरते हैं और उस समय अंग्रेजी बोल-बोल कर सब हिंदी को चिढ़ाते हैं। हिंदी की कामयाबी के गीत अंग्रेजी में गाते हैं। कोई टोकता है तो ‘सॉरी’ कहकर खेद जताते हैं। सरकारी कार्यालयों में हिंदी को बहलाने के लिए सितम्‍बर माह में काम करने पर पुरस्‍कारों का अंबार लग जाता है। जिसे अनुपयोगी टिप्‍पणियां, शब्‍दों के अर्थ-अनर्थ लिखकर, निबंध, कविताएं लिख-सुना कर लूटा जाता है। लूट में हिस्‍सा हड़पने के लिए सबकी आपस में मिलीभगत क्रिया सक्रिय हो उठती है। हिंदी को कूटने-पीटने और चिढ़ाने का यह सिलसिला जितना तेज होगा, उतना हिंदी की चर्चा और विकास होगा।

हिंदी के नाम पर सरकारी नौकरी में चांदी ही नहीं, विदेश यात्राओं का सोना भी बहुतायत में उपलब्‍ध रहता है। इसके लिए ‘विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन’ किए जाते हैं और खाते-पीते खुशी मनाते जेबें भरी जाती हैं। परिवार के साथ विदेश यात्राओं का सपरिवार लुत्‍फ लूटा-खसूटा जाता है। एक कड़वी सच्‍चाई यह भी है कि सिर्फ हिंदी में लेखन से रोजी रोटी कमाने वालों का एक जून की रोटी का जुगाड़ भी नहीं जुटता।  खीर खाने को मिलती है तो वह उस तक आते-पहुंचते ‘टेढ़ी खीर’ हो जाती है। पुस्‍तक प्रकाशक और अखबार, पत्रिकाएं छापने वाले हिंदी लेखकों को जी भर कर लूटे जा रहे हैं। प्रकाशक लेखक से ही सहयोग के नाम पर दाम वसूलकर पुस्‍तकें छाप कर बेचते हैं, जिसके बदले में छपी हुई किताबें एमआरपी मूल्‍य पर भेड़ देते हैं। गजब का सम्‍मोहन है कि लेखक इसमें मेहनत की कमाई का निवेश कर गर्वित होता है। किताबें अपने मित्र-लेखकों, नाते-रिश्‍तेदारों को फ्री में बांट-बांट कर उल्‍लसित होता है कि अब उसका नाम बेस्‍ट लेखकों में गिन लिया जाएगा। यही वह परम आनंद की स्थिति होती है जब उसे अपने उपर गर्व हो आता है।
छपास रोग इतना विकट होता है कि लेखक मुगालते में जीता है कि जैसा उसने लिखा है, वैसा कोई सोच भी नहीं सकता, लिखना तो दूर की बात है। बहुत सारे अखबार, पत्रिकाएं, लेखक को क्‍या मालूम चलेगा, की तर्ज पर ब्‍लॉगों और अखबारों में से उनकी छपी हुई रचनाएं फिर से छाप लेती हैं। इसका लेखक को मालूम चल भी जाता है किंतु वह असहाय-सा न तो अखबार –मैगज़ीन वाले से लड़ पाता हे और न ही अपनी बात पर अड़ पाता है। लेखक कुछ कहेगा तो संपादक पान की लाल पीक से रंगे हुए दांत निपोर कर कहेगा कि ‘आपका नाम तो छाप दिया है रचना के साथ, अब क्‍या आपका नाम करेंसी नोटों पर भी छापूं ।‘ उस पर लेखक यह कहकर कि ‘मेरा आशय यह नहीं है, मैं पैसे के लिए नहीं लिखता हूं।‘ ‘जब नाम के लिए लिखते हैं तब आपका नाम छाप तो दिया है रचना के साथ।‘ फिर क्‍यों आपे से बाहर हुए जा रहे हैं और सचमुच संपादक की बात सुनकर लेखक फिर आपे के भीतर मुंह छिपाकर लिखना शुरू कर देता है। 

सरकारी योजनाओं और बजट में धन का प्रावधान हिंदी को जीवन देता रहेगा। सितंबर माह में खीर-पूरी का कॉम्‍बीनेशन बना रहेगा। बकाया 11 महीने मेज की दराज उसके लिए ‘तिहाड़’ बनी रहेगी। जिससे वह सुरक्षित रहेगी और कोई अंग्रेजी-तत्‍व  हिंदी की बिंदी की चिंदी करने में भी कामयाब नहीं हो सकेगा। इस पूरे प्रकरण से साफ है कि हिंदी के चौतरफा विकास को कभी किसी की बुरी नजर नहीं लगेगी, फायदा यह होगा कि जो काली शातिर आंखों वाले इसे निहार रहे होंगे उनका मुंह काला होने से बचा रहेगा। कोयला घोटाले में चाहे मंत्रियों का मुंह, क्‍या समूचा शरीर काला होता रहे किंतु हिंदी पर नजर गड़ाने पर मुंह काला नहीं होना चाहिए, इतनी सतर्कता तो बरती ही जा रही है। जाहिर है कि युगों-युगों तक हिंदी सेलीब्रेटी बनी खुश होती रहेगी, हिंदी वालों को लगेगा कि उनकी पॉकेट भर रही है, सो भरती रहेगी और वे खुश रहेंगे?
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पापा, भैया लोग मुझे ऐसी अजीब सी नज़रों से क्यों घूर रहे थे?

ग्यारह बसंत पूरे कर चुकी मेरी बिटिया के एक सवाल ने मुझे न केवल चौंका दिया बल्कि उससे ज्यादा डरा दिया.उसने बताया कि आज ट्यूशन जाते समय कुछ भैया लोग उसे अजीब ढंग से घूर रहे थे.यह बताते हुए हुए उसने पूछा कि-"पापा भैया लोग ऐसे क्यों घूर रहे थे? भैया लोग से उसका मतलब उससे बड़ी उम्र के और उसके भाई जैसे लड़कों से था.खैर मैंने उसकी समझ के मुताबिक उसके सवाल का जवाब तो दे दिया लेकिन एक सवाल मेरे सामने भी आकर खड़ा हो गया कि क्या अब ग्यारह साल की बच्ची भी कथित भैयाओं की नजर में घूरने लायक होने लगी है? साथ ही उसका यह कहना भी चिंतन का विषय था कि वे अजीब निगाह से घूर रहे थे.इसका मतलब यह है कि बिटिया शायद महिलाओं को मिले प्रकृति प्रदत्त 'सेन्स' के कारण यह तो समझ गयी कि वे लड़के उसे
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नुक्‍कड़ को गर्व है अपने लेखक असीम त्रिवेदी के दमदार कदम से

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'''जीवंतता से जीने का कारगर मंतर'''

मौत को अब तू मनाना सीख ले
बुलाए मौत तुरंत जाना सीख ले

मैं तैयार हूं
आ मौत, कर मेरा सामना
मैं नहीं करूंगा तुझे मना
डर कर नहीं लूंगा नाम तेरा
जानता हूं, मारना ही है काम तेरा
डराना भी तूने अब सीख लिया है
डरना नहीं है, जान ले, काम मेरा
आए लेने तो करियो मौत
पहले तू सलाम
कबूल करूंगा सलाम तेरा नहीं डरूंगा
भय की भीत पर मैं नहीं चढूंगा

कर लिया है तय
डर कर मैं एक बार भी नहीं मरूंगा
मारना चाहेगी तू मुझे मैं तब भी नहीं डरूंगा
मरूंगा, तैयार हूं मरने को
लेकिन जी हुजूरी
कभी नहीं करूंगा
न मौत की
न बीमारी की
न सुखों को काटने वाली आरी की।

दुखों से करूंगा प्यार मैं, यारी करूंगा
लेकिन उधार लेकर नहीं मरूंगा
नियम यह मैंने तय किए हैं
तुझे न हों पसंद
नहीं पड़ता अंतर
जीवंतता से जीने का
यही है मेरा कारगर मंतर।

असीम त्रिवेदी फेसबुक समूह
अन्‍नाभाई प्रवर्तित
सदस्‍य बनें
सदस्‍य बनायें

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रस्किन बांड पर एक अच्छी किताब


फ़ज़ल इमाम मल्लिक
मसूरी की शोहरत वहां की पहाड़ियों की वजह से तो है ही, लेकिन एक और बात के लिए भी मसूरी देश-विदेश में जाना जाता है। पहाड़ियों पर बसे इस छोटे से शहर को रस्किन बांड के लिए भी जाना जाता है। ब्रिटिश मूल के अंग्रेजी के इस कथाकार ने अपने सामाजिक सरोकारों की वजह से एक ऐसी दुनिया रची है जिसमें बच्चे भी हैं और बड़े भी। हिमाचल प्रदेश के कसौली में जन्मे और जामनगर, दिल्ली, देहरादून व शिमला में पले-बढ़े रस्किन बांड बच्चों के प्रिय लेखक तो हैं ही, बड़े-बूढ़े भी उनकी रचनाओं के शैदाई हैं। क़रीब चार साल तक लंदन में रहे रस्किन बांड 1955 में भारत लौटे तो फिर भारत के ही होकर रह गए। मसूरी में उन्होंने अपने परिवार का विस्तार किया। यह परिवार यों तो उनका अपना नहीं था लेकिन उन्होंने अपने परिवार को राकेश और मुकेश में तलाशा और आज उनके बच्चों में उस परिवार को पाकर सकून महसूस कर रहे हैं। परिवार का यह विस्तार उनके मानवीय सरोकारों का दस्तावेज़ भी है। गणेश सैली की पुस्तक ‘रस्किन बांड: द मसूरी इयर्स...’ के ज़रिए ऐसी ही कुछ दिलचस्प बातें अपने समय के इस मशहूर लेखक के बारे में जानने को मिलती है।
गणेश सैली मूलत: फोटोग्राफर हैं और हिमलियाई क्षेत्र में उन्होंने लंबा समय बिताया है। गणेश सैली ने पहाड़ों के जीवन को बेहतर ढंग से देखा है। पहाड़ों में हाल के कुछ सालों में जो बदलाव आया है, वे इसके भी गवाह रहे हैं। रस्किन बांड के साथ उनका साथ क़रीब चार दशक का है। यह किताब दरअसल चालीस साल के उन रिश्तों का दस्तावेज़ तो है ही, एक दोस्त का दूसरे दोस्त के लिए नायाब तोहफ़ा भी। गणेश सैली ने रस्किन बांड के कुछ यादगार और दुर्लभ लम्हों को अपने कैमरे में क़ैद किया है। उन तस्वीरों के साथ लेखक ने पुस्तक में उन अनुभवों को भी साझा किया है जो चालीस साल की यात्रा के दौरान उन्होंने रस्किन बांड के साथ-साथ चलते हुए देखा है, सहेजा है और महसूस किया है। एक लेखक के जीवन में जो घटित होता है, गणेश सैली ने उसे संकलित किया है, ऐतिहासिक और यादगार तस्वीरें तो हैं ही। इन तस्वीरों के अलावा रस्किन बांड को लिखे कुछ पत्रों का प्रकाशन भी किया गया है और ये पत्र पुस्तक को और भी महत्त्वपूर्ण बनाते हैं। पुस्तक की शुरुआत बहुत ही दिलचस्प ढंग से शुरू होती है। रस्किन बांड के नाम को लेकर एक महिला को संशय था। रस्किन बांड ने उन्हें यक़ीन दिलाने की कोशिश भी की। उन्हें बताया कि उनका नाम रस्किन बांड ही है। लेकिन महिला यह मानने के लिए तैयार ही नहीं थीं। तब रस्किन ने उन्हें बताया कि दक्षिण में उन्हें ‘रस्किन बांडा’ के नाम से पुकारा जाता है तो पंजाबी उन्हें ‘रेकसिन बांड’ कहते हैं। मसूरी आने, उनके स्कूल से जुड़ने का क़िस्सा भी रोचक ढंग से बताया गया है। इनके अलावा उनके जीवन से जुड़ी और भी कई बातों की जानकारी हमें मिलती है। रस्किन बांड को जानने-समझने में यह पुस्तक मदद देती है। राकेश, मुकेश, उनके बच्चों के साथ-साथ विक्टर बनर्जी वगैरह की तस्वीरें देख कर अच्छा लगता है और जीवन से जुड़े उनके सरोकारों का पता भी चलता है।

रस्किन बांड: द मसूरी इयर्स... (संस्मरण), लेखक: गणेश सैली, प्रकाशक: नियोगी बुक्स, डी-78 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-1, नई दिल्ली-110020, मूल्य: 1495 रुपए।
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गोलमगोल से पोलमपोल तक

गोलमगोल से पोलमपोल तक

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उल्लू बदल गया

ऊल्लूक का
निठल्ला चिंतन
कभी आपको
यहाँ अब अगर
दिख जायेगा
मत घबराइयेगा
रात को भी
देखता हो
आँख जो
थोड़ा बहुत
दिन में दिख 
भी गया
उड़ता हुआ कहीं
कुछ नहीं
कर पायेगा
कोशिश फिर
भी करेगा
कुछ तो सावधान
कर ही जायेगा
कहने में चाहे
शाख का
उल्लू ही
कहलायेगा
पर आदमी
सीख लिया है
अब वो सब
इसलिये शाख
को उजाड़ने
में साथ
नहीं  दे पायेगा !
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परिकल्पना-सम्मान और अपमान !

पढ़ते सब हैं लेकिन कमेंट बहादुर करते हैं
तस्लीम-परिकल्पना समारोह-२०११ बीते २७ अगस्त को लखनऊ में कुशलतापूर्वक निपट गया.इस कार्यक्रम के पहले इतनी ज़्यादा गहमागहमी नहीं थी,पर अगले दिन जैसे ही प्रदेश भर के समाचार पत्रों में इस समारोह की चर्चा हुई ,कई लोग जो इसे अब तक निस्पृह भाव से देख रहे थे,इसके आयोजकों पर टूट पड़े !

इस समारोह की आलोचना करने वाले अब दो-धड़ों में विभक्त हो गए हैं.एक वे हैं,जिन्हें शुरुआत से ही ऐसे कार्यक्रम निरर्थक और वृथा लगते रहे हैं.उनकी आलोचना कुछ हद तक इस मायने में तार्किक लगती है.स्वयं मुझे भी पुरस्कार और सम्मान की भारतीय-परंपरा में पारदर्शिता की घोर कमी दिखती है.यह सरकारी-गैर सरकारी आयोजनों में समान रूप से लागू होता है.तो क्या इसके चलते यह परंपरा खत्म कर देनी चाहिए,बिलकुल नहीं.इनके माध्यम से विचार-विमर्श और मेल-मिलाप का सुखद संयोग तो बनता ही है,सम्मान पाने वाले थोड़े समय के लिए अभिभूत हो लेते हैं,प्रेरित भी हो सकते हैं.इसमें ज़्यादा हर्ज़ नहीं है.इसके साथ ही यह बात भी बिलकुल साफ़ है कि सम्मान से बचे हुए लोग क्या अपमानित हो गए ? यही धारणा नकारात्मक रूप से इस समय ब्लॉग-जगत में फैलाई जा रही है.

दूसरे लोग वे हैं जिन्हें यह आयोजन खूब पसंद है.वे वहाँ लहक-लहक कर फोटो भी खिंचवाते हैं.आयोजन के पहले सम्मान को प्रचारित करते हैं पर यदि मंचासीन न हुए या समयाभाव के कारण बोलने का अवसर नहीं मिला तो आयोजकों के सारे किये-कराये पर पानी भी फेरने लग जाते हैं.अपने सम्मान की कुर्सी उन्हें किसी नेता जैसी या घर आए पाहुन जैसी संवेदनशील लगती है,जिसके इंचमात्र खिसकने भर से उनका अपमान हो जाता है.ऐसे लोग क्या समझ कर ब्लॉगर-मिलन में जाते हैं ? क्या इन्होंने कोई ओलिम्पिक का मैडल या साहित्य का नोबेल जीता है ?

मुझ खाकसार को भी उदीयमान-ब्लॉगर सम्मान दिया गया जिसकी सूचना लखनऊ जाने के पन्द्रह दिन पहले मेल से रवीन्द्र जी ने दी थी.मैं इस तरह के पुरस्कारों या सम्मान का व्यक्तिगत रूप से हिमायती नहीं हूँ,फ़िर भी आयोजकों के ब्लॉगर-मिलन के इस उत्साह को फीका भी नहीं करना चाहता था.मैंने बहुत पहले ही सबसे मिलने के लिए टिकट बुक करवा ली थी और गया भी इसी उद्देश्य से था.वहाँ जाकर मैं चाहता तो पाहुन की तरह बैठकर अपने को सम्मानित करवाता लेकिन दोस्तों की खुशियों को समेटने के लिए मैं लगातार चार-पाँच घंटे खड़े रहकर फोटोग्राफ़ी करता रहा.मुझे रत्ती-भर इसमें अपना अपमान नहीं लगा,तब भी जब समयाभाव के कारण एक सत्र स्थगित कर दिया गया.इसमें शास्त्री जी,सिद्धेश्वर जी ,रविकर जी ,चंडीदत्त जी सहित मैं भी वक्ताओं में शुमार था,पर शास्त्री जी को ही इतने ज़्यादा अपमान की अनुभूति हुई कि बाकी सभी बातें गौण हो गईं.मुझे सिद्धेश्वर जी के लिए ज़रूर दुःख हुआ था और उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसे व्यक्त न करके बड़प्पन का परिचय दिया है.

इस समय शास्त्री जी के अपमान की चर्चा ज़ोरों पर है.स्वयं वे वहाँ खूब घूम-घूमकर फोटो खिंचवाने में तल्लीन थे और यहाँ तक कि अपने परिचय-पत्र को मंच तक बांटने से भी परहेज नहीं किया जबकि सत्र चल रहा था.मुझे लगता है कि नेताओं की संगति से ही उनका सम्मान इतना संवेदनशील हो गया है.वे वरिष्ठ हैं और उनको भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए.हँसी आती है जब उनकी वक़ालत ऐसे लोग कर रहे हैं जिनके यहाँ उन्हें पिता बनाकर अपमानित किया गया था .शास्त्री जी से बेहद विनम्रता से यह निवेदन है कि वे सम्मानित करने वालों और अपमानित करने वालों की पहचान कर लें.मुझसे यदि धृष्टता हुई हो तो भी माफ करेंगे,पर अनर्गल बातों को रोकना भी ज़रूरी है.

आयोजन को लेकर सबसे ज़्यादा वे लोग सवाल उठा रहे हैं,जिनको इस तरह का कोई अनुभव नहीं है और न वे ऐसे समारोहों के प्रोटोकॉल समझते हैं.भई ,रवीन्द्र भाई ने अकेले ऐसे कार्यों का ठेका तो नहीं ले रखा है,जिसको लगता है कि वे इस बहाने अपना एजेंडा पूरा कर रहे हैं तो वे भी कुछ करके अपना एजेंडा पूरा कर लें.केवल एक-आध पोस्ट लिख देने भर से कोई ब्लॉगर-हितैषी नहीं बन जाता .आधा सच वाले सज्जन को पूरा झूठ लिखना ज़्यादा भाता है.उनके ब्लॉग में कई आलोचनात्मक और शालीन टीपों को तो रोक दिया गया ,पर 'शेख चिल्ली का बाप' जैसे झूठी प्रोफाइल वाले लोग उन्हें तार्किक और अर्थपूर्ण लगते हैं.परिकल्पना -समारोह में शामिल होने वाले कितने आनंदित होकर लौटे हैं पर उन्हें यह मेल-मिलाप 'ब्लैक-डे' दिखता है.हर समारोह में छोटी-मोटी दिक्कतें या चूकें हो जाती हैं तो क्या इस वज़ह से पूरा कार्यक्रम व्यर्थ हो गया ? अगर समयाभाव के कारण सत्र नहीं हो पाया  या किसी को उपयुक्त कुर्सी नहीं मिलि तो सारा विमर्श बेकार गया ? यह आधा सच नहीं पूरा झूठ है !

अल्पना वर्मा जी ने एक जगह आयोजन से सम्बंधित सुनी-सुनाई बातों के आधार पर बड़ा खेद व्यक्त किया है.वे इतनी भावुक हो गई कि उन्हें पूर्व में मिले हुए सम्मान को वापस करने की बात भी कह दी है.आयोजकों को इस बात को नोटिस में लिया जाना चाहिए कि जो लोग उनके द्वारा दिए सम्मान का मोल नहीं समझते उसे निरस्त क्यों न कर दिया जाए ?अल्पना जी ,एक सुलझी हुई ब्लॉगर हैं और उनसे ऐसे हल्के बयान की उम्मीद नहीं थी.अल्पना जी को इन आलोचनाओं के पीछे हो रही दुरभिसंधियों पर गौर करना होगा.कुछ लोग निहित उद्देश्य लेकर एक सार्थक पहल को पलीता लगाने में जुटे हैं जिसमें वे सफल नहीं होंगे !

रवीन्द्र जी से यदि कोई चूक हुई है तो महज़ इतनी कि कम समय में उन्होंने कई सत्र जोड़ दिए.यह कार्यक्रम वास्तव में एक दिन में सिमटने लायक नहीं रहा.ब्लॉगर्स अनौपचारिक रूप से तो मिल लिए पर एक औपचारिक सत्र की नितांत आवश्यकता थी.सकारात्मक आलोचनाओं से हौसला टूटता नहीं,बढ़ता है,जबकि कुछ लोग निजी सम्मान को बड़ा मुद्दा बनाकर सम्मान हथियाना चाहते हैं.यहाँ यह बिलकुल साफ़ है कि जो सम्मानित हुए हैं उनसे रत्ती-भर भी कम उनका सम्मान नहीं है जो इस सूची से रह गए.कोई भी सम्मान या पुरस्कार मिलने वाले को गौरवान्वित करता है, न कि न मिलने वाले को अपमानित !

ब्लॉगिंग में ऐसे मौकों पर हम राजनीति ही क्यों देखते हैं ?अपने पूर्वाग्रहों को त्यागकर हम सम्मान की बजाय सार्थक लेखन में ध्यान लगाएं तो बेहतर होगा !

''हैप्पी एंडिंग,हैप्पी ब्लॉगिंग "

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अगले बरस के नुक्‍कड़डॉटकॉम महाशिखर सम्‍मान की घोषणा

सच्चा हिंदी ब्लॉगर वही
जो धन न कमाए
बेहियाब, बे-वज़ह
विवाद बढ़ाए


अगले बरस
नुक्कड़ॉडॉटकॉम देगा
इन्हीं उपलब्‍धियों पर
पुरस्कार और करेगा
महाशिखर सम्मान


कौन योग्य हैं इनके

सब परिचित हैं
सो कोई तनिक
विरोध न करेगा

पंडित और विद्वान में
न हो मुकाबला कड़ा
न हो बखेड़ा
इसलिए दोनों को
मंच पर खड़ा करके
हाथों में थमाए जाएंगे।
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अविनाश वाचस्‍पति को ‘प्रगतिशील ब्‍लॉग लेखक संघ चिट्ठाकारिता शिखर सम्‍मान’ से नवाजा गया और 'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' का लोकार्पण

प्र गतिशील ब्‍लॉग लेखक संघ चिट्ठाकारिता शिखर सम्‍मान स्‍वीकारते हुए अविनाश वाचस्‍पति। साथ में हैं डॉ. सुभाष राय,  साहित्‍यकार उद्भ्रांत, कथाक्रम के संपादक शैलेन्‍द्र सागर और शिखा वार्ष्‍णेय

'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' का लोकार्पण करते हुए दाएं से कहानीकार शिवमूर्ति, व्‍यंग्‍यकार गिरीश पंकज,  उद्भ्रांत,  कथाक्रम के संपादक शैलेन्‍द्र सागर, डॉ. अरविन्‍द मिश्र, व्‍यंग्‍य संग्रह के लेखक अविनाश वाचस्‍पति, शिखा वार्ष्‍णेय, डॉ. सुभाष राय, रवीन्‍द्र प्रभात और डॉ. हरीश अरोड़ा 

हिंदी एवं ब्‍लॉगहित में इस समाचार को आप 'नुक्‍कड़' का लिंक देकर प्रकाशित कर सकते हैं। 

लखनऊ। नवाबों की नगरी और उत्‍तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में बीते सप्‍ताह चर्चित व्‍यंग्‍यकारस्‍तंभ लेखकन्‍यू मीडिया विशेषज्ञ और मशहूर हिन्‍दी ब्‍लॉगर अविनाश वाचस्‍पति की व्‍यंग्‍य कृति व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल’ का सजिल्‍द संस्‍करण ब्‍लॉगार्पित किया गया। ब्‍लॉगार्पित इस मायने में कहा जा रहा है क्‍योंकि पुस्‍तक अर्पण का यह समारोह अंतरराष्‍ट्रीय हिन्‍दी ब्‍लॉगर सम्‍मेलन सूचना का उल्‍लेखनीय हिस्‍सा रहा।  इस अवसर पर अविनाश वाचस्‍पति को उनकी पिछले वर्ष प्रकाशित न्‍यू मीडिया पर हिन्‍दी की पहली प्रामाणिक पुस्‍तक हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग : अभिव्‍यक्ति की नई क्रांति’ के लिएप्रगतिशील ब्‍लॉग लेखक संघ चिट्ठाकारिता शिखर सम्‍मान’ से भी नवाजा गया। हिन्‍दी ब्‍लॉगरों के भव्‍य अंतरराष्‍ट्रीय आयोजन में पुस्‍तक का लोकार्पण वरिष्‍ठ साहित्‍यकार उद्भ्रांतकथाक्रम के संपादक शैलेन्‍द्र सागरडॉ. सुभाष रायडॉ् अरविन्‍द मिश्राव्‍यंग्‍यकार गिरीश पंकजरवीन्‍द्र प्रभातसुश्री शिखा वार्ष्‍णेयडॉ. हरीश अरोड़ा के सुखद सान्निध्‍य में संपन्‍न हुआ।  
इस संबंध में उल्‍लेखनीय है कि फरवरी 2012 में विश्‍व पुस्‍तक मेले के अवसर पर प्रख्‍यात साहित्‍यकार एवं व्‍यंग्‍यकार डॉ. शेरजंग गर्ग द्वारा लोकार्पित व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल’ का पैपरबैक संस्‍करण प्रकाशित होकर चर्चित हो चुका है और अब अनुपलब्‍ध है। इस अवसर पर उन्‍होंने सबका आभार व्‍यक्‍त करते हुए कहा कि सरकार को न्‍यू मीडिया सेंसर करने की जरूरत नहीं है अपितु इंटरनेट पर कोई भी खाता खोलने के लिए कोई भी सरकारी पहचान पत्र की अनिवार्यता लागू कर देनी चाहिए।

अंतर्जाल पर हिन्‍दी के लिए किया गया उनका कार्य किसी परिचय का मोहताज नहीं है। अविनाश जी साहित्य शिल्पी से भी लम्बे समय से जुडे हुए हैं इसके अलावा सामूहिक वेबसाइट नुक्‍कड़ (http://nukkadh.blogspot.com) के मॉडरेटर हैं, जिससे विश्‍वभर के एक सौ प्रतिष्ठित हिन्‍दी लेखक जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्‍त उनके ब्‍लॉग पिताजी, बगीची, झकाझक टाइम्‍स, तेताला अंतर्जाल जगत में अपनी विशिष्‍ट पहचान रखते हैं। उन्‍हें देश भर में नेशनल और इंटरनेशनल ब्‍लॉगर सम्‍मेलन आयोजन कराने का श्रेय दिया जाता है। मुंबई, दिल्‍ली, जयपुर, आगरा इत्‍यादि शहरों में कराए गए उनके आयोजन अविस्‍मरणीय और हिन्‍दी के प्रचार/प्रसार में सहायक बने हैं। इंटरनेट पर हिन्‍दी के उनके निस्‍वार्थ सेवाभाव के कारण विश्‍वभर में उनके करोड़ों प्रशंसक मौजूद हैं।

भारतीय जन संचार संस्थान से 'संचार परिचय', तथा ‘हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रशिक्षण लिया है। व्यंग्यकविता एवं फ़िल्म लेखन उनकी प्रमुख उपलब्धियाँ हैं। सैंकड़ों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। जिनमें नवभारत टाइम्,हिन्दुस्तानजनसत्ताभास्करनई दुनियाराष्ट्रीय सहाराअमर उजाला,सन्‍मार्ग, हरिभूमिअहा जिंदगीस्क्रीनवर्ल्मिलाप,वीर अर्जुनडीएलए, दैनिक नवभारत,  साप्ताहिक हिन्दुस्तानव्यंग्ययात्राआई नैक्स्गगनांचल इत्यादि और जयपुर की अहा जिंदगी मासिकउल्‍लेखनीय हैं। सोपानस्‍टेप मासिक और डीएलए दैनिक में नियमित रूप से व्‍यंग्‍य स्‍तंभ लिख रहेहैं। वर्ष 2008, 2009 औरवर्ष 2010 में यमुनानगरहरियाणा मे आयोजित हरियाणा अंतरराष्ट्री फिल् समारोहों में फिल्‍मो त्‍सव समाचार का तकनीकी संपादन किया है।
हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी सालीऔर 'ज़रजोरू और ज़मीनमें प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्पमें सहायक निर्देशन किया है राष्ट्रभाषा नव-साहित्यकार परिषद और हरियाणवी फ़िल्म विकास परिषद के संस्थापकों में से एक। सामयिक साहित्यकार संगठनदिल्ली तथा साहित्य कला भारतीदिल्ली में उपाध्यक्ष। केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद के आजीवन सदस्‍य। 'साहित्यालंकार' , 'साहित्य दीप' उपाधियों और राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान' तथा कविता शिल्‍पी पुरस्‍कार से सम्मानित। 'शहर में हैं सभी अंधे' स्‍वरचित काव्‍य रचनाओं का संकलन। काव्य संकलन 'तेतालातथा 'नवें दशक के प्रगतिशील कवि कविता संकलन का संपादन किया है। हिन्‍दी चिट्ठाकारी पर डॉ. हरीश अरोड़ा के साथ ब्‍लॉग विमर्श’ नामक पुस्‍तक संपादित। सिनेमाई साक्षात्‍कार’ पुस्‍तक की तैयारी और फेसबुक महिमा’ पुस्‍तक के लेखन में व्‍यस्‍त।
उन्‍हें वर्ष 2009 के लिए हास्-व्यंग् श्रेणी में संवाद सम्‍मान भी दिया जा चुका है। ‘हिन्‍दी साहित्‍य निकेतन एवं  परिकल्पना के वर्ष के सर्वोत्‍त्‍म व्‍यंग्‍यकार ’। उत्‍तर भारतीय समाज एज्‍यूकेशनल एंड रिसर्च इंस्‍टीच्‍यूटमुंबई सेहिन्‍दी ब्‍लॉग भूषण’ सम्‍मान। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय’ से हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मान

प्रस्‍तुति : संतोष त्रिवेदी
ई मेल  chanchalbaiswari@gmail.com

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