जनगणना कराती है सरकार, फिर बताती है कि हम एक दो एक करोड़ हो गए। पहले एक करोड़, फिर दो करोड़ और वापिस एक करोड़, जबकि ऐसा संभव नहीं है। सरकार ने एक सौ इक्कीस करोड़ बतलाया है। होना तो यह चाहिए कि सिर्फ जनों को गिना जाए और जनानियों को छोड़ दिया जाए, पर सरकार यह नहीं करती, वो सभी को जन ही मानती है, चाहे कोई भी हों, इस गिनती से हिजड़े तथा समलैंगिक भी नहीं बच पाते हैं, सरकार उन्हें भी गिनवा लेती है। सज्जन और दुर्जन भी जन माने जाते हैं। अब आप सरकार पर आरोप नहीं लगा सकते कि वो भेद-भाव करती है।
सरकार का मानना है कि जन वही, जिसमें जान हो और सबसे अधिक जान जानवरों में होती है, जानवर सबसे जानदार शब्द है। उनकी जान के आगे इंसान की भला क्या बिसात ? मिसाल के तौर पर जान लीजिए कि घोड़े की शक्ति को पैमाना माना गया है। वो तो इंसान को अपने हाथों पर पूरा भरोसा नहीं है, दिमाग पर है, इसलिए उसने हथियार बना लिए, वरना समूची धरा पर शक्तिशाली जानवरों ने इंसानों को धराशायी कर दिया होता। इंसान लुका-छिपा गुफाओं में, नदी-नालों में रहने को विवश होता। यह विचार आते ही उन सबको भय की अनुभूति होने लगी होगी, जो डरते हैं, दूसरों की जान से उन्हें सिर्फ इतना सरोकार होता है कि उनके न होने से किसी काम में बाधा आ जाएगी। इसलिए धन सर्वोपरि, रिश्ते-नाते-अपनापे उसके बाद।
सरकार चाहे भी कि किसी को जनगणना में शुमार न करा जाए तो, जिनको नहीं गिनना चाहती है, वे दांत किटकिटाने लगते हैं। मानो निरीह सरकार को अपने दांतों के बीच में कुचल डालेंगे जबकि वे अपने ही ओंठ निज दांतों से काट हंसी उड़वाते हैं। गणना उनकी होती हैं जिनमें जन जुड़ा हो, चाहे उपसर्ग या अंतसर्ग अथवा बतौर प्रत्यय।
सरकार चाहे तो कह सकती है कि इंडिया गेट पर जनगणना के लिए परेड कराई जाएगी, आओ और खड़े हो जाओ। अपना-अपना नंबर बोलते जाओ और आखिरी जन की संख्या विश्वस्त आंकड़ा होगा। जनगणना धर्म निभाने का सीधा सरल तरीका। इस तरीके से सारा दारोमदार अंतिम जन पर है, उसने गलत संख्या बोल दी तो सरकार की फजीहत हो जाएगी। नतीजा, सरकारी योजनाओं की वाट लग जाएगी, बजट सारे दोबारा बनाने होंगे, संख्या के हिसाब से करेंसी नोटों को अधिक छापना होगा, नहीं तो नकली करेंसी अधिक मात्रा में छपने का बुरा परिणाम होगा और यह सरकार नहीं चाहती है। सरकारी चाहना अधिक प्रभावी नहीं होती है, जिसका नतीजा फेक करेंसी वाले, बाजार में, बैंकों में, एटीएम में येन-केन-प्रकारेण फेक करेंसी फेंक ही देते हैं।
जनगणना में जिंदा जन गिने जाते हैं, जिसका बुरा पक्ष यह है कि अध्यापकों को इस काम में लगाया जाता है और वे सदा से यही कहते पाए गए हैं कि जनगणना का काम करने से तो मरना अच्छा ? जब वे अपने को जिंदा मानने में शक करते हैं तो जनता खुद को जिंदा कैसे मान ले, वैसे आम जनता जिंदा होती नहीं है। कईयों की तो आंखों में ही शर्म नहीं बची होती है कि उन्हें जिंदा माना जाए पर, डॉक्टर उन्हें मरा घोषित नहीं करते। जनसंख्या के पेच मास्टरों के लिए बहुत दुखदायी होते हैं। जिन्हें गिनने जाते हैं, वे कई बार बिना गिने खूब डांट पिलाते हैं कि मानो डांट नहीं खाई तो पगार नहीं मिलेगी।
मास्टर तबीयत खराब होने पर पढ़ाएं नहीं तो, दोषी और सरकार जनगणना कार्य सौंप दे और वे न करें तो भी सदोष। जन की गणना करना वास्तव में क���िन कार्य है, इसलिए इनके हिस्से आया है। मास्टर अपने छात्रों से गिनवा नहीं सकते हैं। बच्चा गिनती करते समय अपनी शंकाओं के निवारण के लिए वापिस घर लौट गया तो .....।
टीचरों को टार्चर पब्लिकली अधिकतर घरों में किया जाता है। इस सबकी एक फिल्म बनाई जाए तो वो अवश्य ही फीचर फिल्म से भी लंबी बनेगी और श्याम बेनेगल की ‘भारत एक खोज’ की तर्ज पर उसका नाम ‘मास्टर अब सोच’ रखा जा सकता है। फिल्म को देखकर चाहे पूरे जहां के मास्टर रोएं, परंतु फिल्म-दर्शक जरूर हंसेंगे और अपने दांत फाड़ ही देंगे। वैसे वे दांत नहीं फाड़ेंगे, मुंह खोलेंगे परंतु मास्टर ही ऐसे मुहावरे सिखाते हैं और अब ये उन पर ही फिट बैठ कर हिट हो रहे हैं। निश्चय ही मास्टरी पेशे वाले परिवार और उनके जन दुखी होंगे।
फिर भी मास्टर शुक्र मनाते हैं कि प्रत्येक वर्ष गणना नहीं करनी होती। अगर प्रत्येक वर्ष करनी होती तो तब भी वे यह कार्य करते क्योंकि अगर मास्टर खुद ही कहना मानना नहीं सीखेंगे, तो आप ही सोचिए कि उनके विद्यार्थियों पर कितना बुरा प्रभाव पड़ेगा।
सोपानस्टेप मासिक पत्रिका में पूर्व प्रकाशित रचना का पुनर्प्रस्तुतिकरण
आपकी पचास से अधिक व्यंग्य रचना तो पढ़ ही चुका हूं ... उन सबमे सर्वश्रेठ ....
जवाब देंहटाएंसरकार का ईमान लगता है अब डोल रहा है क्योकी वो जानती है जनता उस ओर जायेगी जहा वे हाँक दे
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