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चलो
अच्छा हुआ अब दहलीज को लांघकर निकल जाते हैं लोग वरना आस के पंख कब तक
इंतजार की धडकनें गिनते यूँ भी अब कहाँ लोग बनाते हैं दहलीज घरों में ये
तो कुछ वक्त के निशाँ हैं जिन्हें दहलीजें समेटे बैठी हैं वरना दहलीजें
तो अब सिर्फ उम्र की हुआ करती हैं रिश्तों की नहीं ........... शायद तभी
रिश्तों की द
badhai...Vandana ji ..
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