हिंदी पर सोचने के लिए हिंदी के बरक्स से शुरुआत नहीं होनी चाहिए। हिंदी पर जितनी बहसें हैं उसमें किससे आक्रांत है, शुरू वहां से होनी चाहिए। माने एक भाषा को खतरा है – इस मनोवृत्ति से सोचना शुरू करते हैं तो एक किस्म का पेरोनोइ, पेरोनोइड किस्म का अनुभव रहता है और हम सहज मनोवृत्ति से, सहज मन से समझ ही नहीं पाते कि हम क्या हैं? हिंदी भाषा और हिंदी जनक्षेत्र – इन दोनों को मैं साथ-साथ लेकर चलता हूं, ऑब्लिक करके चलता हूं। मेरे लिए ये दोनों अलग-अलग नहीं है। मैंने पहले ही ये कहने की कोशिश की है कि हिंदी का कोई बरक्स नहीं है, किसी भी भाषा का कोई बरक्स नहीं है। अगर है भी तो पड़ोस। भाषा का पड़ोस होता है, बरक्स नहीं। बरक्स एक कल्चरल डिस्कोर्स है जो आ जाती है। यानी मैं इक्सक्लूसिविटी चाहता हूं, अतिविशिष्टता चाहता हूं, ऐसी भाषा चाहता हूं, उसे रक्त से ऐसी शुद्ध, रक्त से ऐसी शुद्ध कर देना चाहता हूं, उसमें कोई और रक्त न मिले तो निश्चित रूप से ये अलग ही ढंग का डिस्कोर्स है जो भाषा का तो नहीं है। READ MORE..
हिंदी को लेकर चिंतित होने की जरुरत नही - प्रो.सुधीश पचौरी
Posted on by पुष्कर पुष्प in
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और भी बहुत कुछ,
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हिंदी को लेकर चिंतित होने की जरुरत नही - प्रो।सुधीश पचौरी
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सही बात ।
जवाब देंहटाएंसही फरमाया..........
बहुत बढ़िया साहिब!
जवाब देंहटाएंआप क्यों चिन्तित होंगे। जमकर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग जो किया है लेख में।