एक मां ने जन्म दिया है
एक मां ने मन दिया है
दिए हैं विचार अपरंपार
इस लिंक पर जानें सब।
मां जिसने जन्म दिया
भौतिक देह छोड़ गई
पर बसी है
मन में
विचारों में
यादों में
रचनाओं में सारी।
वो जब तक हम हैं
हमारे बच्चे हैं
तब तक यहीं रहेंगी
रहेगी बाद में भी याद
उनकी, मां को देख
मां ही याद आती है।
हिन्दी भी हमारी मां है
इसकी सेवा कर रहे हैं
इसकी सेवा करते रहेंगे
मां को सच्ची श्रद्धांजलि
यही होगी हमारी।
शरद आलोक जी का बल
मां का संबल बना रहे
मां की कमी नहीं हो सकती पूरी
पर हिन्दी मां की सेवा वर्षों से
जिस तरह कर रहे हैं शरद आलोक
उसी तरह करते रहें सब
यही है निवेदन सबसे अब।
जन्म देने वाली मां हमेशा के लिए विदा- शरद आलोक (अविनाश वाचस्पति)
Posted on by अविनाश वाचस्पति in
Labels:
कविता,
नार्वे में हिंन्दी कवि,
मां,
शरद आलोक,
हिन्दी
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बहुत खूब। कहते हैं कि-
जवाब देंहटाएंमाँ फितरत कि मौसमें माँ कुदरत के राज।
माँ हर्फों की शायरी माँ साँसों का साज।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
dil ko chhoone vaali abhivykti.
जवाब देंहटाएंहिंदी भी हमारी माँ है....
जवाब देंहटाएं" बेहद सार्थक और अच्छी पंक्तियाँ.."
Regards
बेशक संसार में अंग्रेजी की तूती बोलती है
जवाब देंहटाएंपर माँ तो फिर भी माँ ही होती है
माँ माँ होती है इससे बडा रिश्ता कोई दूसरा होता नही। माँ का होना एक बहुत बडा सहारा होता है। खैर सत्य को कोई नकार नही सकता। बस उनकी हिम्मत बनी रहे।
जवाब देंहटाएंशानदार अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंbahut khub.
जवाब देंहटाएंkoi kaise jiye ma tere bin
जवाब देंहटाएंis jawlant dhup me.
tu hi to apne aanchal se
badalti thi dhup ko chhanv me
बहुत अच्छी बहुत बढ़िया बात कही ..माँ तो माँ होती है और उसका स्थान सबसे सर्वोपरी है
जवाब देंहटाएंभाई वाचस्पतिजी,
जवाब देंहटाएंशरद आलोक जी की माताश्री के देहांत सम्बन्धी शोक संवेदना आपके माध्यम से मिली। मैंने माँ को श्रद्धांजलिस्वरूप उनका लेख भी पढ़ लिया, लेकिन अपनी बात उनतक नहीं पहुँचा पाया। इसे मैं आपके माध्यम से उन तक पहुँचाने के लिए आपको मेल कर रहा हूँ।
अब सिर्फ देह नहीं रही माँ
पहले भी
सिर्फ देह वह थी ही कब?
वह सु-संस्कार थी
अब भी है
और रहेगी आगे भी
वह जुझारूपन थी
अब भी है
और रहेगी आगे भी
समरांगण में
साक्षात विजय थी वह
अब भी है
और रहेगी आगे भी।
वह गई कहीं नहीं,
विस्तार पा गई है पितरों जितना।
पहले उसकी हथेलियाँ,
छूती थीं हमें
और हमारी त्वचा कराती थी आभास
उस छुअन का,
उसकी नजरें
चूमती थीं हमें
और हमारी इन्द्रियाँ महसूस करती थीं
दैविक तृप्ति का।
अब उसके आशीष
बरसते रहेंगे हम पर
सुहानी धूप और शीतल चाँदनी बनकर।
माँ जब नहीं थी वहाँ,
बादल बरसाते थे पानी;
अब वे अमृत बरसाएँगे।
हरे-भरे रखेंगे
देश के खेतों-बागों-बगीचों को
भरा-पूरा रखेंगे खलिहानों को।
माँ
कभी भी
जाती कहीं नहीं देह को छोड़कर
विस्तार पा जाती है पितरों जितना।
मां शब्द ही अतिविशाल और मां की जितनी भी बातें की जायें कही जायें वो कम ही होगी ।
जवाब देंहटाएंअद्भुत वर्णन किया है आपने माँ का
जवाब देंहटाएंमार्मिक एवं प्रेरक रचना।
जवाब देंहटाएं----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन