आज दिनांक 3 जुलाई 2011 के दैनिक जनसत्ता में मनोज सिंह के विचार एक सच्चाई को ब्यां कर रहे हैं। मैं तो इनसे पूरी तरह सहमत हूं। आपको इसमें कोई विसंगति नजर आती है, तो बतलाएं। अथवा आप भी सहमति जतलाएं। जो जन साहित्य से दूर हो रहे हैं, वे हिन्दी ब्लॉगिंग के पास आ रहे हैं। मेरा ऐसा मानना है, इस प्रक्रिया में तेजी दिखलाई दे रही है, जो एक अच्छी बात है। वैसे इससे अच्छी बात तो यह होती, अगर साहित्यकार जनता की भाषा में रचना करने को अच्छा समझते। पर वे अपने ज्ञान को प्रदर्शित करने का जरिया अगर साहित्य को मानते हैं और पाठकों तक उनकी बात नहीं पहुंच रही है और वे किंचित मात्र भी चिंतित नहीं हैं तो यह नि:संदेह साहित्य का दुर्भाग्य है। अब हिन्दी ब्लॉगिंग के साहित्य के दिन शीर्ष पर हैं, कल वे इससे भी ऊंचे शिखर पर होंगे। फिर साहित्यकार खरखराहट करते मिलेंगे, अगर वे सच्चाई की आहट पर ध्यान न धरेंगे या अपने लेखन में माकूल बदलाव नहीं लाएंगे।
मैं चाहता हूं कि मैं अपनी सारी बात न कहूं, पहले आप इस पर अपने अपने विचार प्रस्तुत करें। चाहे आप साहितयकार हैं अथवा हिन्दी ब्लॉगर। आपने हिन्दी ब्लॉगिंग अभी शुरू ही क्यों न की हो, आपके विचारों का भी संपूर्ण विनम्रता के साथ नुक्कड़ पर स्वागत है।
उपर दी गई इमेज पर एक या दो बार क्लिक करने पर रचना को आप सरलता से पढ़ सकते हैं। यह लेख आज के जनसत्ता से साभार लेकर अविकल रूप में आपके विचारों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है।
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