इस लाठीचार्ज के असली हकदार तो वे कालेधनधारक थे, पर भला कभी कोई खुद को भी मारने-पीटने की सुपारी खा सकता है, चाहे वो सुपारी सेवन का नशे की हद तक लती हो। पर यह दुलत्ती भी उसे माफिक ही आती है। इस घटना से यह भी साबित हो गया है कि मौत का एक दिन पहले से तय है और इसमें किसी तरह की फेरबदल करना संभव नहीं है। कांग्रेस की मति की गति दुर्गति की ओर अग्रसर है। कहा जा रहा है कि लाठियां पुलिस ने नहीं बरसाईं तो हम यह मान लेते हैं कि वे आसमान से एकाएक कूद पड़ी थीं और सच्चाई की राह पर चलने वालों पर टूट पड़ी थीं। लाठियां पुलिस की हथियार हैं, ...... यदि ये पंक्तियां और विचार पसंद आए हों और पूरा पढ़ना चाहते हों तो यहां पर क्लिक कीजिएगा
रामलीला नहीं, हां ! पुलिसलीला जरूर है
Posted on by अविनाश वाचस्पति in
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सृजनगाथा
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यहां ऐसा ही होता है,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
आदरणीय अविनाश वाच्पस्ती जी...आपका एल्ख एकदम सार्थक व सटीक प्रतीत होता है...
जवाब देंहटाएंवहां जो कुछ भी हुआ वह इस सरकार की चिता की अंतिम लकड़ी सिद्ध होगा...
मैं भी वहां अनशन पर बैठा था...मैंने अपने शरीर पर पुलिस की लाठियां खाई हैं...
देखें एक लिंक...http://www.diwasgaur.com/2011/06/blog-post_07.html
बेहद शर्मनाक |
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