(उपदेश सक्सेना)
मेरे बेटे ने कई साल पहले एक सवाल मुझसे किया था जिसका जवाब मैं आज तक ढूंढ रहा हूँ. उसने पूछा था कि क्या यही लोकतंत्र है जिसमें आम मतदाता ज़मीन पर बैठे और उसी जनता का वोट पाकर नेता बना व्यक्ति सिंहासन पर?यह बात मैं उसे समझाने में नाकाम रहा हूँ कि लोकतंत्र की तर्ज पर अब भ्रष्टाचार की परिभाषा ज्यादा सामयिक है- भ्रष्टाचार यानी-नेता का, नेता के लिए, नेता के द्वारा. दरअसल एक समय ऐसा था जब राजाओं के लिए गुरु की आज्ञा मानना अनिवार्य था. राजपुत्र जब गुरुकुल में शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने जाते थे, तब उन्हें भी आम प्रजा के बच्चों के साथ गुरु की सेवा करना होती थी. इसमें उन्हें कोई झिझक भी नहीं होती थी और न ही कभी उनके मन में ऐसा ख्याल ही आता था कि राजपुत्र होने से उन्हें कोई विशेषाधिकार मिल जाता है. गुरु ऋषि को भी राजकुमार और चरवाहे के बच्चे में कोई अंतर नहीं दिखाई देता था. गुरु को भी राजा से कोई विशेष कृपा की दरकार नहीं होती थी, सो तब कहीं कोई भ्रष्टाचार के मामले नहीं होते थे, वक़्त बदला, सल्तनतें बदलीं और शुरू हुआ लालसा बढ़ने का दौर. आज हर कोई संभ्रांत जीवन जीने की तमन्ना रखता है, यह जानते हुए भी कि सरकार आम आदमी को उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति के मामले में नकारा है.बात शुरू हुई थी गुरुकुल से, आज सरकारी शिक्षण संस्थाओं में कोई झांकना भी पसंद नहीं करता. बड़े निजी स्कूल इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि पालकों की जेब कैसे काटी जाए. अब पालक को अपने बच्चे को शिक्षा का अनिवार्य अधिकार देना है इसलिए वह भृष्ट तरीके से कमाई करता है. आज बदले वक्त में गुरुओं की बात सरकार नहीं सुनती और आज के गुरु को भी सत्ता से विशेष कृपा की दरकार है. पहले लोकतंत्र नहीं था, सो प्रजा से राजा की नजदीकियां थीं क्योंकि वह वोट बैंक नहीं समझी जाती थी. अब वोट मिलने के बाद नेता जनता को कैसे आँखें दिखाते हैं इसका कोई उदाहरण यहाँ देने की कोई जरूरत नहीं है.
अन्ना हजारे के पांच दिन के अनशन के बाद सरकार की नींद इसलिए खुली क्योंकि उसे भय था कि यदि यह आंदोलन और चला तो अराजकता की स्थिति बन सकती है. सोते हुए व्यक्ति को जगाना आसान है, मगर जो सोने का नाटक कर रहा हो उसे जगाना असंभव होता है, सरकार सो नहीं रही बल्कि सोने का नाटक कर रही है. देश को हमेशा अपनी बात मनवाने के लिए एक ‘मसीहा’ की जरूरत पड़ती है, इस बार अन्ना हजारे सही. हाँ, हजारे के समर्थन में खड़े हुए हजारों हाथों को अब अपनी मुट्ठियाँ भींच लेना चाहिए, क्योंकि इस ‘सरकारी हाथ’ ने देश पर सबसे ज्यादा शासन किया है, और यह जानता है कि जनता के गले को कैसे दबाया जाता है. शासनतंत्र ऐसा करे भी क्यों नहीं जब उसके सलाहकार और अर्थशास्त्री कौशिक बासु तक ने यह सलाह दी है कि रिश्वत को कानूनी दर्जा दे दिया जाना चाहिए. यह समय इस बात पर विचार करने का भी है कि आखिर हम कब तक दूसरों को भ्रष्ट बनाते और बनते रहेंगे.....
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