अशोक सिंह झारखंड (दुमका) के बेहद संभावना से युक्त हिंदी के हमारे युवा कवि हैं। इनकी प्रेम -कविताओं में मानवीय रिश्तों का फूहड़पन नहीं है, न ही वहाँ परिवेश का परिस्थितिजन्य टूटन और कचोट ही अनुभूत होता है, बल्कि मानवीय रागात्मकता के आंतरिक हेतुओं के प्रति अत्यंत सजगता व संवेदनशीलता का आभास मिलता है जहाँ संबंधों में ताजगी व नयापन और जीवन के संगति और लय की द्युति मिलती है।
1) तुम होती हो तो
1) तुम होती हो तो
तुम होती हो तो अँधरझपूये ही जग जाता है घर
थिरकने लगता है आँगन में झाड़ू
बर्तन गाने लगता है कोई भोरउवा-गीत
सबके जगने से पहले भर जाता है घड़े में पानी
दूर हो जाता है रसोई का बासीपन
सबकुछ होता है यथावत
बेतरतीव बिखरी नहीं होती है चीज़ें
बढ़ जाती है लालटेन के शीशे की चमक़
आईने पर जम नहीं पाती धूल
कुर्ते होते हैं एकदम चकाचक
गंजी हो नहीं पाती मैली
फैला नहीं पाती मकड़ियाँ जालें
तिलचट्टे नहीं रेंगते बिस्तर पर
चूहे भी जाने कहँ जाते हैं बिला ?
तुम होती हो तो
आती है रसोई से गरम मसाले की गंध
जाग उठता है जी का स्वाद
जल्दी-जल्दी लगती है भूख़
और चाहे जैसी भी हो
तुम्हारे हाथ की चाय पीकर ही
मिलती है उर्जा
तुम होती हो तो
भरा-भरा सा लगता है घर-आँगन
ताजा बनी रहती है घर की हवा
कदमों की आहट से फूटते
संगीत की लय पर
थिरकता रहता है मन
फुदकती रहती है मन की चिरैंया
तुम्हारे पीछे-पीछे ......
घर की परिधि में जहाँ भी होती हो
तुम्हारी उपस्थिति-गंघ से महमहाता रहता है
घर का कोना-कोना
उछलते-कूदते रहते हैं देर तलक
ओसारे पर बच्चे
लगा रहता है दिन-दुपहरिया आँगन में
पड़ोसिनों की जमघट
तुम होती हो तो
कितना अच्छा लगता है
बाहर से जल्दी वापस लौटकर घर आ जाना
यह सच है कि शहर नहीं बदलता
अपनी दिनचर्या
पर एक तुम्हारे नहीं होने से
कितना बदल जाता है मन का स्वाद !
थिरकने लगता है आँगन में झाड़ू
बर्तन गाने लगता है कोई भोरउवा-गीत
सबके जगने से पहले भर जाता है घड़े में पानी
दूर हो जाता है रसोई का बासीपन
सबकुछ होता है यथावत
बेतरतीव बिखरी नहीं होती है चीज़ें
बढ़ जाती है लालटेन के शीशे की चमक़
आईने पर जम नहीं पाती धूल
कुर्ते होते हैं एकदम चकाचक
गंजी हो नहीं पाती मैली
फैला नहीं पाती मकड़ियाँ जालें
तिलचट्टे नहीं रेंगते बिस्तर पर
चूहे भी जाने कहँ जाते हैं बिला ?
तुम होती हो तो
आती है रसोई से गरम मसाले की गंध
जाग उठता है जी का स्वाद
जल्दी-जल्दी लगती है भूख़
और चाहे जैसी भी हो
तुम्हारे हाथ की चाय पीकर ही
मिलती है उर्जा
तुम होती हो तो
भरा-भरा सा लगता है घर-आँगन
ताजा बनी रहती है घर की हवा
कदमों की आहट से फूटते
संगीत की लय पर
थिरकता रहता है मन
फुदकती रहती है मन की चिरैंया
तुम्हारे पीछे-पीछे ......
घर की परिधि में जहाँ भी होती हो
तुम्हारी उपस्थिति-गंघ से महमहाता रहता है
घर का कोना-कोना
उछलते-कूदते रहते हैं देर तलक
ओसारे पर बच्चे
लगा रहता है दिन-दुपहरिया आँगन में
पड़ोसिनों की जमघट
तुम होती हो तो
कितना अच्छा लगता है
बाहर से जल्दी वापस लौटकर घर आ जाना
यह सच है कि शहर नहीं बदलता
अपनी दिनचर्या
पर एक तुम्हारे नहीं होने से
कितना बदल जाता है मन का स्वाद !
3) यह जो तुम्हारे गाँव के पास से आती बस है
मेरे भीतर भरा है इंतज़ार इसका
मैं जानता हूँ इसका समय
इसके इंजन तक की आवाज़ पहचानता हूँ मैं
और रोज़ के वे चेहरे - ड्राईवर, कन्डक्टर , खलासी के !
मैं जानता हूँ इसका समय
इसके इंजन तक की आवाज़ पहचानता हूँ मैं
और रोज़ के वे चेहरे - ड्राईवर, कन्डक्टर , खलासी के !
लोहे के ढाँचे में मेरी संवेदना
और स्मृति का लदा है संसार
कौन जानेगा मेरे सिवा !
और स्मृति का लदा है संसार
कौन जानेगा मेरे सिवा !
इसी से आना होता है तुम्हारा
और एक-बीस की हड़बड़ी में लौटना खचाखच भरी बस में
और खिड़की से हिलते हुये विदा में मुलायम हाथ
इस धरती पर कितनी ही बसें चलती हैं
पर तुम भी हँसती हो यह जानकर कि
मुझे अपने ही गाँव की ओर जाती
बसों के समय का पता नहीं !
और एक-बीस की हड़बड़ी में लौटना खचाखच भरी बस में
और खिड़की से हिलते हुये विदा में मुलायम हाथ
इस धरती पर कितनी ही बसें चलती हैं
पर तुम भी हँसती हो यह जानकर कि
मुझे अपने ही गाँव की ओर जाती
बसों के समय का पता नहीं !
मुझे इस बस से जाना नहीं कभी
और शायद ही मुझे इस बस की जरूरत पड़े
पर मैं इस बस के बारे में पूरे विश्वास से
इसके मालिक और सवारियों से ज्यादा जानता हूँ
गोया कि उनके लिये सिर्फ़ यह सवारी-गाड़ी भर है
रोज़ सुबह इंतज़ार होता है इसका
रोज़ एक-बीस में तुम्हारे वे हिलते हुये हाथ विदा में।
और शायद ही मुझे इस बस की जरूरत पड़े
पर मैं इस बस के बारे में पूरे विश्वास से
इसके मालिक और सवारियों से ज्यादा जानता हूँ
गोया कि उनके लिये सिर्फ़ यह सवारी-गाड़ी भर है
रोज़ सुबह इंतज़ार होता है इसका
रोज़ एक-बीस में तुम्हारे वे हिलते हुये हाथ विदा में।
बेहद अच्छी और प्यारी कविता। पूरी कविता "तुम्हारी उपस्थिति-गंघ" से महमहा रही है। दिल्ली की बंजर भूमि में मैं महसूस कर रहा हूं दुमका नाम की प्यारी सी दूब अभी-अभी अचानक खिल उठी है...
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा अशोक जी को पढ़ना. आपका आभार.
जवाब देंहटाएंअच्छा शब्द चित्र खींचा है अशोक जी ने.
जवाब देंहटाएंयह सच है कि शहर नहीं बदलता
जवाब देंहटाएंअपनी दिनचर्या
पर एक तुम्हारे नहीं होने से
कितना बदल जाता है मन का स्वाद !
* * *
रोज़ सुबह इंतज़ार होता है इसका
रोज़ एक-बीस में तुम्हारे वे हिलते हुये हाथ विदा में।
बहुत ही अच्छी कविताएं हैं।
बहुत ही बेहतरीन कविता, वाह...! गाँव के घर का सुन्दर चित्रण।
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