आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शर्म उनको मगर नहीं आती !



फ़ज़ल इमाम मल्लिक
वह एक ऐतिहासिक क्षण था। लेकिन वह क्षण बहस-मुबाहसिों में ही खत्म हो गया और इन सबके बीच ही लोकपाल विधेयक कहीं बिला-सा गया। संसद में इतिहास बनना था लेकिन राजनीतिक दलों की नूरा कुश्ती और सांसद के रूप में कुछ विदूषकों की फूहड़ और मसखरेपन की वजह से लोकपाल पर जिस बहस की उम्मीद लगाए पूरा देश बैठा था वह सांसदों के हंसी-मज़ाक़ और अपने को श्रेष्ठ बताने में ही ख़त्म हो गया। भ्रष्टाचार देश में जिस तरह फल-फूल रहा है उसे रोकने के लिए शायद ही किसी सियासी दल ने गंभीरता से संसद में बहस में हिस्सा लिया। कुछ अनजान सांसदों और छोटे दलों ने ज़रूर इसे गंभीरता से लिया और लोकपाल विधेयक के हर पहलू पर चर्चा की। लेकिन अधिकांश दलों ने लोकपाल विधेयक से ज्Þयादा तवज्जो अण्णा हज़ारे को दी। उन्हें कोसने-गरियाने में ही समय ज्Þयादा लगाया। हर कोई अपने को महान बता कर संसद की गरिमा की दुहाई देता रहा। जबकि इसकी क़तई ज़रूरत नहीं थी। देश के हर नागरिक को संसद के महत्त्व की जानकारी है। लेकिन लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान एक तरह से उन्होंने देश के अवाम को बार-बार यह चेताया कि वे कुछ नहीं है जो हैं हम हैं और हमसे ही देश का क़ानून है, संविधान है और देश हम से ही चल रहा है। लेकिन संसद की गरिमा की बात करते वक्Þत एक बात का ज़िक्र किसी ने भी नहीं किया। कर भी नहीं सकते थे। ग़ालिब के शब्दों में कहूं तो वे यह कैसे कह सकते थे कि ‘काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब’। संसद की गरिमा को सांसदों ने कितना और कब-कब नुक़सान पहुंचाया है, इसे बताने की ज़हमत किसी ने नहीं की। पैसे लेकर सवाल पूछने से लेकर संसद में नोट उछालने का कारनामा तो हमारे इन महान सांसदों ने ही किया है। संसद में एक-दूसरे पर जिस तरह आए दिन छींटाकशी की जाती रही है उसकी नज़ीर भी कम ही मिलती है। सदनों में एक दूसरे को गाली देना, मंत्री से विधेयक की प्रति लेकर फाड़ डालना, एक-दूसरे पर लात-घूंसे चलाना, कुर्सियां फेंकना, माइक तोड़ना अब तो देश में आम बात है। लेकिन वे सांसद-विधयक ठहरे उन्हें हर वह काम करने की छूट है जो आम लोगों के लिए एक तरह से वर्जित होती है। वे चाहे तो ट्रेन रुकवा दें, वे चाहें तो विमान में हंगामा खड़ा कर दें, वे जब चाहें अपनी तनख्वाहें बढ़वा लें, वे चाहें तो पुलिस और प्रशासन को सर के बल खड़ा कर दें, वे चाहें तो किसी को भी ज़लील करें, वे चाहें तो सदन को बंधक बना कर आम लोगों का करोड़ों का नुकसान करें, वे कुछ भी चाह सकते हैं और कुछ भी कर सकते हैं। वे ठहरे सांसद और बाकÞी ठहरे आम लोग जो उन्हें पांच साल के लिए चुन कर संसद-विधानसभा भेजती है लेकिन इन पांच सालों में वे आम लोग अछूत हो जाते हैं और साफ झकझक कपड़े पहने महंगी विदेशी गाड़ियों पर सवार सांसद ख़ास। यह ख़ास ही उन्हें दूसरों से अलग बनाता है। इसलिए लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान अण्णा हजÞारे और उनके सहयोगियों पर जिस तरह की टिप्पणियां की गईं वे इसी ख़ास होने के घमंड में की गई। शरद पवार को चांटा मारने पर संसद एकराय होकर इस घटना की निंदा करती है। दक्षिण-पश्चिम, बाएं-दाएं सारी विचारधाराएं लामबंद होती हैं और एक सांसद या कहें के मंत्री को चांटा मारने के ख़िलाफ़ एक सिरे से निंदा प्रस्ताव पास करती है लेकिन यही नेता-सांसद जब आम आदमी को धमकाते हैं, उसे मारते हैं, उसे प्रताड़ित करते हैं तो संसद में चुप्पी रहती है और फिर बात पार्टी लाइन पर आकर ख़त्म हो जाती है। फिर आम अवाम को सियसात की मंडी महंगाई के तमाचे तो रोज़ जड़ रही है और क्या पक्ष, क्या विपक्ष सिर्फÞ गाल बजा रहे हैं। प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ‘जादू की छड़ी’ नहीं होने की दलील देते हैं और विपक्ष संसद में सिर्फ़ तमाशा खड़ा करता है। गंभीरता से इस ‘तमाचे’ पर चर्चा तक नहीं करता। संसद का यह विरोधाभास है और सांसदों का यह दोहरा चरित्र। इसलिए लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान सांसदों के तेवर उन आम लोगों को लेकर तल्ख़ थे जो भ्रष्टाचार, महंगाई और सरकार की उदार नीतियों से परेशान ही नहीं तंगहाल हैं। उनकी कमाई रोज़ कम होती जा रही है और सांसदों-नेताओं की कमाई रोज़ बढ़ती जा रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, इस पर किसी ने सोचने की ज़हमत नहीं की। न तो वामपंथियों ने और न ही दक्षिणपंथियों ने। ग़रीबों की थाली की रोटी भले कम या छोटी होती जा रही हो लेकिन संसद की कैंटीन में महंगाई शर्मिंदा सी एक तरफ़ खड़ी अपने सांसदों को देसी घी में मालपुआ उड़ाते देखती है और फिर परेशान होकर बाहर आकर आम लोगों से उसका निवाला छीनने लगती है। यह सच न तो किसी गुरुदास दासगुप्ता को नज़र आता है और न ही सुषमा स्वराज को। भाषणों और नारों के बीच ही आम आदमी और आम हो जाता है और सांसद, और ख़ास होकर संसद से बाहर आता है। टीवी के कैमरे पर निर्लज्ज और बेशर्म मुस्कराहट के साथ अपनी पीठ थपथपाता है और अपने ख़ास होने के अहसास में थोड़ा और फूल जाता है। ऐसे चेहरे लोकपाल विधेयक पर बहस के बाद ऐसी ही निर्लज्ज मुस्कान के साथ सदन के साथ बाहर आए थे। कैमरों की चमक में बाइटें देकर कारों में बैठ कर फुर्र हो गए थे। उनके निर्लज्ज चेहरे घमंड से तने थे और उन पर बेशर्मी से लिखी इबारत साफ़ पढ़ी जा सकती थी। वह इबारत साफ़ कह रही थी कि किस माई के लाल में हिम्मत है जो लोकपाल विधेयक लाकर हम सांसदों के भ्रष्टाचार करने के अधिकार को छीन सके। ये चहरे संसद के अंदर तमतमा रहे थे और संसद के बाहर चमचमा रहे थे। इन चेहरों में फ़र्ख़ करना मुश्किल था। बस ऐसा लग रहा था कि हर चेहरा एक जैसा है जिसने लोकतंत्र को ही नहीं इस देश के उन लाखों अवाम की भावनाओं को आहत किया है जो महंगाई और भ्रष्टचार से परेशान है। इन चेहरों में तमीज़ करना मनुश्किल था कि कौन किसका चेहरा है। लालू यादव में मुलायम सिंह का अक्स नज़र आ रहा था और सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी जैसी दिख रहीं थीं। लालकृष्ण आडवाणी का चेहरा मनमोहन सिंह जैसा लग रहा था और गुरुदास गुप्ता के चेहरे पर ममता बनर्जी की छाप दिखाई दे रही थी। कई चेहरे, लेकिन हर चेहरा एक-दूसरे से मिलता-जुलता। पार्टियां गौण हो गर्इं थीं और चेहरे टीवी कैमरों की लाइटों में भकभका रहे थे। किसने किसको कोसा, किसने किसकी चापलूसी की, यह संसद में भी दिखा और संसद के बाहर भी। सदन से निकलने वाला हर चेहरा लालू यादव का चेहरा लग रहा था। लालू यादव जिन्होंने सदन में अपने भाषण के दौरान हर आर्थिक भ्रष्टाचार पर अपनी मुहर लगा दी थी। वे हर उस सांसद के जन संपर्क अधिकारी बन गए थे जो नहीं चाहते थे कि लोकपाल विधेयक पास हो और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे। अपने भदेसपन और मसख़रेपन के लिए यों लालू यादव जाने जाते हैं, लेकिन संसद में उस दिन उन्होंने जो ‘गंभीर’ और ‘नायाब’ विचार रखे, उसने उनकी कुंठा, निराशा और अहंकार को सबके सामने लाकर रख दिया। पहले राजा-महाराजाओं के यहां विदूषक हुआ करते थे। संसद में इन दिनों यह भूमिका लालू यादव निभा रहे हैं। सरकार में शामिल होने की लपलपाती इच्छा ने उन्हें सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी के दरबार का विदूषक बना डला है। जो काम कांग्रेस नहीं कर पाई, लालू यादव के ज़रिए उसने करवा डाला। जेपी आंदोलन की कोख से निकले लालू यादव उसी कांग्रेस के साथ गलबंहिया कर रहे हैं, जिस कांग्रेस के ख़िलाफ़ जेपी ने आंदोलन छेड़ा था। बिहार में सत्ता में रहते हुए चारा घोटाले में फंसे और जेल गए लालू यादव संसद में भ्रष्टाचार पर जिस बेशर्मी से बोल रहे थे, वह राजनीति के चेहरे पर कालिख पोत रहा था। राजनीति का यही चेहरा है जिसे बचाने में कांग्रेस ही नहीं सारी पार्टियां लगी हैं। अण्णा हज़ारे को आप गाली देते हैं, दीजिए। अण्णा हज़ारे से जुड़े लोगों पर जुमले कसते हैं, कसें। सड़क पर उतरे लाखों लोगों को आप महज़ भीड़ बताते हैं, बताएं। लेकिन इससे पहले अपने गिरेबान में भी तो झांकें और अपनी क़मीज़ भी तो देखें कि वह कितनी दाग़दार और मैली है। लालू यादव को मुसलमानों की भी ख़ूब फ़िक्र है। लोकपाल विधेयक में वे अल्पसंख्यकों या यों कहें कि मुसलमानों को आरक्षण दिए जाने की पुरज़ोर वकालत कर रहे थे। लेकिन इन्हीं लालू प्रसाद को तब मुसलमानों की सुध नहीं आई जब सात साल पहले बिहार में रामविलास पासवान ने मुसलमान मुख्यमंत्री की शर्त पर उनकी पार्टी को समर्थन देने की बात कही थी। लेकिन तब राबड़ी देवी के नाम पर ही लालू अड़ गए थे। लालू अगर मान गए होते तो बिहार में नीतीश कुमार सत्ता में नहीं आते। लेकिन पार्टी को अपनी बपौती मान बैठे लालू को तब पार्टी में कोई मुसलमान नेता नज़र नहीं आया था। वे सत्ता को अपने पास ही रखना चाहते थे और राबड़ी देवी को हर हाल में मुख्यमंत्री बनवना चाहते थे। नतीजा आज सबके सामने है- न ख़ुदा ही मिला, न विसाले सनम। बिहार में सत्ता से बाहर तो हुए ही, दिल्ली में भी उनकी पूछ कम हुई। मुसलमानों की अनदेखी का नतीजा ही है यह कि लालू आज न सिर्फÞ बिहार में सत्ता से बेदख़ल हुए बल्कि केंद्र में अब वे विदूषक की भूमिका में नज़र आ रहे हैं। तब कांग्रेस लालू के साथ बिहार में ताल से ताल मिलाने का खेल खेल कर रही थी। तब कांग्रेस पार्टी ने दिग्विजय सिंह को बिहार का प्रभारी बना रखा था। आज मुसलमानों की मसीहा बने बैठे ठाकुर दिग्विजय सिंह ने रामविलास पासवान की मांग को अव्यवहारिक कहा था। आज वे मुसलमानों को लुभाने के लिए हर खेल खेल रहे हैं। लेकिन मुसलमानों के लिए किया जा रहा यह सारा तमाशा किसी ‘विधवा विलाप’ से ज्Þयादा कुछ नहीं है। लोकसभा में भ्रष्टाचार पर लालू प्रसाद यादव को देखते-सुनते हुए यह लग रहा था कि वे उन लोगों की भाषा बोल रहे हैं जो नहीं चाहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके। कभी लालू मंडल-मसीहा के तौर पर जाने जाते थे। लेकिन आज उनकी भूमिका बदल गई है। वे उनकी हिमायत में खड़े हैं जो देश को लूटने का काम कर रहे हैं। वे बिना किसी लाग-लपेट के उन लोगों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं जो करोड़ों का भ्रष्टाचार कर रहे हैं। इनमें सियासतदां भी है और नैौकरशाह भी, बिचौलिए भी हैं और बाबुओं की जमात भी। संसद में लोकपाल पर बोलते हुए वे इन लोगों के नायक के तौर पर उभरे। जबकि इससे पहले यही वह तबक़ा था जो उनके गंवई अंदाजÞ पर उनका मज़ाक उड़ाया करता था। लालू यादव ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा कि अगर पार्टियों ने विप जारी नहीं किया तो इस विधेयक को पांच फीसद सांसदों का समर्थन भी शायद ही मिले। लेकिन आमतौर पर उनकी बात पर टीका-टिप्पणी करने वाले सांसदों में से किसी ने भी सदन में लालू यादव की इस बत का खंडन करने की कोशिश नहीं की। ज़ाहिर है कि उनका मौन समर्थन उन्हें था और लालू वही बोल रहे थे जो वे चाह रहे थे। लेकिन लोकपाल विधेयक को फांसी घर बोलते हुए लालू यह भूल गए कि संसद से बाहर भी एक दुनिया है। वह दुनिया आम लोगों की दुनिया है, जो हर पांच साल बाद अपनी दुनिया में हर नेता को अपनी शर्तों पर खड़े होने की इजाज़त देता है। अण्णा हज़ारे इसी दुनिया की अगुआई कर रहे हैं। अगले चुनाव में हमें आपका इंतजÞार रहेगा लालू यादव जी।



Read More...

हार कर जीतना


फ़ज़ल इमाम मल्लिक

अकेला मैं ही नहीं, किसी को भी यक़ीन नहीं था अफ़ग़ानी फ़ुबाल टीम का प्रदर्शन इतना शनादार रहेगा। बरसों से अफ़गानिस्तान युद्ध और आतंकवाद झेल रहा है। पहले रूस और अब अमेरिकी सेना की मौजूदगी ने यक़ीनन इस देश के युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव ही छोड़ा होगा। गोलियों की तड़तड़हाटें और बमों के धमाकों के बीच एक पूरी पीढ़ी वहां जवान हुई होगी तो एक पीढ़ी ने बुढ़ापे में क़दम रखा होगा। दूसरे देश की सेनाओं ने कइयों के सपनों को उनकी आंखों से छीन ले गई होगी तो कइयों के सपने आंखों में पलने से पहले ही टूट गए होंगे। दूसरे देश की सेनाओं ने एक पूरी पीढ़ी को अपाहिज बना डाला तो तालिबानों की वजह से भी इस ख़ूबसूरत देश में लोगों को क्या कुछ झेलना पड़ रहा है, पूरी दुनिया इससे वाक़िफ़ है। क़बीलाई इलाकÞों के आसमान में अमेरिकी सैनिकों के उड़ते विमान और ड्रोन कहीं भी और कभी भी मौत बरसाती हैं और आसमान में पर खोले तैरती मौतें रोज़ ही नजाने अनगिनत लोगों को अपना शिकार बना डालती है। एक अनदेखा डर बाहर भी है और भीतर भी और इस डर के साथ जीने के लिए अफ़ग़ानी अभिशप्त हो गए हैं। इसलिए सैफÞ फुटबाल चैंपियनशिप में अफ़ग़ानी फ़ुटबाल टीम से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद मुझे और मेरे साथी खेल पत्रकारों को नहीं थी। इसलिए फ़ाइनल के दिन मैच के दौरान अमित ने छूठते ही कहा था- ‘फ़ज़ल भाई! किस ने सोचा था कि यह टीम सैफ़ फुटबाल का फ़ाइनल खेलेगी’। अमित मेरे सहकर्मी रह चुके हैं। वे मेरे साथ ‘जनसत्ता’ में थे। फिर ख़ूब से ख़ूबतर की तलाश में वे एक दूसरे दैनिक में इन दिनों रन कूट रहे हैं और मौक़ा मिलने पर गोल भी ठोंक देते हैं। मैंने अमित की बात की तसदीक़ की और कहा- ‘ठीक कहा, हमने सोचा भी नहीं था कि अफ़गानिस्तान का प्रदर्शन इस टूर्नामेंट में इतना अच्छा रहेगा’।
लेकिन अफ़ग़ानी टीम ने अपने कला-कौशल और तकनीक से हमें अपना क़याल बनाया था। जंग से बदहाल उस देश के खिलाड़ियों ने जिस तरह का प्रदर्शन इस टूर्नामेंट में किया उससे उनके जीवट का पता तो चलता ही है, खेलों को लेकर उनके जुनून को भी समझा जा सकता है। लंबे-तगड़े और ख़ूबसूरत अफ़गÞानियों को मैदान पर भारत के ख़िलाफ़ खेलते देखना अच्छा लगा था। लीग मुक़ाबले में इस टीम ने भारत को एक-एक की बराबरी से रोक कर अपने इरादे भी ज़ाहिर कर दिए थे। क्योंकि फीफा रैंकिंग में अफ़गÞानिस्तान भारत से काफ़ी नीचे है इसलिए उसने जब घरेलू मैदान पर भारत को बराबरी की टक्कर दी तो लगा कि उसने तो मैदान मार लिया है। जीत-हार भले गोलों से तय होता है लेकिन कभी-कभी मैदान पर अद्मय साहस, संघर्ष की क्षमता और मज़बूत इरादे व इच्छा शक्ति भी किसी टीम को विजेता की तरह मैदान से बाहर लाता है, भले वह टीम हार गई हो या मुक़ाबला बराबरी पर छूटा हो। इसलिए फ़ाइनल के दिन जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में मेडल लेने के बाद अफ़ग़ानी फ़ुटबाल टीम हमारे सामने से गुज़री तो उनके लिए तालियां बजाने से ख़ुद को नहीं रोक पाया। मेरे साथ ही बैठे सुरेश कौशिक और राजेश राय ने भी उनका अभिनंदन किया। अपने देश के ख़िलाफ़ किसी दूसरी टीम के लिए इस तरह तालियां कभी मैंने बजाई हों, मुझे याद नहीं पड़ता। जबकि भारत की जीत पर या उसके बेहतरीन प्रदर्शन पर ख़ूब तालियां भी बजाईं हैं, तिरंगे को मैदान पर लहराते देख कर भावुक भी हुआ हूं और भारत के हारने पर मलाल और अफ़सुरदा भी हुआ हूं। भारत की हार पर तो आंसू नहीं निकले हैं लेकिन कई मौक़े ऐसे आए जब आंखों नम हो उठी थीं। ये मौक़े तब आए जब भारत ने मैदान पर चमकदार प्रदर्शन किया और मुक़ाबले जीते थे। यानी हार पर नहीं भारत के जीतने पर मैंने आंसू बहाए थे। लेकिन उस दिन अफ़ग़ानी टीम के लिए मेरे अंदर बैठा आदमी बार-बार उसकी शान में क़सीदे पढ़ रहा था। इसलिए भी कि एक लुटे-पिटे देश में खिलाड़ी किस तरह तैयार किए जाते हैं, कम से कम उससे हमें सीखना चाहिए। खेलों को लेकर हमारे यहां जिस तरह का माहौल है और खेल संघों पर क़ब्ज़ा जमाए अधिकारी, जिनमें ज़्याजातर नौकरशाह और सियासतदां हैं, खेलों की बजाय अपनी दुकान चमकाने में जुटे रहते हों, वहां एक छोटा सा देश सारी मुश्किलों से उबर कर एक ऐसी टीम बनाता है जो मैदान पर हमारी आंखों में आंखें डाल कर बराबरी की टक्कर देता है। इसलिए उस शाम नेहरू स्टेडियम की दूधिया रोशनी में उन खिलाड़ियों को सलाम करने को जी चाहा था। कुछ महीने इसी दिल्ली में अफ़गानिस्तान से आई महिला फुटबाल खिलाड़ियों ने भी दिल जीता था। और चीन में हुए एशियाई खेलों की क्रिकेट में पाकिस्तान को हरा कर फ़ाइनल में पहुंचने वाली अफ़गानिस्तान टीम ने भी अपने जीवट का प्रदर्शन किया था। दरअसल कुछ कर गुजरने की ललक ही किसी टीम को बेहतर टीम बनाती है जो मैदान पर मज़बूत से मज़बूत प्रतिद्वंद्धि के सामने डट कर खड़ी हो जाती है। गले में मेडल पहने हमारे सामने से गुज़रते अफ़ग़ानी खिलाड़ियों में से कइयों की आंखों में आंसू थे। अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद टीम एक बार पिछड़ी तो फिर उबर नहीं पाई।
पहले हाफ़ में अफ़ग़ानी टीम ने बेहतर खेला था और अगर भारतीय गोलची ने चौकसी नहीं दिखाई होती तो यक़ीनन भारत दो गोलों से पिछड़ रहा होता। लेकिन करणजीत सिंह ने बेहतरीन पूर्वानुमान के साथ ग़ोता लगाते हुए अफ़गानिस्तान के हमले को टाला। अफ़गानिस्तानके बलाल और संजार अहमदी ने भारतीय डिफेंडरों को कई बार परेशानी में डाला था। उन्होंने डिफेंस को छितराया भी लेकिन भारतीय रक्षा पंक्ति के अंतिम किले पर मुस्तैदी से जमे करणजीत ने दो बेहतरीन बचाव किए। दोनों ही बचाव शानदार और दर्शनीय थे। करणजीत ने सही समय पर चौकसी नहीं दिखाई होती तो सैफÞ फुटबाल चैंपियनशिप का पहला फ़ाइनल खेल रही अफ़ग़ानी टीम को फिर रोकना भारत के लिए मुश्किल होता। हालांकि मैदान उसका अपना था और दर्शकों का साथ भी था लेकिन पहले हाफÞ में भारतीय आक्रमण में वह धार नहीं दिखी जो होनी चाहिए थी। छुटपुट हमले ज़रूर भारत ने बनाए लेकिन वे हमले ऐसे नहीं थे जिन पर गोल बन सकता था। खिलाड़ियों से ज्Þयादा शायद दर्शकों में उत्साह था इसलिए भारतीय टीम के पास जब भी गेंद आती तो नेहरू स्टेडियम में मौजूद दर्शक उत्साह में भर कर शोर मचा कर तिरंगे लहराने लगते। ऐसा बरसों बाद देखने को मिला था। क्रिकेट की दीवनगी में फ़ुटबाल और दूसरे खेल कहीं खो से गए हैं, लेकिन इस साल पहले एएफसी कप में संयुक्त अरब अमीरात के ख़िलाफÞ और अब सैफ खेलों में दर्शकों का उत्साह देख कर अच्छा लगा था। दर्शकों से स्टेडियम भरा तो नहीं था लेकिन नेहरू स्टेडियम पर क़रीब बीस हज़ार लोगों की मौजूदगी देख कर अच्छा लगा था। कोलकाता में ज़रूर फ़ुटबाल मैचों में भी स्टेडियम में लोगों का हजूम उमड़ता था। लेकिन हाल के दिनों में क्रिकेट ने सभी खेलों से दर्शकों को लगभग दूर कर डाला था। इसलिए फ़ुटबाल को लेकर दर्शकों की बढ़ती दीवानगी एक सुख से भर दे रही थी।
अपने घर में, अपने दर्शकों के बीच भारत को यह फ़ाइनल जीतना ज़रूरी था। हालांकि फ़ाइनल तक के सफ़र में भारत का प्रदर्शन अच्छा रहा था। शुरुआती मुक़ाबले में अफ़ग़ानिस्तान ने उसे बराबरी पर रोक लिया था इससे उनका मनोबल बढ़ा हुआ था। दूसरे हाफ़ में भी अफ़ग़ानिस्तानी टीम ने बराबरी की टक्कर दी। लेकिन एक ग़लती ने खेल की पूरी तस्वीर ही बदल डाली। दूसरे हाफ़ में छब्बीस मिनट का खेल बीत चुका था और भारत, अफ़ग़ानिस्तान के गोल को भेद नहीं पाया था। लेकिन इसके बाद ही अफ़गÞानिस्तान ने एक ग़लती की और भारत को मैच पर पकड़ बनाने का मौक़ा मिल गया। मध्य मैदान पर गेंद सैयद रहीम नबी ने संभाली। एक डिफेंडर को उन्होंने ख़ूबसूरती से छकाया और फिर लंबा लाब अपने साथी खिलाड़ी जेजे लालपेखलुआ के लिए फेंका। डिफेंडर फ़ैज़ल सफ़ा जेजे के साथ थे। बाक्स के ठीक ऊपर मिली गेंद को लेकर जेजे निकले ही थे कि फ़ैज़ल ने उन्हें टंगड़ी मार दी। वे बाक्स के अंदर दाख़िल हो चुके थे इसलिए रेफ़री ने पेनल्टी देने में देर नहीं लगाई। फैÞज़ल की यह ग़लती टीम के लिए भारी पड़ी। जेजे निकले ज़रूर थे लेकिन वे गोल भेद ही देते ऐसा लग तो नहीं रहा था। फैÞज़ल ने उन्हें गिरा कर तो ग़लती की ही, रही-सही कसर गोलची हमीदुल्लाह यूसुफजारी ने पूरी कर दी। पहले उन्होंने रेफरी को पश्तो में कुछ बुरा-भला दी। यह बात उन्हें नहीं पता थी कि सिंगापुर के रेफरी को पश्तो समझ में आती है। लेकिन हमीदुल्लाह यूसुफजारी इतने पर ही नहीं रुके और उन्होंने रेफरी को धक्का देने की कोशिश की। यह ग़लती उन्हें भारी पड़ी और रेफ़री ने उन्हें लाल कार्ड दिखा कर मैदान से बाहर भेज दिया। हमीदुल्लाह यूसुफजारी इस फ़ैसले पर जितना लाल-पीले हो सकते थे, हुए, लेकिन मैदान पर उन्होंने जो किया उसका ख़मियाज़ा उनके साथ-साथ टीम को भी भुगतना पड़ा। बाक़ी समय उसे दस खिलाड़ियों से खेलना पड़ा। पेनल्टी पर सुनील छेत्री ने गोल बनाने में कोई ग़लती नहीं की। यह बात भी कम दिलचस्प नहीं है कि छेत्री ने जिस वक्Þत गोल दाग़ा स्टेडयिम की दूधिया रोशने के बीच ही चांद ने भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। स्टेडियम के पूर्वी सिरे से चांद धीरे-धीरे ऊपर आता गया और उसके साथ ही भारतीय टीम का प्रदर्शन भी निखरता गया।
लहराते तिरंगों के बीच ही भारत ने अगले सात मिनट में दो गोल फटाफट दागÞ कर अपनी जीत पुख़्ता कर ली। दोनों गोल के सूत्रधार छेत्री ही रहे। पहले मध्य मैदान से बढ़ाव बना कर उन्होंने दाएं छोर पर साथ चल रहे क्लाईफोर्ड मिरांडा को बेहतरीन ढंग से गेंद बढ़ाई। मिरांडा गेंद के साथ बाक्स में दाख़िल हुए। एक डिफÞेंडर को छकाया और फिर आगे बढ़ आए गोलची के बाएं से ज़मीनी शार्ट लगा कर गेंद को जाल के बाएं कोने में अटका दी। इस दूसरे गोल ने अफ़गÞानी टीम के हौसलों को एक तरह से पस्त कर दिया। तीन मिनट बाद छेत्री ने फिर पांवों की कलाकारी दिखाई। इस बार गेंद जेजे के लिए बढ़ाई और जेजे ने दाएं पांव से बेहतरीन वाली लगाई। गोलची कुछ समझ पाता इससे पहले ही गेंद जाल में तैर रही थी। तीन गोलों की बढ़त के बाद भारत की जीत तय हो चुकी थी। लेकिन खेल ख़त्म होने से ठीक पहले सुशील कुमार ने बाक्स के ठीक ऊपर से दनदनाता शार्ट लगाया और गेंद जाल में उलझ कर नाचने लगी। स्टेडियम तिरंगों से लहराने लगा था। दर्शकों का उत्साह देखने लायक़ था।
रेफरी की लंबी सिटी बजते ही भारतीय खिलाड़ी तिरंगे के साथ मैदान की परिक्रमा करने लगे। जीत की इबारत उनके चेहरों पर साफ़ पढ़ी जा सकती थी। दर्शकों में भी एक सुख पसरा था। नब्बे मिनट तक जूझने के बाद अफ़गÞानिस्तान टीम हार कर बाहर आ रही थी। कइयों की पलकों पर आंसू आकर ठहर गए थे तो कइयों के आंसुओं ने आंखों का तटबंध तोड़ डाला था। वे हार गए थे, लेकिन योद्धा थे। इसलिए उन्हें हार कर मैदान से बाहर आते देख कर भी अच्छा लग रहा था। एक सुख मेरे भीतर भी पसरा था। भारत ने एक बड़ा ख़िताब जीता था और यह बात सुख देने वाली थी। भारतीय टीम मेडल लेकर सैफ़ ट्राफी के साथ तस्वीरें खिंचवाने में जुटी थी। आसमान पर चांद अब पूरी ऊर्जा के साथ मुस्करा रहा था। स्टेडियम की दूधिया रोशनी में भी चांद की रोशनी भारतीय फ़ुटबाल टीम को सलाम कर रही थी- जीत का उजाला चांदे के चहरे पर भी फैला था और इस उजाले में भारतीय टीम को देखना अच्छा लग रहा था।
Read More...

जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है


फ़ज़ल इमाम मल्लिक

बस एक दिन पहले कलानाथ मिश्र से मुलक़ात हुई थी। क़रीब दो-तीन घंटे उनके साथ रहा था। कवि-मित्र शिवनारायण ने उनसे मुलाक़ात करवाई थी। पटना पहुंचा तो फ़ोन पर शिवनारायण से बात हुई। उन्होंने किसी गोष्ठी की जानकारी दे कर आने का न्योता दिया था। लेकिन घर से निकलते-निकलते देर हे गई। वहां पहुंचा तो गोष्ठी ख़त्म हो चुकी थी और लगभग सारे लोग जा चुके थे। शिवनारायण को वहां अपने पहुंचने की इत्तला फÞोन पर दे चुका था इसलिए वे मेरा इंतज़ार कर रहे थे। शिवनारायण ने ही कलानाथ मिश्र से मुलाक़ात करवाई और फिर मुझे बताया था कि कल इनके पहले कथा संग्रह ‘दो कमरे का मन’ का लोकार्पण अनुग्रह नारायण कालेज सभागार में है। उन्होंने मुझे न्योता भी दिया कि लोकार्पण समारोह में ज़रूर शिरकत करूं। लोकार्पण समारोह में शिरकत के लिए शिवनारायण ने औपचारिकता निभाते हुए आमंत्रण पत्र भी थमा दिया। इतना कहने-सुनने के बाद उन्होंने कहा कि हम लोग पुस्तक मेला जा रहे हैं, आप भी चलें।
एक दिन पहले ही पुस्तक मेला श्ुरू हुआ था। मुझे थोड़ी देर बाद शंकर आज़ाद से मिलना था। लेकिन उन्हें आने में थोड़ी देर थी और मेरे लिए इतना समय काफ़ी था। फिर यह ख़याल भी आया कि पुस्तक मेले में कुछ लोगों से इसी बहाने मुलक़ात भी हो जाएगी। वहां से हम अलग-अलग गाड़ियों में गांधी मैदान पहुंचे। उस शाम वहां पत्रकारिता पर सेमिनार हो रहा था। उसी कार्यक्रम में अनिल विभाकर से मुलाकाÞत हुई। लंबे समय बाद उनसे मिल कर अच्छा लगा। समारोह ख़त्म होने पर अनिल विभाकर के साथ बातचीत कर ही रहा था कि पत्रकारिता के कुछ छात्रों ने हमें अपने-अपने सवालों के साथ घेर लिया। वक्ताओं की बजाय उनका हमसे सवाल-जवाब करना कुछ अटपटा ज़रूर लगा लेकिन उनके सवालों को हमने गंभीरता से लिया। पत्रकारिता को लेकर उनकी चिंता वाजिब लगी। हम दोनों ने उनके सवालों का जवाब दिया। अपने सवालों का जवाब पाकर उन्हें तसल्ली भी हुई। वे अख़बारों में लिखना चाहते थे। उन्हें बताया कि आप लोग फ़िलहाल अख़बारों में फ़ीचर लिखें। हमने भी इसी तरह से अख़बारी सफ़र शुरू किया था। दस-पंद्रह लड़कों का यह समूह पत्रकारिता में आई गिरावट को लेकर तो चिंता जता ही रहा था, बिहार में पत्रकारिता के स्तर पर भी सवाल खड़े कर रहा था। उनका कहना था कि नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद बिहार में पत्रकारिता ख़त्म हो गई है और अख़बारों में ‘नीतीश चालीसा’ ही अब ज्Þयादा होने लगी है। भविष्य के उन युवा पत्रकारों की चिंता सचमुच डराने वाली थी। क्योंकि बीते पांच-सात साल से बिहार में पत्रकारिता की नई पाठशाला खोल रखी है नीतीश कुमार ने और इस पाठशाला से दीक्षित पत्रकार वही लिखता है जो नीतीश चाहते हैं। अख़बारों के ज़रिए बिहार में सुशासन की एक चमकीली दुनिया बाहर-भीतर दोनों तरफ़ से ही लोगों को आकर्षित करती है। विपक्ष और सरकार विरोधी ख़बरों को अख़बारों में जगह नहीं के बराबर ही मिल पाती हैं। पत्रकारिता के उन छात्रों की चिंता इसी बात को लेकर ही थी। उनके सवालों का जवाब देने के बाद मैं शिवनारायण और कलानाथ मिश्र को खोजने लगा।
कलानाथ मिश्र तो सामने ही दिख गए लेकिन शिवनारायण इस बीच कहीं निकल गए थे। कलानाथ मिश्र को बेली रोड होते हुए कहीं जाना था। मुझे भी शंकर आजाद से मिलने बेली रोड ही जाना था इसलिए मैंने उनसे साथ ले चलने को कहा तो वे राज़ी हो गए। लेकिन जाने से पहले शिवनारायण से मिलना ज्Þारूरी था, इसलिए उनका इंतज़ार हम करते रहे। वहीं सम्मेलन स्थल के बाहर अगले दिन होने वाले कार्यक्रमों का ब्योरा था। दूसरे दिन सम्मेलन में मेरे कई मित्र हिस्सा लेने वाले थे। रायपुर से गिरीश पंकज, महेंद्र ठाकुर, ग़ाज़ियाबाद से सुभाषचंदर और जयपुर से फ़ारूक आफ़रिदी के अलावा हरीश नवल और प्रेम जनमेजय भी आने वाले थे। दिल्ली में इन लोगों से कम ही मुलक़ात होती है, अपने शहर में अपने मित्रों के आने की सूचना से मुझे सकून तो हुआ ही, मेरे भीतर एक सुख भी पसर गया। इनमें से कइयों से सालों बाद मुलाक़ात होगी। दिल्ली में रहते हुए भी कहां किसी से ढंग से मिलना-जुलना हो पाता है। हर कोई अपने-अपने ग़मे-रोज़गार में मुब्तला। न हम ख़ाली न वे ख़ाली। कथाकार बलराम अग्रवाल की बात याद आ गई। हाल ही में उनका फ़ोन आया था। बक़रीद पर बधाई देते हुए उन्होंने कहा कि अभी-अभी सुभाष नीरव से पंजाब के एक कार्यक्रम में मुलाक़ात हुई। लगता है कि हम दोनों भी अब रायपुर में ही फिर मिलेंगे। दिल्ली में रहते हुए अरसा बीत गया है लेकिन सुभाष नीरव ही क्या बलराम अग्रवाल से भी मुलाक़ात हुए अरसा बीत गया है। वह तो भला हो फ़ोन का जिसकी वजह से हम बीच-बीच में बतियाते रहते हैं। तीन साल पहले बलराम अग्रवाल से रायपुर में हुई मिलना हुआ था। ‘सृजनगाथा’ के लघुकथा सम्मेलन में। उस दिन उसी बात का ज़िक्र बलराम कर रहे थे। पटना में दिल्ली और दूसरी जगहों से आरहे लेखकों की सूची में कई परिचितों का नाम देख कर बलराम मुझे याद आए।
शिवनारायण अब तक नहीं आए थे। हमें देर हो रही थी। तब कलानाथ भाई ने शिवनारायण को फ़ोन किया तो पता चला कि वे एक स्टाल पर जमे हैं। हम स्टाल की तलाश में घूमने लगे। चलते हुए ही मैंने कलानाथ मिश्र से मज़ाक़ में कहा- ‘प्रोफेसरों के साथ यही दिक्ÞकÞत है। उन्हें याद ही नहीं रहता कि दूसरे लोग भी उनके साथ हैं।’ कहने को तो मैं कह गया लेकिन बाद में कलनाथ भाई का ख़याल आया। उनसे पूछा आप कहां कार्यरत हैं तो उन्होंने बताया कि मैं भी इत्तफ़ाक़ से प्रोफ़ेसर ही हूं। मैं थोड़ा असहज ज़रूर हुआ, लेकिन शिवनारायण से लंबे समय से जुड़ाव था इसलिए सहज होने में देर नहीं लगी। उन्हों खोजते हुए हम लोग स्टाल पर पहुंचे तो वहां चाय का दौर चल रहा था। मैंने छूटते ही फिर ‘प्रोफ़ेसर वाली’ अपनी बात दोहराई। शिवनारायण हंसने लगे और हम चाय पी कर वहां से निकल गए। रास्ते में कलानाथ मिश्र से ढेरों बातें हुईं। साहित्य से लेकर पत्रकारिता पर उनसे बात होती रही। तब मुझे पता चला था कि प्रोफ़ेसरी से पहले कलानाथ मिश्र पत्रकारिता के दश्त में भी ख़ूब सैयाही कर चुके हैं। थोड़ी देर बाद ही मेरी मंज़िल आ गई तो मैंने उनसे विदा ली। उन्होंने चलते-चलते याद दिलाया- कल आप कार्यक्रम में ज़रूर आएं। मैंने उनसे वादा किया। यों भी दूसरे दिन पटना में मुझे दो लोगों से मिलना ही था। इन दो में पहला नाम वरिष्ठ साहित्यकार कुमार विमल का था। क़रीब सात-आठ महीने से वे लगातार संपर्क में थे और जिस स्नेह से वे बतियाते थे, उसने मुझे उनका क़याल बना लिया था। ईद में घर गया था तभी उनसे मिलने का कार्यक्रम था। लेकिन तब बहुत जल्दी में दिल्ली लौटना हुआ और मैं उनसे मिल नहीं पाया था। इसका मलाल काफी सालता रहा था। इसलिए इसबार तय कर आया था कि उनसे ज़रूर मुलाक़ात करूंगा। गांव से फ़ोन पर उनसे बात भी हो चुकी थी और वे बेतरह ख़ुश हुए थे यह जान कर कि मैं बिहार आया हुआ हूं और उनसे मुलाक़ात के लिए उनके घर आऊंगा। दूसरे शख़्स थे, कवि-गीतकार सत्यनारायण। उनसे मिले भी काफ़ी अरसा हो गया था। बीच में वे बीमार भी रहे थे और दिल का आपरेशन करवा कर लौटे थे। इसलिए मिलना ज़रूरी था।
दूसरे दिन विमोचन के कार्यक्रम में देर से पहुंचा। समारोह की अध्यक्षता बिहार के पुर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र कर रहे थे। गिरीश पंकज, सुभाषचंदर, महेंद्र ठाुकर, हरीश नवल, प्रेम जनमेजय को देख कर अच्छा लगा। पुराने मित्र-पत्रकार ध्रुव कुमार सामने थे। ध्रुव ने मेरे लिए जगह ख़ाली की। देख कर अच्छा लगा कि सभागार भरा हुआ था। सामने ही कवियत्री डाक्टर कुमारी मनीषा भी थीं। उनसे दो साल पहले खगड़िया के समारोह में मिलना हुआ था। वे अच्छी कविताएं लिखती हैं। उन्होंने खगड़िया में अपनी कविताओं का पाठ भी किया था। हम दोनों ने बिना बोले एक-दूसरे का अभिवादन किया। उनके अलावा कई और मित्रों को देख कर अच्छा लगा। संचालन शिवनारयण कर रहे थे। मैं पहुंचा तो पुस्तक पर कवि-मित्र निविड़ शिवपुत्र बोल रहे थे। निविड़ को सुनना अच्छा लगा। उसने पुस्तक पर बहुत अच्छी और सधी प्रतिक्रिया दी। प्रेम जनमेजय की वक्तव्य के दौरान ही शिवनारायण की नज़र मुझ पर पड़ी और उन्होंने मुझे इशारे से बताया कि मुझे भी बोलना है। पहले तो मैं झिझका। किताब मैंने पढ़ी नहीं थी। इसलिए उस पर क्या कुछ बोलूंगा। इसलिए पहले मैंने मना किया। लेकिन शिवनारायण ने जब दोबारा कहा तो मैं राज़ी हो गया। मुझे क्या कुछ बोलना है यह मैंने तय कर लिया था। कल रात से ही पुस्तक को लेकर जो बात मुझे बेतरह हॉण्ट कर रही थी, उसे लोगों के सामने रखने का ख़याल अचानक मुझे आया ता। कलानाथ मिश्र ने पुस्तक का नाम ‘दो कमरे का मन’ रखा है और इस नाम से मुझे एक अलग तरह का लगाव हो गया था। इसलिए शिवनारायण ने जब मुझे बुलाया तो मैंने इसी को केंद्र में रख कर अपनी बात कही। मैंने कहा कि दिल्ली में पिछले सात-आठ साल से रहना हो रहा है। वहां रहते हुए इस बात का शिद्दत से अहसास हुआ कि साहित्य और दुनियादारी दोनों ही जगह दिल्ली वालों ने अब अपने मन में एक भी कमरा नहीं रख छोड़ा है। मुझे ख़ुशी इस बात की है कि मेरे शहर और मेरे प्रदेश के कथाकार ने आज भी मन में कम से कम दो कमरे छोड़ रखे हैं। और सच तो यह भी है कि वह बिहार ही है जो देश को दुनियादारी भी सिखाती है और साहित्य में मन में कमरे बनाने की सीख भी देता है। मेरी यह बात वहां मौजूद श्रोताओं को पसंद तो आईं लेकिन दिल्ली वालों को शायद मेरी यह साफ़गोई अच्छी नहीं लगी। मेरे बाद बोलने आए हरीश नवल ने इसका इज़हार भी किया लेकिन अपने संबोधन में जब उन्होंने महानगर की त्रासदी का ज़िक्र भी किया तो मेरी बात की तसदीक़ भी एक तरह से उन्होंने कर दी। हालांकि उन्होंने अपने संबोधन में ‘मुख़ालफ़त’ के लिए जब ‘ख़िलाफ़त’ का इस्तेमाल किया तो मुझे बेतरह अटपटा लगा। पत्रकारिता की चलताऊ बातचीत में ‘ख़िलाफ़त’ का इस्तेमाल ‘विरोध’ के लिए ख़ूब किया जा रहा है लेकिन हिंदी का कोई विद्वान और प्रोफ़ेसर अगर विरोध के लिए खिलाफ़त का इस्तेमाल करे तो यह शर्मनाक है। कम से कम उन जैसे लोगों को तो ‘ख़िलाफ़त’ और ‘मुख़ालफ़त’ का मतलब भी आना चाहिए और फ़र्क़ भी। फिर अगर हिंदी में मुख़ालफ़त के लिए विरोध शब्द है तो क्या ज़रूरत है उर्दू की टांग तोड़ने की। लेकिन हिंदी में ऐसा हो रहा है और हरीश नवल सरीखे लेखक भी उसका इस्तेमाल बिना मतलब जाने-समझे कर रहे हैं। यह बात मेरे जैसे कम समझ वाले के लिए चिंता की बात है।
बहरहाल कार्यक्रम ख़त्म हुआ। जगन्नाथ मिश्र से लंबे समय बाद मिलना हुआ था। वह तपाक से मिले और कहा कि तुम्हें पहचान लिया है। पटना आते हो ते मिलते क्यों नहीं हो। सुभाष, गिरीश पंकज और महेंद्र ठाकुर लहक कर मिले। लेकिन मेरी संक्षिप्त टिप्पणी पर दिल्ली वाले इस बुरी तरह आहत थे कि उन्होंने ढंग से बातचीत तक नहीं की। यानी सचमुच दिल्ली के साहित्य-समाज अपने मन के कमरे को बंद कर रखा था। जहां अब न तो कोई ताज़ी हवा आती है और न ही जिसे अपनी आलोचना सुनने की ताब। कलानथ मिश्र की किताब उनके मन में कोई कमरा बना पाए, ऐसा लगता तो नहीं लेकिन उम्मीद तो की ही जा सकती है। वैसे इस मौक़े पर मुझे मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद का एक शेर याद आ रहा है-
चेहरे पर सारे शह्र का गर्दो-मलाल है
जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है।






Read More...

आवाज़ों पर पहरा है





फ़ज़ल इमाम मल्लिक
स्तब्ध करने वाली जानकारी थी मेरे लिए। पटना से कई लेखक-पत्रकार मित्रों के अलावा कई अनजाने लोगों ने फ़ोन पर जो जानकारी दी वह सदमे और हैरत में डालने वाली थी। मित्रों ने बताया कि मुसाफिÞर बैठा और अरुण नारायण को बिहार विधान परिषद की नौकरी से निलंबित कर दिया गया है। निलंबित करने की वजह उनका लेखन है। दोनों का सरोकार साहित्य से है और दोनों अच्छे लेखक-कवि-साहित्यकमी हैं। उनका इस तरह निलंबित किया जाने किसी सदमे से कम नहीं था। मुसाफ़िर बैठा के कवि कर्म से मैं परिचित हूं। जब-तब फेसबुक पर एक-दूसरे से बातें भी होती रहती हैं। क़रीब सात-आठ महीने पहले पटना प्रवास के दौरान दो बार उनसे मुलाक़ात हुई थी। पहली बार युवा सहित्यकार परिषद की काव्य गोष्ठी में और दूसरी बार कवि-मित्र शहंशाह आलम के साथ। हमने साथ-साथ चाय भी पी थी और साहित्य पर चर्चा भी की थी। अरुण नारायण से मिला तो नहीं हूं लेकिन उनकी रचनात्मक गतिविधियों से परिचित हूं।
कुछ मीहने पहले बिहार विधान परिषद से जावेद हसन को भी नौकरी से हाथ धोनी पड़ी थी। जावेद भी अच्छे लेखक हैं। वे विधान परिषद में उर्दू रिपोर्टर के पद पर कार्यरत जावेद ‘ये पल’ नाम की पत्रिका निकालते हैं। इसके अलावा उनका एक उपन्यास ‘गोश्त’ और कहानी संग्रह ‘दोआतशा’ प्रकाशित हुआ है। उनकी यह दोनों कृतियां हिंदी और उर्दू में चर्चित भी रही हैं। कई साल पहले जावेद हसन ने अपना उपन्यास ‘गोश्त’ मुझे दिया था। आज भी उनकी दी गई किताब का कवर मुझे बेतरह आकर्षित करता है, उनके उपन्यास का तो मैं क़ायल हूं ही। इस कथा-लेखक को हटाए जाने की कथा अलग है लेकिन इस नई घटना ने तो अचंभित और कहीं अंदर तक चोट पहुंचाई है। मित्रों के अलावा कुछ ऐसे लोगों को फ़ोन भी आए जिन्हें मैं पहले से नहीं जानता था। उन लोगें ने भी इस घटना की जनाकारी दी और कहा कि आपने सही कहा था कि बिहार में आवाज़ों पर पहरा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में अघोषित सेंसरशिप लगा रखी है और सच लिखने-बोलने वाले उनके राज में सताए और प्रताड़ित किए जा रहे हैं। ये लोग कृष्ण मेमोरियल हाल में आयोजित बिहार नवनिर्माण मंच के सम्मेलन में मेरी कही बातों का उल्लेख कर इस घटना की जानकारी दे रहे थे। इनमें से कइयों का सरोकार साहित्य और पत्रकारिता से था लेकिन वे नीतीश कुमार की नीतियों की वजह से चुप और ख़ामोश हैं। दरअसल बिहार में इन दिनों नीतीश कुमार ने आवाज़ों पर जिस तरह का पहरा लगा रखा है वह काफ़ी ख़तरनाक है। बिहार में मीडिया भले अभी नीतीश कुमार की जी हज़ूरी में यह भूल बैठा है कि अगर यह सूरत इसी तरह रही तो उनके सामने ख़तरा बाहरी और भीतरी दोनों है। बाहरी ख़तरा सत्ता प्रतिष्ठानों से है तो भीतरी ख़तरा प्रबंधन और बड़े पदों पर बैठे लोगों से है। यह दोनों ही ख़तरे पत्रकारिता को अपने तरीक़े से हांकने की कोशिश में जुटा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में भी सत्ता और प्रबंधन मिल कर पत्रकारों को अपने तरीक़े से चलाने की कोशिश करेंगे और मीडिया से जुड़े लोग ऐसा करने के लिए अभिशप्त होंगे। इन ख़तरों से वाक़िफ़ होने का बावजूद बिहार में मीडिया की यह चुप्पी डराती भी है और चौंकाती भी है। क्योंकि इसी बिहार में जब जगन्नाथ मिश्र ने प्रेस बिल ला कर अख़बार वालों को डराने की कोशिश की थी तो इसके ख़िलाफ़ पत्रकार लामबंद हुए थे और यह लामबंदी देश के पैमाने पर इतनी मुखर हो गई कि आख़रिकार जगन्नाथ मिश्र को यह काला प्रेस बिल वापस लेना पड़ा था। लेकिन आज हालत ठीक इसके उलट है। मीडिया पर लगातार हमले हो रहे हैं लेकिन मीडया चुपचाप इन हमलों को झेल रहा है।
लेकिन यह ताज़ा घटना एक तीसरे ख़तरे की तरफ़ भी इशारा कर रही है। यह ख़तरा ज्Þयादा गंभीर है। यह ख़तरा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर मंडरा रहा है। बिहार में इन दिनों सच बोलना और लिखना मना है। नीतीश् कुमार और उनकी सरकार के प्यादे नहीं चाहते कि अख़बारों में सच लिखा जाए और लेखक-पत्रकार सच बोलें। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने ऐसे ही माहौल के लिए लिखा होगा ‘चली है ऐसी रस्म यहां कि कोई न सर उठा के चले’। बिहार में लिखने-पढ़ने वालों के लिए हालात ऐसे ही हैं। मुसाफ़िर बैठा और अरुण नारायण के निलंबन पर लिखने से पहले कुछ बातें और। इन बातों का कोई सीधा तालुल्क़ इन दोनों के निलंबन से भले न हो लेकिन बिहार में अभिव्यक्ति की आज़ादी और आवाज़ों को दबाने की जिस तरह से कोशिश की जा रही है उसकी नज़ीर ज़रूर है। साथ ही इन बातों से बिहार में अख़बारों और चैनलों की क्या हालत है इनका भी पता चलता है।
कहां ज्यादा दिन हुए हैं। पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हाल में बिहार नव निर्माण मंच का सम्मेलन था। यह एक ग़ैरराजनीतिक मंच है। यह बात दीगर है कि इसका गठन नीतीश कुमार के कुशासन के ख़िलाफ़ राजनीति से जुड़े लोगों ने ही किया है। कभी नीतीश के सहयोगी रहे उपेंद्र कुशवाहा, वरिष्ठ समाजवादी नेता और सांसद मंगनीलाल मंडल, पूर्व सांसद अरुण कुमार, एजाजÞ अली, शंकर आज़ाद और संजय वर्मा इस मंच के गठन के पीछे हैं। पिछले कई साल से बिहार में नीतीश कुमार की उन कारगुज़ारियोंको ये उजागर करने में जुटे हैं जो अमूमन लोगों के सामने नहीं आ पा रही हैं या उन्हें आने नहीं दिया जा रहा है। शंकर आज़ाद से मेरा संबंध कोई दो दशक से भी ज्Þयादा का है इसलिए उन्होंने मंच से मुझे भी जोड़ रखा है। आज़ाद ने पटना सम्मेलन की जानकारी पहले ही दे रखी थी और एक तरह से मुझे निर्देश दे रखा था कि उसमें हिस्सा लेना है। मंच का यह पहला कार्यकर्ता सम्मेलन था लेकिन लोगों की बड़ी तादाद इसमें शामिल हुई थी। श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में उमड़ी भीड़ से नीतीश कुमार की ‘लोकप्रियता’ का पता चल रहा था।
आमतौर पर जो होता है, मंच से ज़िलों से आए लोग भाषण दे रहे थे। भाषणों के इसी सिलसिले में किसी ज़िले से आए एक सज्जन ने जो बात कही उसने चौंकाया था। बिहार में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने के बाद मीडिया की जो हालत है उसे लेकर उन्होंने टिपण्णी की थी। वह टिपण्णी बिहार के मीडिया के बदले चरित्र का एक तरह से आईना था। उन्होंने अख़बारों की भूमिका पर सवाल उठाते हुए जो कहा था वह ठीक-ठीक तो याद नहीं है लेकिन जो कहा था उसका लब्बोलुआब यह था कि नीतीश कुमार बिहार से प्रकाशित होने वाले अख़बारों के ब्यूरो प्रमुख बन गए हैं। हालांकि यह टिपण्णी उन्होंने अख़बारों को लेकर की थी लेकिन मीडिया के दूसरे फार्म पर भी यह बात उतनी ही लागू होती है जितनी अख़बारों पर। पटना से दूर बैठे एक आम से आदमी की यह टिपण्णी बेधने वाली थी। सम्मेलन के राजनीतिक प्रस्ताव में भी मीडिया को लेकर इसी तरह की कुछ बातें की गर्इं थीं। ज़ाहिर है कि बिहार में इन दिनों मीडिया की भूमिका से सरकार के अलावा कोई ख़ुश नहीं है, क्योंकि अख़बारों में वह छापा जा रहा है जो नीतीश कुमार चाहते हैं और चैनलों पर वह ही दिखाया जा रहा है जो सरकार चाहती है।
सम्मेलन में मुझे भी बोलना होगा, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी। लेकिन अचानक ही पूर्व सांसद और मित्र अरुण कुमार ने मुझे बोलने के लिए आमंत्रित किया तो मैं थोड़ा अचकचाया। शायद शंकर आज़ाद ने पहले ही यह तय कर रखा था। लेकिन नाम पुकारे जाने के बाद कुछ न कुछ तो बोलना ही था। राजनीतिक बातें लोग कर रहे थे और उसे दोहराने का कोई मतलब नहीं था। लेकिन जिस एक बात ने मुझे बेधा था, मैंने वहीं से सूत्र पकड़ा और मीडिया को केंद्र में रख कर अपनी बातें कहीं। आठ-दस हज़ार की भीड़ वाली किसी राजनीतिक रैली में बोलने का यह पहला मौक़ा था। बिहार में मीडिया के बदलते चरित्र पर मैंने अपनी बात बहुत साफ़-साफ़ रखी। मुझे यह पता था कि बहुत ज्Þयादा बौद्धिक बातें करने की यहां कोई ज़रूरत नहीं है। जोभी कहना है साफÞ शब्दों में कहना है, इसलिए सारी बातचीत मैंने मीडिया तक सीमित रखी। लेकिन मेरी बातें उस भीड़ में जिस तरह सुनी गईं, उससे मुझे बेतरह हैरत हुई और यह पता भी चला कि बिहार का मीडिया अपनी तमाम प्रसार संख्या और टीअरपी के बावजूद लोगों से दूर है। नीतीश कुमार की मां की श्राद्ध की ख़बर को बिहार के अख़बारों ने जिस तरह छह-सात तस्वीरों के साथ छापा था, मैंने लोगों के सामने इस उद्हारण के साथ मीडिया के बदलते चरित्र की तरफ़ इशारा किया था। यह बात लोगों के मर्म को कहीं छू गई थी। बिहार में आवाज़ों को दबाने की कोशिश पिछले छह-सात सालों में जिस तरह से नीतीश कुमार कर रहे हैं, उसकी एक झलक वहां दिखाई दी थी। इसलिए मेरे बाद कई लोगों ने मीडिया के रवैये पर बातें कीं और बातों-बातों में यह भी बताया कि नीतीश कुमार ने पार्टी कार्यकर्ताओं को यह निर्देश दिया था कि उनकी मांं का श्राद्ध किसी पार्टी कार्यक्रम की तरह हर जिला मुख्यालय पर आयोजित किया जाए।
इस घटना को बताने की ज़रूरत शायद नहीं थी लेकिन, बिहार में साहित्य और पत्रकारिता से सरोकार रखने वालों की हालत क्या है, इससे समझा जा सकता है। कवि-मित्र मुसाफिÞर बैठा और अरुण नायारण के साथ घटी घटना इसी सिलसिले की कड़ी है। लेकिन अगर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया तो आने वाले दिनों में नीतीश कुमार अपने ‘निरंकुश सुशासन’ के और भी बेहतर नमूने पेश करेंगे। साहित्य और पत्रकारिता पर हमले बढ़ेंगे। नीतीश कुमार ने बिहार में साहित्य और सरोकारों की पत्रकारिता करने वालों का जो हाल बना रखा है वह किसी से छुपा नहीं है। हिंदी के विकास के लिए बना ‘हिंदी भवन’ एक शिक्षण संस्थान को दे दिया जाता है और बिहार के साहित्य जगत और मीडिया में कोई हलचल नहीं होती। यानी जो है, जैसा है, चल रहा है, चलने दो। बिहार में ऐसा ही कुछ चल रहा है। इसलिए मुसाफिÞर बैठा और अरुण नारायण के निलंबन को लेकर बिहार के साहित्य जगत में जिस तरह की हलचल होनी चाहिए थी, नहीं हुई है।
हैरत तो इस बात पर हो रही है कि इन दोनों के निलंबन का आधार फेसबुक पर लिखी गई उनकी टिपण्णियां बनीं। फेसबुक न तो अख़बार है और न ही पत्रिका। वह एक ऐसी सामाजिक साइट है, जहां लोग अपने मित्रों के साथ सुख-दुख ही नहीं दुनिया-जहान से जुड़ी ख़बरें साझा करते हैं। साहित्य से सरोकार रखने वाले अपनी अभिव्यक्ति के लिए भी इस मंच का इस्तेमाल करते हैं। मुसाफ़िर बैठा और अरुण नारायण ने भी इस मंच का इस्तेमाल अपनी अभिव्यक्ति के लिए किया। मुसाफ़िर बैठा ने अपने विभाग से भविष्य निधि खाते की जानकारी मांगी थी। सात सालों से उनके खाते जस के तस हैं। विभाग उनके खातों को अपडेट नहीं करा रहा था और अधिकारी इसके लिए उनसे जवाब तलब कर रहे थे। तब मुसाफ़िर ने इसे लेकर फेसबुक पर अपने मन की व्यथा ‘दीपक तले अंधेरा’ शीर्षक से लिख कर पोस्ट कर दिया। अधिकारियों को उनकी यह बेबाकी पसंद नहीं आई। एक लिपिक की यह जुर्रत कि वह सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाए। आननफानन उन्हें निलंबन का पत्र थमा दिया गया। अरुण नारायण का क़िस्सा थोड़ा अलग है। उन्होंने इस तरह की कोई सीधी टिपण्णी नहीं की थी। उन्होंने जनता दल (एकी) के विधान परिषद सदस्य प्रेम कुमार मणि को पार्टी से निकाले जाने को असंवैधानिक बताया था। साहित्यकार से नेता बने मणि कभी नीतीश् कुमार के सखा रहे हैं और उनकी ही मेहरबानी से वे एमएलसी बने थे। लेकिन नीतीश कुमार की नीतियों को लेकर मणि इन दिनों उनका विरोध कर रहे हैं और इसका ख़मियाज़ा उन्हें निलंबन के तौर पर उठाना पड़ा। अरुण नारायण को यह ठीक नहीं लगा था। इसका इज़हार उन्होंने फेसबुक पर किया और नतीजे में सरकार ने उन्हें भी निलंबन का पत्र थमा दिया। फेसबुक पर कुछ लिखने की वजह से किसी को नौकरी से निलंबित किए जाने की यह अपने आप में पहली नज़ीर है।
नीतीश बिहार में इन दिनों कुछ करें या नहीं करें लेकिन अपने विरोधियों को निपटाने का काम बख़ूबी कर रहे हैं। हैरत इस बात पर है कि पत्रकारों के साथ-साथ साहित्यिक समाज भी अब बिहार में सरकार की तानाशाही और अलोकतांत्रिक रवैये पर चुप्पी साधे हुई है। मुसाफ़िर बैठा और अरुण नारायण के मामले में भी कहीं कुछ सुगबुगाहट नहीं हो रही है। यह चुप्पी और ख़ामोशी बेतरह डरा रही है। यह चुप्पी इसी तरह बरक़रार रही तो नीतीश कुमार के निशाने पर अगली बार हम में से कोई हो सकता है। इस पर हममें से किसी ने ग़ौर किया है, नहीं, तो गÞौर करें और मुसाफ़िर बैठा, अरुण नारायण और जावेद हसन के पक्ष में खड़े होकर सरकार की आंखों में आंखें डाल कर बात करें। हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो फिर सरकार के अगले क़दम के लिए तैयार रहें। उस निशाने पर हममें से ही कोई एक होगा, देख लेना।
Read More...

सालगिरह पर संदेश


फ़ज़ल इमाम मल्लिक

मुझे नहीं याद पड़ता है कि कभी अपनी सालगिरह मनाने के लिए किसी तरह का आयोजन किया हो। उम्र का एक हिस्सा गांव में गुज़रा। वहां ईद-बक़रीद जैसे उत्सवों के अलावा दूसरे पर्व-त्योहार ही मनाए जाते थे। शादी-ब्याह या कभी-कभार अक़ीक़ा जैसे आयोजन भी होते रहते थे लेकिन सालगिरह मनाने की कोई रस्म गांव में नहीं थी। आयोजन की बात तो जाने दें, जन्मदिन की औपचारिक बधाई देने की रस्म भी नहीं थी। जन्मदिन आता और बिना किसी शोर-शराबे और बधाई-वधाई के चुपचाप चला जाता। न तो उसे कुछ पता चलता जिसका जन्मदिन होता और न ही दूसरे लोगों को इस बात का पता रहता। जन्मदिन आता और बहुत ख़ामोशी से साल में गिरह लगा कर अगले साल फिर से आने के लिए चला जाता। दरअसल हमलोग उस दौर में पैदा हुए, पले-बढ़े जहां सालगिरह जैसी रस्मों की समाज में कोई जगह ही नहीं थी। कभी-कभार सिनेमा में ज़रूर इस तरह की रस्मअदायगी को देखते और ‘तुम जियो हज़ारों साल’ या फिर ‘बार-बार दिन ये आए, बार-बार दिल ये गाए’ जैसे गीत सुन कर ही झूम लेते थे और ‘बर्थडे’ की कल्पना कर लेते थे कि यह भी शहर के लोगों का कोई चोंचला होगा। लेकिन मैट्रिक के बाद आगे की पढ़ाई के लिए संझले चाचा के पास रांची गया तो वहां भी इस तरह की कोई संस्कृति नहीं थी, जहां बर्थडे या सालगिरह मनाया जाता। वे रांची में एचईसी में काम करते थे। उनके दोस्तों की बड़ी तादाद थी फिर भी किसी के घर में इस तरह का कोई आयोजन नहीं होता था। तब न टीवी था और न इंटरनेट या मोबाइल। ले-दे कर रेडियो-ट्रांजिस्टर था जिससे गाहे-बगाहे गाना सुनते थे। सिनेमा ज़रूर था लेकिन उसे देखने पर भी बंदिश थी। दरअसल फ़्लिमों को लेकर आम धारणा यह थी कि इससे ज़ेहनो-दिल पर बुरा असर पड़ता है और इससे कई बुराइयां पैदा होती हैं। मुंगेर में गर्मियों की छुट्टी के दौरान चचा (इज़हारुल हक़) के यहां जाना होता तो वहां ज़रूर फ़िल्म देखने की इजाज़त थी। चचा वकील थे इसलिए उनके जानने वालों में सिनेमा हाल के मालिकान भी थे। चचा का एक पुजर्Þा ही काफ़ी होता था। पटना में रिश्ते के एक फूफा भी थे इज़ाहरुल हक़। वे वित्त विभाग में थे और सिनेमा हाल के टैक्स जैसे मसले उनके पास आते रहते थे। इसलिए उनसे कह कर भी मुफ्Þत में ख़ूब फ़िल्में देखी थीं। लेकिन रांची में तो कालेज से भाग कर ़ही फ़िल्में देखीं। नया-नया शहर का चस्का लगा इसलिए छुप कर ही फ़िल्में देखीं और ख़ूब देखीं। इसके लिए कई बार पिटाई भी हुई लेकिन चोरी-छुपे फ़िल्म देखना नहीं छूटा।
संझले चाचा के साथ वहां सिर्फÞ दो फिल्में देखीं। एक तो थी ‘भाई हो तो ऐसा’ और दूसरी ‘पाकीज़ा’। पाकीज़ा को लेकर एक दूसरे तरह का क्रेज़ था लोगों में। घर वालों की राय में यह एक साफ़-सुथरी फ़िल्म थी। गांव से घर के दूसरे लोग भी आए थे इसलिए सब लोगों ने साथ मिल कर देखी थी यह फ़िल्म। मुझे जहां तक याद है अब्बू ने पहली बार शायद पटना में मैट्रिक के बाद कोई फ़िल्म देखने की इजाज़त दी थी और पैसे भी। हां, शेख़पूरा में छुटपन में एक फ़िल्म लगी थी ‘ख़ाना-ए-ख़ुदा’। वह फ़िल्म देश भर में ख़ूब चली थी। घर से बाहर पांव नहीं धरने वाली मुसलिम महिलाओं ने भी वह फिÞल्म देखी और उन लोगों ने भी जो सिनेमा को हराम बताने में आगे रहते थे। फिÞल्म हज को केंद्र में रख कर बनाई गई थी, इसलिए मुसलमानों में इसे लेकर एक अजब तरह का उत्साह था। इस उस्ताह को देख कर तब यों लगता था कि लोग फिÞल्म देखने नहीं हज पर ही जा रहे हों। गांवों से टमटम, मोटरों, टैक्सियों और दूसरी सवारियों पर भर-भर कर लोग फिÞल्म देखने के लिए शेखपुरा गए थे। बुर्क़ानशीं औरतों, बच्चों, बूढ़ों, जवान मर्द-औरत सबों में फ़िल्म देखने को लेकर इस तरह होड़ थी मानो ज़मीन पर ही जन्नत मिल जाएगी या फिर अगर फ़िल्म नहीं देखा तो एक सवाब से महरूम हो जाएंगे। मेरे घरवाले भी इसमें शामिल थे और उन घरवालों में मैं भी शामिल था। घर वालों की इजाज़त से हम सब घरवाले फिल्म देखने गए थे। दादा अब्बा के अलावा और कौन-कौन लोग फ़िल्म देखने नहीं गए थे, अब यह याद नहीं। ज़माना बीत गया, लेकिन फ़िल्म के नाम पर इस तरह के उत्सव का यह पहला मौक़ा था। सच तो यह है कि तब हम इसी तरह के मौक़े उत्सव-समारोहों के लिए ढूंढते थे। सालों बाद इसी तरह का जनून ‘जय संतोषी मां’ को लेकर दिखाई दिया था। तब पात्र बदल गए थे और चेहरे भी।
तब हमारे जीवन में छोटी-छोटी ख़ुशियां इतनी बिखरी पड़ीं थी कि सालगिरह जैसे मौक़े पर जमा होकर केक काटने या फिर मोमबत्तियां बुझा कर ‘हप्पी बर्थडे’ का गीत गाने की ज़रूरत भी कभी महसूस नहीं हुई। उन दिनों को याद करता हूं तो लगता है कि तब हर दिन ईद हुआ करती थी और हर शब, शबे-बारात। खुÞशियां ज्Þयादा थीं, एक-दूसरे के दुख-सुख में शामिल होने के मौक़े इतने थे कि इस तरह के बनावटी आयोजनों के लिए जीवन में न तो जगह थी और न ही ज़रूरत। धीरे-धीरे जीवन से ख़ुशियां निकलती गईं और हम ‘डेज़’ के बहाने ख़ुशियां बांटने के मौक़े तलाशते लगे। धीरे-धीरे ये ‘डे’ हमारी संस्कृति में इस तरह घुलते-मिलते गए कि हम इनमें ही ख़ुशियों के पल तलाशने लगे। बाज़ार ने इनमें सेंध लगा कर इसे घर-घर तक पहुंचाया और हम अब बर्थडे ही नहीं मडर्स डे, फ़ादर्स डे, वैलेंटाइन डे और इसी तरह के अल्लम-ग़ल्लम डे मनाने को अभिशप्त हो गए हैं। तकनीक ने इसे और विस्तार दिया। बाज़ार की पैठ दिन ब दिन इतने गहरी होती गई कि तरह-तरह की दुनिया हमारी दुनिया से जुड़ती गई। सालगिरह हर घर का हिस्सा बन गया। गिफ्Þट वसूले जाने लगे और फिर बाज़ार ने अपना खेल खेला और रिटर्न गिफ्Þट का सिलसिला चल निकला। इसी तरह की और दूसरी चीज़ें भी धीरे-धीरे ‘बर्थडे’ के नाम पर होने लगीं। अपना जन्मदिन तो कभी मनाया नहीं लेकिन बेटी का जन्मदिन मनाना सामाजिक तौर पर भी ज़रूरी हो गया। बेटी के साथ पढ़ने वाले जन्मदिन मनाते थे तो उसे भी मनाना ही था। उसके जन्मदिन से पहले कई तरह की माथापच्ची करनी पड़ती थी। उसके जन्मदिन के पांच दिन बाद मेरा जन्मदिन है लेकिन अपने लिए कभी नहीं सोचा। पत्नी का एक महीने पहले है, वह भी कभी परेशान नहीं हुई। लेकिन बेटी ही हम दोनों के जन्मदिन को लेकर भी परेशान रहती। अपनी उम्र के हिसाब से हम दोनों के लिए कुछ करने की कोशिश करती। यह उस नई पीढ़ी की सोच है, जिसके लिए बर्थडे उनकी संस्कृति का हिस्सा बन गया है। हमारे लिए तो आज भी यह कोई उत्सव नहीं है। इसलिए इस बार भी अपने जन्मदिन पर न तो किसी तरह के आयोजन की योजना थी और न ही ढोल-नगाड़े बजाने थे।
वैसे इस बार बेटी के जन्मदिन पर भी किसी तरह के आयोजन को हमने टालने का फैसला कर लिया था। बेटी ने यह ज़रूर कहा था कि उसे कुछ कपड़े ख़रीदने हैं, तो मैंने हामी भर ली थी। जन्मदिन से ठीक पहले उसकी परीक्षा थी, यह भी एक वजह थी कि इसबार उसके जन्मदिन को सादगी से मनाने का फैसला किया। मेरा भी देहरादून जाना नहीं हो पाया उस दिन तो फ़ोन पर ही बिटिया से बात की। उसे दुआएं दीं। लेकिन उसकी उदासी छुप नहीं सकी। तब मैंने उसे तसल्ली देते हुए कहा कि बेटा मैं आरहा हूं, अपना और तुम्हारे जन्मदिन का केक एकसाथ काटेंगे। पता नहीं बिटिया ख़ुश हुई या नहीं लेकिन अपना देहरादून जाने का कार्यक्रम तय हो गया था।
जन्मदिन से एक दिन पहले रात की ट्रेन से देहरादून के लिए रवाना हुआ। जन्मदिन पर पहला संदेश मोबाइल पर मनु का आया और इसके ठीक बाद सुंबुल ने फ़ोन किया। बेटी को मैंने बताया कि मैं ट्रेन में हूं और सुबह-सुबह देहरादून पहुंच जाऊंगा। उसे यह भी बताया कि उसके लिए मैं एक अच्छा सा तोहफ़ा लेकर आरहा हूं। वह ख़ुश हो गई। फ़ोन रखा ही था कि सौम्या का फ़ोन आ गया। सौम्या फ़ेसबुक पर बनी मेरी नई-नई दोस्त हैं। उन्होंने भी जन्मदिन की बधाई दी। कुछ दूसरी बातें भी उनके साथ हुईं।
नींद आरही थी इसलिए फिर मैंने फ़ोन को वाइब्रेशन पर डाल दिया। नींद खुली तो पता चला कि गाड़ी बस देहरादून पहुंचने ही वाली है। मुंह-हाथ धो कर फ़ोन देखा तो किसी की काल आई पड़ी थी। तब तक गाड़ी स्टेशन पर लग चुकी थी। ट्रेन से उतर कर मैंने उस नंबर पर फ़ोन किया। दूसरी तरफ़ शिरीन हया थीं। लखीमपुरी खीरी में वे कहीं रहती हैं। उन्होंने सालगिरह पर बधाई दी, आपना नाम बताया और कहा कि फ़ेसबुक पर वे मेरी दोस्त हैं। दुआ-सलाम के बाद फिर फ़ोन की बात कही और उनसे विदा ली। सुबह की शुरुआत इस तरह सालगिरह की बधाई से हुई थी। मोबाइळ पर ही कई एसएमएस भी इस बीच बधाई के आ चुके थे। तकनीक के इस युग में सामाजिक साइट फ़ेसबुक से जुड़े होने की वजह से पहली बार कुछ अनजान मित्रों के बधाई संदेश मिले तो अच्छा भी लगा।
घर पहुंच कर सफ़र की थकान मिटाने के बाद लैपटाप खोला तो अपने मेल बाक्स में फेसबुक के ज़रिए आए बधाई संदेशों को देख कर मैं अचंभे में पड़ गया। बड़ी तादाद में जाने-अनजाने मित्रों ने फ़ेसबुक पर जन्मदिन की बधाई दी थी। बधाई संदेश देखने के लिए मैं फ़ेसबुक खोला तो चैटिंग के ज़रिए कई लोगों ने बधाई देनी शुरू कर दी। इन बधाई संदेशों का जवाब देना मैंने ज़रूरी समझा और एक-एक कर सभों का शुक्रिया अदा किया। इस बीच नोएडा की एक मित्र ने मुझे बताया कि आपके फ़ेसबुक के वाल की सेटिंग्स में कुछ समस्या है इसे ठीक कर लें। अभी इस समस्या से जूझ ही रहा था कि दिल्ली से एक ज्योतिष पंडित सतवंत का फ़ोन आया। वही बधाई और बताया कि आपके वाल की सेटिंग्स ठीक नहीं होने की वजह से फ़ोन किया है। मुझे हैरत भी हुई और ख़ुशी भी। थोड़ी देर के बाद नेट से उठा तो बिटिया के साथ बाज़ार गया। हम दोनों ने तय किया कि एक छोटा सा केक लाया जाए और घर में ही हम उत्सव मनाएं। केक लेने के बाद कुछ मिठाइयां लीं, कुछ नमकीन लिए। बेटी ने कहा कि रात में अगर मुर्ग ज़ाफ़रानी बनाया जाए तो कैसा रहे। तब हमने बाज़ार से मुर्ग ख़रीदा और घर लौटे। यानी एक छोटे-मोटे उत्सव की तैयारी, जिसमें मैं, मनु और बेटी के अलावा सरूर शामिल हुए।
रात में फिर नेट पर बैठा तो जन्मदिन की बधाई देने वालों की भीड़ थी। उस पूरे दिन फ़ेसबुक पर क़रीब सात-आठ सौ मित्रों ने मुझे शुभकामनाएं दीं, अच्छा और बेहतर करने के लिए प्रेरित किया। जन्मदिन का यह मेरा पहला उत्सव रहा। इस उत्सव में मेरे सात-आठ सौ मित्रों ने शिरकत की। कुछ चीन्हे, कुछ अनचीन्हे। लेकिन सबने दिल खोल कर ख़ुशयिां लुटार्इं। मुझे अपने प्यार से सराबोर किया। जन्मदिन का यह पहला उत्सव इतना भव्य रहेगा, मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। उन तमाम मित्रों का आभार जिन्होंने मेरे जन्मदिन को यादगार बनाया और तकनीक की दुनिया का भी शुक्रिया, जिसकी वजह से देश के अलावा विदेशों से भी लोगों ने मेरे जन्मदिन पर शिरकत की। फेÞसबुक के मेरे मित्रों ने जो मोहब्बत मुझ पर लुटाया है, ज़िंदगी की अंधेरी, पुरख़तर और सुनसान राहों पर उससे मुझे रोशनी भी मिलेगी और कुछ बेहतर करने के लिए प्रेरणा भी। मोहब्बतों के इन संदेशों ने मेरी आंखें बी नम कीं और अंदर यह यकÞीन भी पुख़्ता हुआ कि इंसानी रिश्तों में जो पाकीज़गी और मिठास है, वह तब तक क़ायम रहेगी, जब तक दुनिया रहेगी। क्या मैं ग़लत कह रहा हूं।
Read More...

'' हिंदी ब्लॉगिंग '' विषय पर आपके आलेख आमंत्रित हैं


आपके आलेख आमंत्रित हैं
                                
''  हिंदी ब्लॉगिंग ''  पर  फरवरी २०१२ में मुंबई में आयोजित होने वाली राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए आप के आलेख सादर आमंत्रित हैं. इस संगोष्ठी में देश-विदेश के कई विद्वान सहभागी हो रहे हैं.
             आये हुये सभी स्‍तरीय  आलेखों को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करने क़ी योजना है. आपसे अनुरोध है कि आप अपने आलेख जल्द से जल्द भेजने का कष्‍ट करें.
         इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें --------------
 डॉ.मनीष कुमार मिश्रा
 के.एम. अग्रवाल कॉलेज
 पडघा रोड,गांधारी विलेज
 कल्याण-पश्चिम ,४२१३०१
 जिला-ठाणे
 महाराष्ट्र ,इण्डिया
 mailto:manishmuntazir@gmail.com
 wwww.onlinehindijournal.blogspot.कॉम
 ०९३२४७९०७२६
Read More...

भारत में भ्रष्टाचार -नरेन्द्र व्यास

दिनांक ५ जनवरी २०१० को दैनिक युगपक्ष में प्रकाशित आलेख

       जब हम छोटी कक्षाओं में हम पढते थे तो पेपर में देश की गंभीर समस्याओं पर कोई निबंध लिखना होता था जिसमे- प्रमुखतः बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, बाल विवाह, मेरा मेरा प्रिय नेता आदि होते थे। मगर वर्तमान में हालात बदल चुके हैं. भारत आज २१वीं सदी में पहुँच गया है। बहुत विकास हो चुका है। अगर आज ये पूछा जाए कि भारत ने सबसे महत्वपूर्ण तरक्की किस क्षेत्र में की है तो एक ही नाम ज़हन मे आता है- भ्रष्टाचार.।
वैसे भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास बहुत पुराना है। भारत की आजादी से पूर्व अंग्रेजों ने सुविधाएं पाप्त करने के लिए भारत के सम्पन्न लोगों को सुविधास्वरूप धन देना प्रारम्भ किया। राजे-रजवाडे और साहूकारों को धन देकर उनसे वे सब पाप्त कर लेते थे जो उन्हे चाहिए था। अंग्रेज भारत के रईसों को धन देकर अपने ही देश के साथ गद्दारी करने के लिए कहा करते थे और ये रईस ऐसा ही करते है। यह भ्रष्टाचार वहीं से प्रारम्भ हुआ और तब से आज तक लगातार चलते हुए फल फूल रहा है।
       बाबरनामा में भी उल्लेख मिलता है कि किस तरह चंद मुट्ठीभर आक्रान्ताओं ने भारत की हालात किस तरह बिगाड दी। जबकि सडकों पर लाखों की संख्या में मौजूद जनसमूह अगर उन आक्रान्ताओं पर टूट पडता तो शायद आज ये हालात भी नहीं होते। किस तरह ५०००० सिपाहियों की भारतीय फौज को अंग्रेजों की मात्र ३००० की फौज ने प्लासी की लडाई में मात दे दी परिणामस्वरूप भारत को गुलामी की जंजीरों में कैद होना पडा। जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर आक्रमण किया तो खिलजी की सौ से भी कम सिपाहियों की फौज ने नालंदा के दस हजार से अधिक भिक्षुओं को भागने पर मजबूर कर दिया और नालंदा का विश्वपसिद्घ पुस्तकालय वर्षों तक सुलगता रहा। इन सबका मूल कारण था- भ्रष्टाचार.। चंद सोने या चांदी के खनकते टुकडों की एवज में ईमान बेचा गया। बडे दुर्भाग्य की बात है कि तब से लेकर लोकतंत्र के गठन तक और तब से अब तक हर वर्ष विकास के आंकडे बनाये जाते हैं, बडे गौरव के साथ कहा जाता है कि भारत अब २१वीं सदी में सफर कर रहा है। मगर देखा जाए तो सिर्फ व्यवस्थाओं और आंकडों में ही परिवर्तन हुवा है। हाँ, ये बात और है कि अब भ्रष्टाचार का आंकडा कुछ ज्यादा ही काबलियत के साथ अपना प्रथम स्थान बना चुका है। हालाँकि बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं नहीं बदला तो भ्रष्टाचार का आचरण। अब तो ये जनता जनार्दन की रग-रग में घर चुका है। जरा से काम के लिए रिश्वत देने की परंपरा को अब गलत नहीं समझा जाता।
       हमारे यहाँ संविधान के ७३वें और ७४वें संशोधन के माध्यम से शक्तियों का ही विकेंद्रीकरण नहीं किया गया बल्कि बडे ही धूमधाम से भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण किया गया। अगर कोई पश्चिमी देश होता तो भ्रष्टाचार का मामला उजागर होते ही राजनेताओं का राजनैतिक जीवन ही समाप्त हो जाता लेकिन हमारे यहाँ राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत ही भ्रष्टाचार से करते हैं। पहले उल्टे-सीधे किसी भी तरीके से टिकट और वोट खरीदने लायक पैसा जमा किया जाता है,  करोडों रुपये देकर टिकिट खरीदा जाता है। ऐसा नहीं है कि इन सबका चुनाव आयोग को पता नहीं होता पर, पर सब चलता है. टिकिट वितरण में आजकल तिलक जैसी स्वराज्य की भावना, मालवीय जैसा राष्ट्र और राष्ट्रभाषा प्रेम, शास्त्रीजी जैसा त्याग आदि नहीं देखे जाते बल्कि देखा जाता है तो सिर्फ धनबल और भुजबल, जो अपनी पार्टी की सीट निकाल सके चाहे किसी भी तरीके से। अब इतना धन देकर टिकेट खरीदा है तो वसूली तो करनी ही है। नतीजतन कभी कफन घोटाला, कभी चारा-भूसा घोटाला, कभी दवा घोटाला, कभी ताबूत घोटाला तो कभी खाद घोटाला। ये सारे भ्रष्टाचार के एक उदाहरण मात्र हैं। हजारों करोड रुपये के २जी स्पेक्ट्रम जैसे घोटालों और भ्रष्टाचार के कॉमन वेल्थ ने दुनिया में भारत की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इंडोएशियन न्यूज सर्विस बर्लिनके अनुसार भ्रष्टाचार के मामले में भारत ने साल भर में काफी तरक्की कर ली है। ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष २०१० के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत ८७वें स्थान पर पहुंच गया है। जबकि २००९ में वह ८४वें स्थान पर था। हालांकि पाकिस्तान से हमारे आंकडे काफी सुखद है, यही उपलब्लि क्या कम है?
       कभी अपने वैदिक चिंतन, सदाचार और सम्पूर्ण विश्व का गुरु कहलाने वाले भारत की पहचान आज भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है। शर्म, हया, सद्चरित तो जैसे पिछडेपन की पहचान बन चुका है और भ्रष्टाचार एक उच्च जीवन शैली का पतीक. कैसी विडंबना है।

**
-नरेन्द्र व्यास
Read More...

साहित्‍य शिल्‍पी वार्षिकोत्‍सव एवं नुक्‍कड़ ब्‍लॉगर स्‍नेह महासम्‍मेलन फरीदाबाद

आज फरीदाबाद में ब्‍लॉगर स्‍नेह महासम्‍मेलन में स्‍नेह का रस खूब मूसलाधार बरसा।
सभी ब्‍लॉगर की लेखनी से उनके ब्‍लॉग पर स्‍नेह के निर्झर से आप भी आनंदित होइयेगा।
कल से चालू होगा ये सिलसिला।

और पहचानिए नीचे दी गई सूची में कौन ब्‍लॉगर हैं, जिनके ब्‍लॉग हैं और कौन कवि, जिनके ब्‍लॉग नहीं हैं , कौन हैं जो कवि भी हैं और जिनके ब्‍लॉग भी हैं और शेष के बारे में भी आप ही बतलायें

सर्व/श्री प्रेम जनमेजय, मुख्‍य अतिथि (प्रेम जनमेजय)
1. हल्‍द्वानी से सुश्री शेफाली पांडेय
(कुमाऊंनी चेली और मास्‍टरनी नामा)
2. लखनऊ से अमन दलाल
3. मेरठ से इरशाद अली
4. विनीत कुमार (गाहे बगाहे और टी वी प्‍लस)
5. पुष्‍कर पुष्‍प (मीडिया मंत्र)
6. सुरेश यादव (सार्थक सृजन)
7. अजय कुमार झा (झा जी कहिन)
8. खुशदीप सहगल (देशनामा) यहां पर क्लिक करके सबसे पहली रिपोर्ट पढ़ें
9. सुलभ सतरंगी
10. राजीव तनेजा
11. संजू तनेजा
12. विनोद कुमार पांडेय ( मुस्‍कराते पल कुछ सच कुछ सपने)
13. फरीदाबाद से नमिता राकेश
14. पवन चंदन (चौखट)
15. राजीव रंजन प्रसाद
16. योगेश समदर्शी
17. शोभा महेन्‍द्रू
18. अजय यादव
19. अभिषेक सागर
20. पानीपत से योगेन्‍द्र मौद्गिल
21. दिनेश रघुवंशी
22. सुनीता चोटिया
23. वीरेन्‍द्र कंवर
24. वीकेश बेनीवाल
25. अनिल बेताब
26. डॉ. वेद व्‍यथित
27. अब्‍दुल रहमान मंसूर
28. बागी चाचा
29. तन्‍हा सागर
30. मोहिन्‍दर कुमार
31. दीपक गुप्‍ता
32. हल्‍द्वानी से क्षिप्रा पांडेय
33. रितु रंजन
34. मीनाक्षी जिजीविषा
Read More...

अभिव्यक्ति की निरंकुशता

जब अनभिव्यक्ति मन को तृषित करने लगे तो चीखने का मन करता है, हर उस सलीब के लिये जिसने अभिव्यक्ति का दम घोंटा। मैं सोचता हूं कितना असर है अभिव्यक्ति का हमारे मन पर, हमारे प्राणों पर। इसका असर प्राणों पर ऐसे ही है जैसे मनुष्य का दर्पण पर । दर्पण को हारकर हमारा प्रतिबिम्ब देना ही पड़ता है ।

बहुत पहले मनुष्य की अभिव्यक्ति पर पहरे थे। विश्वभर में इस पहरेदारी के विरुद्ध हमने क्रांतियां कीं । पश्चिम से शुरु हुई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत पूर्व में भी छा गयी। हर एक संविधान तक में, हमारे सविधान में भी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार व्याप्त कर दिये गये । हर जगह कहा जाने लगा वह सब कुछ, जो मन में आया । इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने शब्दों को नवीन गति, नयी तीव्रता दी ।

पर हमने खयाल नहीं किया कि धीरे-धीरे यही स्वतंत्रता निरंकुश हो गयी । पश्चिम में तो बहुत पहले, कुछ वर्षों से हमारे देश में भी । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर क्या-क्या नहीं हुआ ? बोलने की आजादी ने मर्यादाओं का शील भंग कर दिया, समाज का संस्कार ठुकरा दिया गया । न जाने कितने वादों, न जाने कितनी मुक्तियों और न जाने कितने आन्दोलनों के नाम हो गया यह अभिव्यक्ति का स्वातंत्र्य । याद क्या करें - क्या-क्या करें - नारी देह की छद्म अभिव्यक्ति, देवी-देवताओं के नग्न चित्र, वर्जनाओं को अभिव्यक्ति देती फ़िल्में, मनुवाद की शब्दावली से उपजी महापुरुषों के लिये असंयत वाणी …………?

पश्चिम की अन्तश्चेतना मन को नहीं जानती, प्राण को भी नहीं जानती, इसलिये वहां अभिव्यक्ति निरंकुश हो जाय तो आश्चर्य क्या ? पश्चिम हर क्रिया कि प्रतिक्रिया देता है, हर दोषारोपण की काट करता है, हर झूठ का स्पष्टीकरण देता है । उसे लगता है झूठ साफ़ हो जायेगा । ईराक, अफ़गानिस्तान पर हमलों के पीछे छिपा झूठ और अभिव्यक्ति का सच क्या हमने नहीं देखा? पश्चिम समझता है कि झूठ के पैर नहीं होते। सच है, पर झूठ के पास वीर्य होता है, उसे समझना चाहिये । इस वीर्य से प्राण गर्भित हो जाता है और झूठ प्राणवंत।

अभिव्यक्ति, वाणी जब निरंकुश हो जाती है तो वह सारे संयम तोड़कर जनसाधारण के प्राणों से बलात्कार करती है।
"प्राण एक निर्वस्त्र, असहाय कुमारी की तरह है । वाणी पुरुषों का हुजूम है जिन्हें प्रजातंत्र में इजाजत है, जो चाहे बर्ताव प्राणों से करें। वे प्राण-कुमारी से बलात्कार करते हैं, और प्राण रोज उसके शब्दों से गर्भित होते हैं और उसी के बच्चे पैदा करते हैं जिनमें तानाकशी और झूठ तो वाणी का होता है और सारा बदन प्राणों का।" ('निर्मल कुमार' की पुस्तक "ॠत : साइकोलोजी बियांड फ़्रायड' के एक अंश से उद्धृत)

इसलिये केवल अभिव्यक्ति, केवल बोलना सत्य नहीं रच सकता। अकेला तो प्राण भी सत्य नहीं रच सकता। जो सत्य है वह इसी प्राण और अभिव्यक्ति के संसर्ग से जन्म लेता है।
Read More...
 
Copyright (c) 2009-2012. नुक्कड़ All Rights Reserved | Managed by: Shah Nawaz