दिनांक ५ जनवरी २०१० को दैनिक युगपक्ष में प्रकाशित आलेख
जब हम छोटी कक्षाओं में हम पढते थे तो पेपर में देश की गंभीर समस्याओं पर कोई निबंध लिखना होता था जिसमे- प्रमुखतः बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, बाल विवाह, मेरा मेरा प्रिय नेता आदि होते थे। मगर वर्तमान में हालात बदल चुके हैं. भारत आज २१वीं सदी में पहुँच गया है। बहुत विकास हो चुका है। अगर आज ये पूछा जाए कि भारत ने सबसे महत्वपूर्ण तरक्की किस क्षेत्र में की है तो एक ही नाम ज़हन मे आता है- भ्रष्टाचार.।
वैसे भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास बहुत पुराना है। भारत की आजादी से पूर्व अंग्रेजों ने सुविधाएं पाप्त करने के लिए भारत के सम्पन्न लोगों को सुविधास्वरूप धन देना प्रारम्भ किया। राजे-रजवाडे और साहूकारों को धन देकर उनसे वे सब पाप्त कर लेते थे जो उन्हे चाहिए था। अंग्रेज भारत के रईसों को धन देकर अपने ही देश के साथ गद्दारी करने के लिए कहा करते थे और ये रईस ऐसा ही करते है। यह भ्रष्टाचार वहीं से प्रारम्भ हुआ और तब से आज तक लगातार चलते हुए फल फूल रहा है।
बाबरनामा में भी उल्लेख मिलता है कि किस तरह चंद मुट्ठीभर आक्रान्ताओं ने भारत की हालात किस तरह बिगाड दी। जबकि सडकों पर लाखों की संख्या में मौजूद जनसमूह अगर उन आक्रान्ताओं पर टूट पडता तो शायद आज ये हालात भी नहीं होते। किस तरह ५०००० सिपाहियों की भारतीय फौज को अंग्रेजों की मात्र ३००० की फौज ने प्लासी की लडाई में मात दे दी परिणामस्वरूप भारत को गुलामी की जंजीरों में कैद होना पडा। जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर आक्रमण किया तो खिलजी की सौ से भी कम सिपाहियों की फौज ने नालंदा के दस हजार से अधिक भिक्षुओं को भागने पर मजबूर कर दिया और नालंदा का विश्वपसिद्घ पुस्तकालय वर्षों तक सुलगता रहा। इन सबका मूल कारण था- भ्रष्टाचार.। चंद सोने या चांदी के खनकते टुकडों की एवज में ईमान बेचा गया। बडे दुर्भाग्य की बात है कि तब से लेकर लोकतंत्र के गठन तक और तब से अब तक हर वर्ष विकास के आंकडे बनाये जाते हैं, बडे गौरव के साथ कहा जाता है कि भारत अब २१वीं सदी में सफर कर रहा है। मगर देखा जाए तो सिर्फ व्यवस्थाओं और आंकडों में ही परिवर्तन हुवा है। हाँ, ये बात और है कि अब भ्रष्टाचार का आंकडा कुछ ज्यादा ही काबलियत के साथ अपना प्रथम स्थान बना चुका है। हालाँकि बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं नहीं बदला तो भ्रष्टाचार का आचरण। अब तो ये जनता जनार्दन की रग-रग में घर चुका है। जरा से काम के लिए रिश्वत देने की परंपरा को अब गलत नहीं समझा जाता।
हमारे यहाँ संविधान के ७३वें और ७४वें संशोधन के माध्यम से शक्तियों का ही विकेंद्रीकरण नहीं किया गया बल्कि बडे ही धूमधाम से भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण किया गया। अगर कोई पश्चिमी देश होता तो भ्रष्टाचार का मामला उजागर होते ही राजनेताओं का राजनैतिक जीवन ही समाप्त हो जाता लेकिन हमारे यहाँ राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत ही भ्रष्टाचार से करते हैं। पहले उल्टे-सीधे किसी भी तरीके से टिकट और वोट खरीदने लायक पैसा जमा किया जाता है, करोडों रुपये देकर टिकिट खरीदा जाता है। ऐसा नहीं है कि इन सबका चुनाव आयोग को पता नहीं होता पर, पर सब चलता है. टिकिट वितरण में आजकल तिलक जैसी स्वराज्य की भावना, मालवीय जैसा राष्ट्र और राष्ट्रभाषा प्रेम, शास्त्रीजी जैसा त्याग आदि नहीं देखे जाते बल्कि देखा जाता है तो सिर्फ धनबल और भुजबल, जो अपनी पार्टी की सीट निकाल सके चाहे किसी भी तरीके से। अब इतना धन देकर टिकेट खरीदा है तो वसूली तो करनी ही है। नतीजतन कभी कफन घोटाला, कभी चारा-भूसा घोटाला, कभी दवा घोटाला, कभी ताबूत घोटाला तो कभी खाद घोटाला। ये सारे भ्रष्टाचार के एक उदाहरण मात्र हैं। हजारों करोड रुपये के २जी स्पेक्ट्रम जैसे घोटालों और भ्रष्टाचार के कॉमन वेल्थ ने दुनिया में भारत की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इंडोएशियन न्यूज सर्विस बर्लिनके अनुसार भ्रष्टाचार के मामले में भारत ने साल भर में काफी तरक्की कर ली है। ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष २०१० के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत ८७वें स्थान पर पहुंच गया है। जबकि २००९ में वह ८४वें स्थान पर था। हालांकि पाकिस्तान से हमारे आंकडे काफी सुखद है, यही उपलब्लि क्या कम है?
कभी अपने वैदिक चिंतन, सदाचार और सम्पूर्ण विश्व का गुरु कहलाने वाले भारत की पहचान आज भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है। शर्म, हया, सद्चरित तो जैसे पिछडेपन की पहचान बन चुका है और भ्रष्टाचार एक उच्च जीवन शैली का पतीक. कैसी विडंबना है।
वैसे भारत में भ्रष्टाचार का इतिहास बहुत पुराना है। भारत की आजादी से पूर्व अंग्रेजों ने सुविधाएं पाप्त करने के लिए भारत के सम्पन्न लोगों को सुविधास्वरूप धन देना प्रारम्भ किया। राजे-रजवाडे और साहूकारों को धन देकर उनसे वे सब पाप्त कर लेते थे जो उन्हे चाहिए था। अंग्रेज भारत के रईसों को धन देकर अपने ही देश के साथ गद्दारी करने के लिए कहा करते थे और ये रईस ऐसा ही करते है। यह भ्रष्टाचार वहीं से प्रारम्भ हुआ और तब से आज तक लगातार चलते हुए फल फूल रहा है।
बाबरनामा में भी उल्लेख मिलता है कि किस तरह चंद मुट्ठीभर आक्रान्ताओं ने भारत की हालात किस तरह बिगाड दी। जबकि सडकों पर लाखों की संख्या में मौजूद जनसमूह अगर उन आक्रान्ताओं पर टूट पडता तो शायद आज ये हालात भी नहीं होते। किस तरह ५०००० सिपाहियों की भारतीय फौज को अंग्रेजों की मात्र ३००० की फौज ने प्लासी की लडाई में मात दे दी परिणामस्वरूप भारत को गुलामी की जंजीरों में कैद होना पडा। जब बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर आक्रमण किया तो खिलजी की सौ से भी कम सिपाहियों की फौज ने नालंदा के दस हजार से अधिक भिक्षुओं को भागने पर मजबूर कर दिया और नालंदा का विश्वपसिद्घ पुस्तकालय वर्षों तक सुलगता रहा। इन सबका मूल कारण था- भ्रष्टाचार.। चंद सोने या चांदी के खनकते टुकडों की एवज में ईमान बेचा गया। बडे दुर्भाग्य की बात है कि तब से लेकर लोकतंत्र के गठन तक और तब से अब तक हर वर्ष विकास के आंकडे बनाये जाते हैं, बडे गौरव के साथ कहा जाता है कि भारत अब २१वीं सदी में सफर कर रहा है। मगर देखा जाए तो सिर्फ व्यवस्थाओं और आंकडों में ही परिवर्तन हुवा है। हाँ, ये बात और है कि अब भ्रष्टाचार का आंकडा कुछ ज्यादा ही काबलियत के साथ अपना प्रथम स्थान बना चुका है। हालाँकि बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं नहीं बदला तो भ्रष्टाचार का आचरण। अब तो ये जनता जनार्दन की रग-रग में घर चुका है। जरा से काम के लिए रिश्वत देने की परंपरा को अब गलत नहीं समझा जाता।
हमारे यहाँ संविधान के ७३वें और ७४वें संशोधन के माध्यम से शक्तियों का ही विकेंद्रीकरण नहीं किया गया बल्कि बडे ही धूमधाम से भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण किया गया। अगर कोई पश्चिमी देश होता तो भ्रष्टाचार का मामला उजागर होते ही राजनेताओं का राजनैतिक जीवन ही समाप्त हो जाता लेकिन हमारे यहाँ राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत ही भ्रष्टाचार से करते हैं। पहले उल्टे-सीधे किसी भी तरीके से टिकट और वोट खरीदने लायक पैसा जमा किया जाता है, करोडों रुपये देकर टिकिट खरीदा जाता है। ऐसा नहीं है कि इन सबका चुनाव आयोग को पता नहीं होता पर, पर सब चलता है. टिकिट वितरण में आजकल तिलक जैसी स्वराज्य की भावना, मालवीय जैसा राष्ट्र और राष्ट्रभाषा प्रेम, शास्त्रीजी जैसा त्याग आदि नहीं देखे जाते बल्कि देखा जाता है तो सिर्फ धनबल और भुजबल, जो अपनी पार्टी की सीट निकाल सके चाहे किसी भी तरीके से। अब इतना धन देकर टिकेट खरीदा है तो वसूली तो करनी ही है। नतीजतन कभी कफन घोटाला, कभी चारा-भूसा घोटाला, कभी दवा घोटाला, कभी ताबूत घोटाला तो कभी खाद घोटाला। ये सारे भ्रष्टाचार के एक उदाहरण मात्र हैं। हजारों करोड रुपये के २जी स्पेक्ट्रम जैसे घोटालों और भ्रष्टाचार के कॉमन वेल्थ ने दुनिया में भारत की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इंडोएशियन न्यूज सर्विस बर्लिनके अनुसार भ्रष्टाचार के मामले में भारत ने साल भर में काफी तरक्की कर ली है। ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष २०१० के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत ८७वें स्थान पर पहुंच गया है। जबकि २००९ में वह ८४वें स्थान पर था। हालांकि पाकिस्तान से हमारे आंकडे काफी सुखद है, यही उपलब्लि क्या कम है?
कभी अपने वैदिक चिंतन, सदाचार और सम्पूर्ण विश्व का गुरु कहलाने वाले भारत की पहचान आज भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है। शर्म, हया, सद्चरित तो जैसे पिछडेपन की पहचान बन चुका है और भ्रष्टाचार एक उच्च जीवन शैली का पतीक. कैसी विडंबना है।
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-नरेन्द्र व्यास
bahut sahee likha hai aapne ... agar log satark rahen to bhrashtaachaar se nipata ja sakata hai
जवाब देंहटाएं... behatreen !!
जवाब देंहटाएंनरेन्द्र जी मैं 1972 में जब दसवीं कक्षा में था तब भ्रष्टाचार पर निबंध लिखा था।
जवाब देंहटाएंachchha vishy chuna hai
जवाब देंहटाएंbdhai
aap ko ek mail preshit kr rha hoon jis me soniya ke bain khate ka jikr hai
सही कहा आपने राजेश जी ! उस वक्त तो हम पैदा भी नहीं हुवे थे. जैसा कि इंगित है कि भ्रष्टाचार तो अंग्रेजों के समय से ही शुरू हो चुका था. एक सर्वे के अनुसार वर्तमान में भारत में सबसे अधिक चर्चा भ्रष्टाचार पर और पाकिस्तान में सबसे अधिक चर्चा आतंकवाद पर होती है. फिर भी दोनों ही देशों में उक्त समस्याएं फलफूल रही है..! दूसरा अभी तो गति भ्रष्टाचार के ग्राफ की बढ़ी है उस वक्त नहीं रही होगी. यही तो विडम्बना है.
जवाब देंहटाएंभ्रष्टाचार!
जवाब देंहटाएंकलियुग का आचार!
sach kaha bhrashtaachaar aur ghotaala hamaari jivan shaily mein samaahit ho chuka hai, charchaayen to tamaam hoti aur sabhi isase trast hain par nidaan koi nahin nikalta. achha aalekh shubhkaamnaayen narendra ji.
जवाब देंहटाएंमैंने लिखा था - अगर मैं नेता होता... !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आलेखन हैं | बधाई |
नरेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएं:) :) :) पहले मैं एक छात्र-रूप में निबन्ध लिखता था...और अब अध्यापक-रूप में निबन्ध लिखना सिखा रहा हूँ...अपने छात्रों को! साथ ही साहित्य के विद्यार्थी के रूप में निबन्ध लेखन की कला सीख भी रहा हूँ!
आपको इस अच्छे निबन्ध पर बधाई!