बहुत पहले मनुष्य की अभिव्यक्ति पर पहरे थे। विश्वभर में इस पहरेदारी के विरुद्ध हमने क्रांतियां कीं । पश्चिम से शुरु हुई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत पूर्व में भी छा गयी। हर एक संविधान तक में, हमारे सविधान में भी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार व्याप्त कर दिये गये । हर जगह कहा जाने लगा वह सब कुछ, जो मन में आया । इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने शब्दों को नवीन गति, नयी तीव्रता दी ।
पर हमने खयाल नहीं किया कि धीरे-धीरे यही स्वतंत्रता निरंकुश हो गयी । पश्चिम में तो बहुत पहले, कुछ वर्षों से हमारे देश में भी । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर क्या-क्या नहीं हुआ ? बोलने की आजादी ने मर्यादाओं का शील भंग कर दिया, समाज का संस्कार ठुकरा दिया गया । न जाने कितने वादों, न जाने कितनी मुक्तियों और न जाने कितने आन्दोलनों के नाम हो गया यह अभिव्यक्ति का स्वातंत्र्य । याद क्या करें - क्या-क्या करें - नारी देह की छद्म अभिव्यक्ति, देवी-देवताओं के नग्न चित्र, वर्जनाओं को अभिव्यक्ति देती फ़िल्में, मनुवाद की शब्दावली से उपजी महापुरुषों के लिये असंयत वाणी …………?
पश्चिम की अन्तश्चेतना मन को नहीं जानती, प्राण को भी नहीं जानती, इसलिये वहां अभिव्यक्ति निरंकुश हो जाय तो आश्चर्य क्या ? पश्चिम हर क्रिया कि प्रतिक्रिया देता है, हर दोषारोपण की काट करता है, हर झूठ का स्पष्टीकरण देता है । उसे लगता है झूठ साफ़ हो जायेगा । ईराक, अफ़गानिस्तान पर हमलों के पीछे छिपा झूठ और अभिव्यक्ति का सच क्या हमने नहीं देखा? पश्चिम समझता है कि झूठ के पैर नहीं होते। सच है, पर झूठ के पास वीर्य होता है, उसे समझना चाहिये । इस वीर्य से प्राण गर्भित हो जाता है और झूठ प्राणवंत।
अभिव्यक्ति, वाणी जब निरंकुश हो जाती है तो वह सारे संयम तोड़कर जनसाधारण के प्राणों से बलात्कार करती है।
"प्राण एक निर्वस्त्र, असहाय कुमारी की तरह है । वाणी पुरुषों का हुजूम है जिन्हें प्रजातंत्र में इजाजत है, जो चाहे बर्ताव प्राणों से करें। वे प्राण-कुमारी से बलात्कार करते हैं, और प्राण रोज उसके शब्दों से गर्भित होते हैं और उसी के बच्चे पैदा करते हैं जिनमें तानाकशी और झूठ तो वाणी का होता है और सारा बदन प्राणों का।" ('निर्मल कुमार' की पुस्तक "ॠत : साइकोलोजी बियांड फ़्रायड' के एक अंश से उद्धृत)
इसलिये केवल अभिव्यक्ति, केवल बोलना सत्य नहीं रच सकता। अकेला तो प्राण भी सत्य नहीं रच सकता। जो सत्य है वह इसी प्राण और अभिव्यक्ति के संसर्ग से जन्म लेता है।
इसलिये केवल अभिव्यक्ति, केवल बोलना सत्य नहीं रच सकता। अकेला तो प्राण भी सत्य नहीं रच सकता। जो सत्य है वह इसी प्राण और अभिव्यक्ति के संसर्ग से जन्म लेता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहना है आपका।
Apkey es sach ko sabdo ka jaal bunkar nakara nahi ja sakta. acha alekh dene key ley dil sey dhaneyvad.
जवाब देंहटाएंनिरंकुश स्वतंत्रता तो हर हाल में तकलीफदेह ही सिद्ध होती है चाहे वह अभिव्यक्ति की ही क्यूँ न हो - न सिर्फ पश्चिम में बल्कि सब ओर.
जवाब देंहटाएंयह सही कहा कि जो सत्य है वह इसी प्राण और अभिव्यक्ति के संसर्ग से जन्म लेता है।
अच्छा चिन्तन!!
अभिव्यक्ति की आजादी का जितना दुरुपयोग आज हो रहा है पहले कभी नहीं हुआ।
जवाब देंहटाएंआलेख बहुत ही सारर्गभित है कुछ सोचने के लिये मजबूर करता है बधाई
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