कविता में छंद-वापसी पर बहसें कितनी समकालीन और उपयोगी होगी ?


इधर छंद को लेकर 'साहित्यशिल्पी' में महावीर शर्मा जी की एक छंदयुक्त कविता पर दी गयी टिप्पणी के आलोक में एक बहस सी चल पड़ी थी। कुछ समय पहले जयपुर की सुप्रतिष्ठित पत्रिका 'कृतिओर' में भी इस विषय पर लंबी बहस चली थी। कहने का मतलब कि छंद पर बहसें बराबर चल रही हैं। दरअसल यह बहस कम होती है और लोगों को अपने पक्ष में करने का उद्योग अधिक। कुछ छंदों की ओर लौटने की बात करते हैं तो कुछ आगे बढ़ने की। पर इस तरह की बहसों में विवाद ही अधिक होता है, संवाद कम क्योंकि सहमतियाँ बन नहीं पाती।


वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी का मत है कि "कविता में छंद नहीं लय प्रमुख है। छंद उसकी एक प्रजाति है। लय का रिश्ता शिल्प के उपरी ढाँचे से न होकर कविता की अंतर्वस्तु में व्याप्त हमारी मानवीय निजता एवं प्राण-शक्ति से भी है।"


प्रखर समालोचक डा.जीवन सिंह का मानना है कि "लय का सबंध कविता के रूप-विधान से है जो कविता के लिये प्रयुक्त वाक्यों, वाक्यांशों और शब्दों का एक प्रवाहमयी संयोजन करके पैदा की जाती है।...कविता में जिसे हम गद्यात्मकता कह रहे हैं वह कविता में सरसता और भावपरायणता का ह्रास है। दरअसल बौद्धिकता के ज्वार में हमने कविता में सरसता और भावपरायणता को इतना दरकिनार कर दिया है कि ये बातें कविता के लिये अछूत जैसी बना दी गयी है।..हमारे यहाँ गद्य साहित्य की रचना जितनी पश्चिमी प्रभाव में हुई, उतनी कविता में नहीं। इसका सीधा सा कारण है हमारे यहाँ कविता की सुदीर्घ और समृद्ध परम्परा का होना। उसकी अनदेखी कर जो रचना होगी वह नई और आधुनिक तो अवश्य होगी परन्तु आत्मिक स्तर पर उतनी समृद्ध और पूर्ण नहीं होगी। इस वजह से कभी हम कविता में छंद का सवाल उठाते हैं तो कभी लय का। यह दुविधा है। जब हमने छंद से मुक्ति लेकर मुक्त छंद को अपना लिया है तो फिर बजाय मुक्तिछंद के वैशिष्ट्य और विविधता को सम्पन्न करने के, हम छंद वापसी की बातें करने लगे। मान लीजिये छंद की वापसी हो भी गयी तो फिर दोहा छंद होगा या चौपाई होगी, मात्रिक छंद होंगे या वार्णिक या आल्हा का वीर छंद होगा या रीतिकालीन कवित्त और सवैये। कहा जा सकता है कि यह कुछ भी होगा तो अभी से कल्पना कीजिए कि बौद्धिक पिछड़ेपन और अग्रगामिता का कैसा वातावरण बनेगा? इससे गद्यात्मकता का क्षरण तो हो ही जायेगा लेकिन छंद का जो रीतिवाद और रूढ़वाद पैदा होगा, उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। यह वैसे ही है जैसे आज कोई लोकतान्त्रिक व्यवस्था के जातिवाद, सम्प्रदायवाद, पूँजीवाद, बाहुबलवाद, आदि विकृतियों से परेशान होकर यह कहने लगे कि इससे तो राजाओं का राज, अँग्रेजी राज और सैनिक तानाशाही ही अच्छी। स्वाद बदलने के लिये या प्रयोग के लिये छंद में लिख लेना अलग बात है लेकिन अपने समय की जटिलता को व्यक्त करने के लिये छंद का लौटना शायद ही गुणकारी हो। यह सभ्यता के विभिन्न चरणों का सवाल है, न कि अकेले छंद का। हम जैसे अपनी वेश-भूषा को विशेष समारोहों पर धारण कर प्रसन्न हो लेते हैं। लेकिन सामान्यतया मध्यवर्ग की वेश-भूषा अब पैंट-शर्ट हो चुकी है। उसी तरह छंद की बात है। हम जहाँ तक आ चुके हैं उससे पीछे लौटना, मेरी राय में न उचित है और मुश्किल काम तो यह है ही।"


- समालोचक डा. जीवन सिंह ने कविता के छंद-वापसी पर अपने ये विचार श्री महेश पुनेठा द्वारा लिये गये उस साक्षात्कार के दौरान प्रकट किये हैं जो देहरादून की सुपरिचित मासिक प्रिंट पत्रिका 'लोकगंगा' के नवम्बर, 2007 अंक में पृष्ठ 29 पर छपी थी। अत: समकालीनता को वापस घसीटकर उल्टी दिशा में नहीं ले जाया जा सकता। छंद की ओर लौटने का मतलब है समय का भूतकाल में लौटना, परम्पराओं का अपने उसी समय में वापस होना । जैसे नदी का प्रवाह उलट नहीं सकता ठीक वैसे ही कविता का वर्तमान अपने पीछे नहीं लौट सकता। गीत की जगह भी नवगीत अब लिखे जाने लगे हैं। वस्तुत: कविता में विचार-बोध की जगह भावबोध की दरकार है। इसलिये छंद की जगह अगर लय की बात करें, कविता में भावप्रवणता कैसे पैदा की जाय इसकी चिंता हो, तो बहस सार्थक दिशा में आगे बढ़ सकती है।


नुक्कड़ के लेखक-कवि-पाठक गण , आपसे अनुरोध होगा कि इस बहस में भाग लें और अपनी बहुमूल्य राय यहाँ कमेन्ट बॉक्स में जाकर दें ताकि यह बहस सार्थक दिशा में संवाद का रूप ग्रहण कर आगे बढ़ सके। - सुशील कुमार (sk.dumka@gmail.com)

9 टिप्‍पणियां:

  1. छन्द कहीं नहीं गया था ,जो वापस आ गया हो । हाँ इतना ज़रूर हुआ है कि छन्दहीनता (छन्दमुक्तता नहीं)ने हिन्दी पाठकों के मन में कविता के प्रति वितृष्णा भर दी है ।स्थापित कवि अपनी घटिया कविता(बकवास कहना ज़्यादा सार्थक होगा)से कविता के सही पाठकों को दूर खदेड़ने का काम कर रहे हैं। नई दुनिया की 18 जनवरी की पत्रिका देख लीजिए ।इस अंक में अरुण कमल जी की एक अच्छी कविता 'इच्छा थी' देखी जा सकती है ।इसी पृष्ठ पर दूसरी कविता ? 'आराम कुर्सी' भी है ,जिसे पढ़कर लगता है कि कवि के पास लिखने के लिए कुछ नहीं बचा है। अरुण कमल की ज़गह कोई और नाम होता तो कविता र्द्दी की टिकरी में मिलती । पाठ्यक्रम में भी इस तरह की कविताएँ बहुत मिल जाएँगी ;जिन्होंने कविता के पाठकों को बहुत दूर कर दिया है । अच्छी कविता में लय स्वत: आती है, चाहे वह छन्दयुक्त हो चाहे छन्दमुक्त ।छन्द के नाम पर भी तुक्कड़ कवि बहुत कुछ ईंट-पत्थर पाठकों के सिर पर पटकते रहते हैं। बेहूदा लिखने वालों ने प्रकाशकों को भी इसीलिए कविता की पुस्तकों के प्रकाशन से डरा दिया है । आज भी उतम रचनाकारों की कमी नहीं ;पर उन्हें उनके अनुरूप स्थान नहीं मिल पाता है ।
    रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
    rdkamboj@gmail.com

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  2. भाई सुशील जी से सहमत तो हूँ कि आज कि जटिलतायें केवल मुक्तछन्द मे ही बेहतर व्यक्त की जा सकती है।
    लेकिन गीत/ग़ज़ल को भी नकारा नही जाना चाहिये।उनकी भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। अब जनता के बीच जनगीत ही गाये जायेन्गे,आन्दोलन के दॉरान भी गीतों की एक भूमिका बनती है। ग़ज़ल के शेर कै बार अद्भुत व्यन्जना देते हैं ।

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  3. कविता में भाव का होना बहुत महत्‍व रखता है , कवि को अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता मिलनी चाहिए , वह अपने भावों को किसी ढंग से भी अभिव्‍यक्‍त कर सकता है , किसी बंधन में जकडने से उसकी मौलिकता पर बुरा प्रभाव पडेगा।

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  4. main pheley kavita likhta rha ha hoon,mujhey lagta hai kavita ka koi bhi swaroop ho,swaroop to sharir hai,parntu bhavnaey kavita ka pran hai.

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  5. kavita me lay kaahona bhi jaroori hai aaj kal aisi kavita aa rahi hai jisme lay nahi hai chhnd se kavita ki shaashvta bad jati hai lekin chhnd naa bhi hon magar usme eek lay ho to sahi lagata hai

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  6. bina chhnd ke achhi se acchi kavita bhi kuchh smay baad nahi milti kavita me ek lay to ho

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  7. मैं शुरू से छंदबद्ध कविता का समर्थक रहा हूं। हालांकि मुक्तछंद अथवा नई कविता का विरोधी नहीं हूं पर इतना ज़रूर जानता हूं कि इसकी वजह से हिन्दी कविता से छंद की खूबसूरती जाती रही है। छंद विधा एक तरह से खत्म हो चुकी है। इस विषय पर शब्दों के सफर में भी कुछ अर्सा पहले लिखा था। देखें कव साथियों से क्षमा याचना सहित

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  8. भाई हम तो ठहरे बिल्‍कुल अज्ञानी कुछ बता भी नहीं सकता हां इतना जरूर है कि जो भी मैंने पढा उसे पढकर तो लगता है मुझे कुछ लिखना नहीं चाहिए क्‍योंकि छंद बद़ध कविताओं की बात ही कुछ और होती है और मैं वैसे ही कविता के नाम को भी बदनाम कर रहा हूं
    क्‍योंकि जो मैं लिखता हूं उनमें लय है ना सुर है ना ताल हे ना छंद है बस जो मन मे आया लिख दिया

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  9. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 20 फरवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! l

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