हार कर जीतना
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आलेख
फ़ज़ल इमाम मल्लिक
अकेला मैं ही नहीं, किसी को भी यक़ीन नहीं था अफ़ग़ानी फ़ुबाल टीम का प्रदर्शन इतना शनादार रहेगा। बरसों से अफ़गानिस्तान युद्ध और आतंकवाद झेल रहा है। पहले रूस और अब अमेरिकी सेना की मौजूदगी ने यक़ीनन इस देश के युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव ही छोड़ा होगा। गोलियों की तड़तड़हाटें और बमों के धमाकों के बीच एक पूरी पीढ़ी वहां जवान हुई होगी तो एक पीढ़ी ने बुढ़ापे में क़दम रखा होगा। दूसरे देश की सेनाओं ने कइयों के सपनों को उनकी आंखों से छीन ले गई होगी तो कइयों के सपने आंखों में पलने से पहले ही टूट गए होंगे। दूसरे देश की सेनाओं ने एक पूरी पीढ़ी को अपाहिज बना डाला तो तालिबानों की वजह से भी इस ख़ूबसूरत देश में लोगों को क्या कुछ झेलना पड़ रहा है, पूरी दुनिया इससे वाक़िफ़ है। क़बीलाई इलाकÞों के आसमान में अमेरिकी सैनिकों के उड़ते विमान और ड्रोन कहीं भी और कभी भी मौत बरसाती हैं और आसमान में पर खोले तैरती मौतें रोज़ ही नजाने अनगिनत लोगों को अपना शिकार बना डालती है। एक अनदेखा डर बाहर भी है और भीतर भी और इस डर के साथ जीने के लिए अफ़ग़ानी अभिशप्त हो गए हैं। इसलिए सैफÞ फुटबाल चैंपियनशिप में अफ़ग़ानी फ़ुटबाल टीम से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद मुझे और मेरे साथी खेल पत्रकारों को नहीं थी। इसलिए फ़ाइनल के दिन मैच के दौरान अमित ने छूठते ही कहा था- ‘फ़ज़ल भाई! किस ने सोचा था कि यह टीम सैफ़ फुटबाल का फ़ाइनल खेलेगी’। अमित मेरे सहकर्मी रह चुके हैं। वे मेरे साथ ‘जनसत्ता’ में थे। फिर ख़ूब से ख़ूबतर की तलाश में वे एक दूसरे दैनिक में इन दिनों रन कूट रहे हैं और मौक़ा मिलने पर गोल भी ठोंक देते हैं। मैंने अमित की बात की तसदीक़ की और कहा- ‘ठीक कहा, हमने सोचा भी नहीं था कि अफ़गानिस्तान का प्रदर्शन इस टूर्नामेंट में इतना अच्छा रहेगा’।
लेकिन अफ़ग़ानी टीम ने अपने कला-कौशल और तकनीक से हमें अपना क़याल बनाया था। जंग से बदहाल उस देश के खिलाड़ियों ने जिस तरह का प्रदर्शन इस टूर्नामेंट में किया उससे उनके जीवट का पता तो चलता ही है, खेलों को लेकर उनके जुनून को भी समझा जा सकता है। लंबे-तगड़े और ख़ूबसूरत अफ़गÞानियों को मैदान पर भारत के ख़िलाफ़ खेलते देखना अच्छा लगा था। लीग मुक़ाबले में इस टीम ने भारत को एक-एक की बराबरी से रोक कर अपने इरादे भी ज़ाहिर कर दिए थे। क्योंकि फीफा रैंकिंग में अफ़गÞानिस्तान भारत से काफ़ी नीचे है इसलिए उसने जब घरेलू मैदान पर भारत को बराबरी की टक्कर दी तो लगा कि उसने तो मैदान मार लिया है। जीत-हार भले गोलों से तय होता है लेकिन कभी-कभी मैदान पर अद्मय साहस, संघर्ष की क्षमता और मज़बूत इरादे व इच्छा शक्ति भी किसी टीम को विजेता की तरह मैदान से बाहर लाता है, भले वह टीम हार गई हो या मुक़ाबला बराबरी पर छूटा हो। इसलिए फ़ाइनल के दिन जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में मेडल लेने के बाद अफ़ग़ानी फ़ुटबाल टीम हमारे सामने से गुज़री तो उनके लिए तालियां बजाने से ख़ुद को नहीं रोक पाया। मेरे साथ ही बैठे सुरेश कौशिक और राजेश राय ने भी उनका अभिनंदन किया। अपने देश के ख़िलाफ़ किसी दूसरी टीम के लिए इस तरह तालियां कभी मैंने बजाई हों, मुझे याद नहीं पड़ता। जबकि भारत की जीत पर या उसके बेहतरीन प्रदर्शन पर ख़ूब तालियां भी बजाईं हैं, तिरंगे को मैदान पर लहराते देख कर भावुक भी हुआ हूं और भारत के हारने पर मलाल और अफ़सुरदा भी हुआ हूं। भारत की हार पर तो आंसू नहीं निकले हैं लेकिन कई मौक़े ऐसे आए जब आंखों नम हो उठी थीं। ये मौक़े तब आए जब भारत ने मैदान पर चमकदार प्रदर्शन किया और मुक़ाबले जीते थे। यानी हार पर नहीं भारत के जीतने पर मैंने आंसू बहाए थे। लेकिन उस दिन अफ़ग़ानी टीम के लिए मेरे अंदर बैठा आदमी बार-बार उसकी शान में क़सीदे पढ़ रहा था। इसलिए भी कि एक लुटे-पिटे देश में खिलाड़ी किस तरह तैयार किए जाते हैं, कम से कम उससे हमें सीखना चाहिए। खेलों को लेकर हमारे यहां जिस तरह का माहौल है और खेल संघों पर क़ब्ज़ा जमाए अधिकारी, जिनमें ज़्याजातर नौकरशाह और सियासतदां हैं, खेलों की बजाय अपनी दुकान चमकाने में जुटे रहते हों, वहां एक छोटा सा देश सारी मुश्किलों से उबर कर एक ऐसी टीम बनाता है जो मैदान पर हमारी आंखों में आंखें डाल कर बराबरी की टक्कर देता है। इसलिए उस शाम नेहरू स्टेडियम की दूधिया रोशनी में उन खिलाड़ियों को सलाम करने को जी चाहा था। कुछ महीने इसी दिल्ली में अफ़गानिस्तान से आई महिला फुटबाल खिलाड़ियों ने भी दिल जीता था। और चीन में हुए एशियाई खेलों की क्रिकेट में पाकिस्तान को हरा कर फ़ाइनल में पहुंचने वाली अफ़गानिस्तान टीम ने भी अपने जीवट का प्रदर्शन किया था। दरअसल कुछ कर गुजरने की ललक ही किसी टीम को बेहतर टीम बनाती है जो मैदान पर मज़बूत से मज़बूत प्रतिद्वंद्धि के सामने डट कर खड़ी हो जाती है। गले में मेडल पहने हमारे सामने से गुज़रते अफ़ग़ानी खिलाड़ियों में से कइयों की आंखों में आंसू थे। अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद टीम एक बार पिछड़ी तो फिर उबर नहीं पाई।
पहले हाफ़ में अफ़ग़ानी टीम ने बेहतर खेला था और अगर भारतीय गोलची ने चौकसी नहीं दिखाई होती तो यक़ीनन भारत दो गोलों से पिछड़ रहा होता। लेकिन करणजीत सिंह ने बेहतरीन पूर्वानुमान के साथ ग़ोता लगाते हुए अफ़गानिस्तान के हमले को टाला। अफ़गानिस्तानके बलाल और संजार अहमदी ने भारतीय डिफेंडरों को कई बार परेशानी में डाला था। उन्होंने डिफेंस को छितराया भी लेकिन भारतीय रक्षा पंक्ति के अंतिम किले पर मुस्तैदी से जमे करणजीत ने दो बेहतरीन बचाव किए। दोनों ही बचाव शानदार और दर्शनीय थे। करणजीत ने सही समय पर चौकसी नहीं दिखाई होती तो सैफÞ फुटबाल चैंपियनशिप का पहला फ़ाइनल खेल रही अफ़ग़ानी टीम को फिर रोकना भारत के लिए मुश्किल होता। हालांकि मैदान उसका अपना था और दर्शकों का साथ भी था लेकिन पहले हाफÞ में भारतीय आक्रमण में वह धार नहीं दिखी जो होनी चाहिए थी। छुटपुट हमले ज़रूर भारत ने बनाए लेकिन वे हमले ऐसे नहीं थे जिन पर गोल बन सकता था। खिलाड़ियों से ज्Þयादा शायद दर्शकों में उत्साह था इसलिए भारतीय टीम के पास जब भी गेंद आती तो नेहरू स्टेडियम में मौजूद दर्शक उत्साह में भर कर शोर मचा कर तिरंगे लहराने लगते। ऐसा बरसों बाद देखने को मिला था। क्रिकेट की दीवनगी में फ़ुटबाल और दूसरे खेल कहीं खो से गए हैं, लेकिन इस साल पहले एएफसी कप में संयुक्त अरब अमीरात के ख़िलाफÞ और अब सैफ खेलों में दर्शकों का उत्साह देख कर अच्छा लगा था। दर्शकों से स्टेडियम भरा तो नहीं था लेकिन नेहरू स्टेडियम पर क़रीब बीस हज़ार लोगों की मौजूदगी देख कर अच्छा लगा था। कोलकाता में ज़रूर फ़ुटबाल मैचों में भी स्टेडियम में लोगों का हजूम उमड़ता था। लेकिन हाल के दिनों में क्रिकेट ने सभी खेलों से दर्शकों को लगभग दूर कर डाला था। इसलिए फ़ुटबाल को लेकर दर्शकों की बढ़ती दीवानगी एक सुख से भर दे रही थी।
अपने घर में, अपने दर्शकों के बीच भारत को यह फ़ाइनल जीतना ज़रूरी था। हालांकि फ़ाइनल तक के सफ़र में भारत का प्रदर्शन अच्छा रहा था। शुरुआती मुक़ाबले में अफ़ग़ानिस्तान ने उसे बराबरी पर रोक लिया था इससे उनका मनोबल बढ़ा हुआ था। दूसरे हाफ़ में भी अफ़ग़ानिस्तानी टीम ने बराबरी की टक्कर दी। लेकिन एक ग़लती ने खेल की पूरी तस्वीर ही बदल डाली। दूसरे हाफ़ में छब्बीस मिनट का खेल बीत चुका था और भारत, अफ़ग़ानिस्तान के गोल को भेद नहीं पाया था। लेकिन इसके बाद ही अफ़गÞानिस्तान ने एक ग़लती की और भारत को मैच पर पकड़ बनाने का मौक़ा मिल गया। मध्य मैदान पर गेंद सैयद रहीम नबी ने संभाली। एक डिफेंडर को उन्होंने ख़ूबसूरती से छकाया और फिर लंबा लाब अपने साथी खिलाड़ी जेजे लालपेखलुआ के लिए फेंका। डिफेंडर फ़ैज़ल सफ़ा जेजे के साथ थे। बाक्स के ठीक ऊपर मिली गेंद को लेकर जेजे निकले ही थे कि फ़ैज़ल ने उन्हें टंगड़ी मार दी। वे बाक्स के अंदर दाख़िल हो चुके थे इसलिए रेफ़री ने पेनल्टी देने में देर नहीं लगाई। फैÞज़ल की यह ग़लती टीम के लिए भारी पड़ी। जेजे निकले ज़रूर थे लेकिन वे गोल भेद ही देते ऐसा लग तो नहीं रहा था। फैÞज़ल ने उन्हें गिरा कर तो ग़लती की ही, रही-सही कसर गोलची हमीदुल्लाह यूसुफजारी ने पूरी कर दी। पहले उन्होंने रेफरी को पश्तो में कुछ बुरा-भला दी। यह बात उन्हें नहीं पता थी कि सिंगापुर के रेफरी को पश्तो समझ में आती है। लेकिन हमीदुल्लाह यूसुफजारी इतने पर ही नहीं रुके और उन्होंने रेफरी को धक्का देने की कोशिश की। यह ग़लती उन्हें भारी पड़ी और रेफ़री ने उन्हें लाल कार्ड दिखा कर मैदान से बाहर भेज दिया। हमीदुल्लाह यूसुफजारी इस फ़ैसले पर जितना लाल-पीले हो सकते थे, हुए, लेकिन मैदान पर उन्होंने जो किया उसका ख़मियाज़ा उनके साथ-साथ टीम को भी भुगतना पड़ा। बाक़ी समय उसे दस खिलाड़ियों से खेलना पड़ा। पेनल्टी पर सुनील छेत्री ने गोल बनाने में कोई ग़लती नहीं की। यह बात भी कम दिलचस्प नहीं है कि छेत्री ने जिस वक्Þत गोल दाग़ा स्टेडयिम की दूधिया रोशने के बीच ही चांद ने भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। स्टेडियम के पूर्वी सिरे से चांद धीरे-धीरे ऊपर आता गया और उसके साथ ही भारतीय टीम का प्रदर्शन भी निखरता गया।
लहराते तिरंगों के बीच ही भारत ने अगले सात मिनट में दो गोल फटाफट दागÞ कर अपनी जीत पुख़्ता कर ली। दोनों गोल के सूत्रधार छेत्री ही रहे। पहले मध्य मैदान से बढ़ाव बना कर उन्होंने दाएं छोर पर साथ चल रहे क्लाईफोर्ड मिरांडा को बेहतरीन ढंग से गेंद बढ़ाई। मिरांडा गेंद के साथ बाक्स में दाख़िल हुए। एक डिफÞेंडर को छकाया और फिर आगे बढ़ आए गोलची के बाएं से ज़मीनी शार्ट लगा कर गेंद को जाल के बाएं कोने में अटका दी। इस दूसरे गोल ने अफ़गÞानी टीम के हौसलों को एक तरह से पस्त कर दिया। तीन मिनट बाद छेत्री ने फिर पांवों की कलाकारी दिखाई। इस बार गेंद जेजे के लिए बढ़ाई और जेजे ने दाएं पांव से बेहतरीन वाली लगाई। गोलची कुछ समझ पाता इससे पहले ही गेंद जाल में तैर रही थी। तीन गोलों की बढ़त के बाद भारत की जीत तय हो चुकी थी। लेकिन खेल ख़त्म होने से ठीक पहले सुशील कुमार ने बाक्स के ठीक ऊपर से दनदनाता शार्ट लगाया और गेंद जाल में उलझ कर नाचने लगी। स्टेडियम तिरंगों से लहराने लगा था। दर्शकों का उत्साह देखने लायक़ था।
रेफरी की लंबी सिटी बजते ही भारतीय खिलाड़ी तिरंगे के साथ मैदान की परिक्रमा करने लगे। जीत की इबारत उनके चेहरों पर साफ़ पढ़ी जा सकती थी। दर्शकों में भी एक सुख पसरा था। नब्बे मिनट तक जूझने के बाद अफ़गÞानिस्तान टीम हार कर बाहर आ रही थी। कइयों की पलकों पर आंसू आकर ठहर गए थे तो कइयों के आंसुओं ने आंखों का तटबंध तोड़ डाला था। वे हार गए थे, लेकिन योद्धा थे। इसलिए उन्हें हार कर मैदान से बाहर आते देख कर भी अच्छा लग रहा था। एक सुख मेरे भीतर भी पसरा था। भारत ने एक बड़ा ख़िताब जीता था और यह बात सुख देने वाली थी। भारतीय टीम मेडल लेकर सैफ़ ट्राफी के साथ तस्वीरें खिंचवाने में जुटी थी। आसमान पर चांद अब पूरी ऊर्जा के साथ मुस्करा रहा था। स्टेडियम की दूधिया रोशनी में भी चांद की रोशनी भारतीय फ़ुटबाल टीम को सलाम कर रही थी- जीत का उजाला चांदे के चहरे पर भी फैला था और इस उजाले में भारतीय टीम को देखना अच्छा लग रहा था।
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achha likha hae aapne khiladiyon ko bhi to sipahi hi kha jata hae .khiladi khel ki bhavna se khelte haen or yoddha siyasatdaron ke isharon par..............
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