इतनी कटुता...? इतनी घृणा...?
Posted on by पुष्कर पुष्प in
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प्रिंट मीडिया के नाम खुला पत्र,
मीडिया ख़बर
प्रभाष जोशी जी के निधन की खबर दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक तथाकथित राष्ट्रीय अखबार में नहीं छपी. इतनी कटुता...? इतनी घृणा...? अरे भाई, आदमी हमेशा के लिए चल बसा. अब तो दुराग्रह से मुक्त हो जाओ सम्पादकजी...अपनी इसी ओछी मानसिकता के कारण कुछ संपादक मालिक के अच्छे नौकर तो बने रहते है लेकिन वे पत्रकारिता के कलंक ही माने जाते है. प्रभाष जोशी का अचानक ऐसे चला जाना उन लोगों के लिए दुखद घटना है जो पत्रकारिता को मिशन की तरह लेते थे और वैसा व्यवहार भी करते थे। जोशी जी के जाने के वाद अब लम्बे समय तक दूसरा प्रभाष जोशी पैदा नहीं होगा। राजेंद्र माथुर जी के जाने के बाद प्रभाष जोशी ने उनके रिक्त स्थान को जैसे भर दिया था। एक नए तेवर, नई दृष्टि के साथ हिंदी पत्रकारिता को उन्होंने एक ऐसा मोड़ दिया, जैसा पहले किसी ने नहीं दिया था। READ MORE....
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ओछी राजनीती पत्रकारिता में यहाँ तक पैठी है की पत्रकार स्वाभाविक शिष्टाचार ही भूलने लगे हैं जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था के मजबूत और आवश्यक अंग या औजार माने जाते रहे है ...
जवाब देंहटाएंदेखा मरने से डर गया नवभारत टाइम्स इसलिए आज पेज नंबर 12 पर सिंगल कॉलम की एक खबर छाप ही दी।
जवाब देंहटाएंab kya kahen aise logon ko........?
जवाब देंहटाएंघटिया मानसिकता, ओछी पत्रकारिता, चाटुकार सम्पादक…
जवाब देंहटाएंअसल में ये पत्रकार ही नहीं हैं, अखबार निकालकर स्वयं का विज्ञापन करते हैं या फिर स्वयं के लोगों का। खबरों से इनका कोई लेना देना नहीं है। व्यक्तिगत दुश्मनी से चलते हैं ये लोग।
जवाब देंहटाएंक्या करोगे भाई. महान पत्रकार प्रभाष जोशी की कीमत ऐसे लोग नही समझेगे. इन्हे तो देश के चाटूकारो,दलालो...से मतलब है. घीन आती है ऐसे अखबारो और उसके मालिक-सम्पादको पर.
जवाब देंहटाएंसमाचार पत्रो मै आज समाचार होते ही कहा है , यह सब बिक गये है ओछी राजनीती ओर घटिया नेतओ के हाथो.....
जवाब देंहटाएंye bhi hota hai janaab.........
जवाब देंहटाएंPAPPUON ki kami nahin is SANSAAR men. (ya kahen ki JAG men JUG men)
कोई मसखरा या भांड मरता है तो भी खबर बना लेते हैं ऐसे लोग मगर एक बेमिसाल संपादक की चले जाना शायद उन्हे खबर नही लगी।पत्रकारिता का सबसे काला अध्याय है ये।
जवाब देंहटाएंसमाचार पत्रों के माध्यम से अपनी गठरी भरने में लगे ऐसे लोगों का कुछ नहीं हो सकता। ऐसे लोगों को प्रभाष जी के महत्व का अन्दाजा भी नहीं होगा।
जवाब देंहटाएंभाई क्या कहूं, परन्तु प्रोफ़ेसनल प्रतिद्वंदिता को निजी नहीं करना चाहिए ।
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