"तस्माद वा एतस्माद आत्मनः आकाशः संभूतः" यानी सृष्टि रचना में सबसे पहले आकाश बना। आकाश ही पंचतत्वों में पहला तत्व है और हम जानते है कि आकाश गूंगा है अर्थात आकाश एक निर्वात है जिसमे शब्द विचरण नहीं होते। जिसका अर्थ हुआ कि मौन होना, चुप होना एक ऐसा गुण है जो सृष्टि रचना के साथ ही आया था. इसीलिए गीता में श्री कृष्ण कहते है कि "मौनं चैवास्मि गुह्यानां" अर्थात गोपनीय भावों में मैं मौन हूँ. कबीर दास कहते है "कबीरा यह गत अटपटी, चटपट लखि न जाए, जब मन की खटपट मिटे, अधर भया ठहराय" अर्थात होंठ वास्तव में तभी ठहरेंगें, तभी शान्त होंगे, जब मन की खटपट मिट जायेगी. मौन शब्दहीनता नहीं है यह शब्द का भी कारण विचार की अनुपस्थिति है यानी विचारहीनता है. "शब्द साकार है और इसीलिए सीमित भाव और अर्थ वाले है, शब्द जन्म लेते और मरते है, अर्थात अस्थायी है, मरणशील है जबकि मौन निराकार है, इसीलिए असीमित भाव और अर्थ वाला है जो सृष्टि के प्रारंभ से विद्यमान है, स्थायी है, अमर है अर्थात स्वयं प्रकृति का प्रतीक है."
किसी शायर ने ठीक ही कहा है, कि -
"कह रहा है शोर - ए - दरिया से समंदर शकूर, जिसमें जितना ज़र्फ़ है वह उतना ही खामोश है।"
आज सड़कें वीरान हैं, पूरे कायनात में सन्नाटा पसरा है। एक मुकम्मल खामोशी है चारों तरफ। प्रकृति अपने दर्द की दबा स्वयं लेे रही है खामोश होकर। मगर -"कल वीरान इन सड़को पर रोशनी का क़ाफ़िला होगा ,
वक्त की चुप्पी टूटेगी फिर ख़ुशियों का सिलसिला होगा ।।"
बहुत अच्छा लेख ।
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख।
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी नुक्कड़ में हलचल। सुन्दर पोस्ट।
जवाब देंहटाएंवक्त की चुप्पी टूटेगी फिर ख़ुशियों का सिलसिला होगा ।।"
जवाब देंहटाएंनुक्कड़ भी जमेगी !