पूर्णता अपूर्ण होने की इच्छा है-- लाओत्सू

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  • रवीन्द्र प्रभात
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  • इस परिवर्तनशील और मरणशील सृष्टि मे हमें अपूर्णता का बोध होता है , इसलिए  हमारी समस्त इन्द्रियां पूर्णता की खोज करती है जैसे आँखे सर्वोत्तम दृश्य, नाक सर्वोत्तम सुगंध, जीभ सर्वोत्तम स्वाद आदि। हम भी सर्वोत्तम साथी, मित्र आदि की खोज करते ही है. लेकिन यह तो अपूर्ण से पूर्ण होने की बात है। क्या ऐसा भी हो सकता है जैसा लाओत्सू कह रहे है कि पूर्ण अपूर्ण होना चाहता है। जी हाँ चूँकि  प्रकृति ही एकमात्र पूर्ण है जिसकी पूर्णता पर कोई संदेह नहीं परन्तु देखिये कि उपनिषद् कह रहे है तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्‌ अर्थात वह सृष्टि की रचना के बाद स्वयं भी सृष्टि में समाहित हो गया। प्रकृति पूर्ण होने बाद भी इस अपूर्ण जगत में, सृष्टि में समाहित हो गया अर्थात वह पूर्ण से अपूर्ण होना चाहता था। परन्तु उपनिषद् यह भी कहते है कि पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते अर्थात वह प्रकृति पूर्ण है, यह जगत उसी प्रकृति से उत्पन्न हुआ और चूँकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति हो सकती है इसीलिए यह जगत भी पूर्ण है।

    इसलिए आज हम जो कोरोनावायरस अर्थात कोविड़ -19 के डर से घरों में दुबके है और खुद को संभावित खतरों से महफूज़ रखने की कोशिश कर रहे हैं, वह कुछ और नहीं प्रकृति के द्वारा दी जाने वाली चेतावनी है, जिसे हमें समय रहते समझ जाना होगा। प्रकृति के दोहन से बचना होगा, नहीं तो कल न प्रकृति होगी और न हम होंगे। आइए प्रकृति को हर हाल में बचाए रखने का संकल्प लें। क्योंकि प्रकृति नहीं तो हम नहीं।

    4 टिप्‍पणियां:

    1. प्रकृति नहीं तो हम नहीं !
      बिल्कुल सही !

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    2. सही बात ........अभी इसी विषय पर एक आलेख लिखा है .

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    3. यदि अपने आपको बचना है जीव जंतु सहित सम्पूर्ण जीवन को बचाना है तो प्रकृति को बचाना ही होगा। नही तो अंत तो होगा इस सृष्टि का परंतु बहुत भयंकर होगा।

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