(उपदेश सक्सेना)
मैं कई बार सोचता हूँ कि ऐसा हमारे देश में ही क्यों होता है? बात ही कुछ ऐसी है कि आप भी मुझसे सहमत होंगे. अपना जितना दिमाग था, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा इस पर मनन में, मैं खपा चुका हूँ (पूरा इसलिए नहीं लगाया क्योंकि शेष दिमाग से देश की भी चिंता करना है, वैसे देश की चिंता में ज़्यादा दिमाग नहीं लगाना पड़ता) अब आप महानुभावों से अनुरोध है कि यह गुत्थी सुलझाएं कि आखिर ऐसा हमारे साथ ही क्यों होता है? पिछले कई बरसों से देश में घटनाओं की पुनरावृत्ति बढती जा रही है. कुछ साल पहले देश में कहीं किसी गणेश प्रतिमा ने दूध पी लिया, फिर क्या था, भोलेनाथ, साईबाबा, देवी दुर्गा यहाँ तक कि हनुमान जी की प्रतिमाओं तक ने दूध पीना शुरू कर दिया था. हाल के बरसों में बच्चों के खुले बोरवेल में गिरने की घटनाएं बढ़ गईं हैं, इसका श्रेय जाता है हरियाणा के प्रिंस को. 21जुलाई 2006 को कुरुक्षेत्र के शाहाबाद गाँव में एक बोरवेल में प्रिंस क्या गिरा, उसके बाद पूरे देश के माता-पिताओं में अपने बच्चों को बोरवेल में गिराने की जैसे होड़ सी मच गई, दरअसल प्रिंस को 23 जुलाई को सुरक्षित निकाले जाने के बाद देश भर के मीडिया की बदौलत मिली ख्याति ने उसे करोड़पति बना दिया था, अब देश में नौकरी-धंधों की स्थिति ऐसी नहीं बची कि माँ-बाप अपने बच्चों के जवान होने तक का इंतज़ार करें, सो सभी ने अपने खुले बोरवेलों को ढंकने का विचार ही त्याग दिया, कभी तो हमारा लाल भी गिरेगा, उसे भी कुछ लाख-करोड़ मिल जायेंगे, बुढापा सुधर जाएगा.
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित मेट्रो सेवा को लेकर इठलाती घूमती हैं, मगर मेट्रो भी इसी भेड़-चाल पर चल पड़ी है. एक साल में लगातार मेट्रो की कई दुर्घटनाएं हो चुकी हैं. बात हवाईजहाजों की हो तो लगता है कि वहाँ अब रनवे की जगह खेतों-नदियों में लैंडिंग की होड़ का दौर चल रहा है. रेलवे भी इसी तर्ज़ पर काम कर रहा है. एक साल में कितनी रेलें पटरी से उतरीं, कितनी ट्रेनों ने सामने से आने वाली दूसरी ट्रेन से गले मिले यह आंकड़े अँगुलियों पर गिनने लायक नहीं बचे हैं. ऐसी ही स्थिति कुछ फिल्मों की भी है. कभी मसाला फिल्मों की भरमार हो जाती है तो कभी प्रेम-कथानकों पर बनने वाली फिल्मों की. ऐतिहासिक विषय पर कोई फिल्म बनती है तो वैसी ही कई फ़िल्में बनना शुरू हो जाती है. टीवी के सीरियलों में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है, सास-बहू का दौर खत्म होने पर अब महिला अधिकारों पर धारावाहिकों का सैलाब छोटे परदे पर आया हुआ है. मनोरंजन चैनलों पर गुजराती भाइयों को निशाने पर लेकर ज़्यादा धारावाहिक बन रहे हैं. मेरा तो भेजा घूम रहा है, आप यह चार लाइनें झेलें. मंथन करें, मैं सिरदर्द का इलाज़ ढूँढता हूँ.
जो एक बार गलती करे वो इंसान,
दो बार गलती करे वो नादान,
तीन बार गलती करे वो बेईमान
और जो बार-बार गलती करे वो पकिस्तान.
हम क्या और कहाँ हैं?
ऐसा क्यों होता है, बार-बार...?
Posted on by उपदेश सक्सेना in
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
उपदेश जी आपकी पोस्ट में आपने जो चार लाइन की कविता लगाई है। क्या उसमें चौथी लाइन होना जरूरी है। और अगर जरूरी भी है तो क्या पाकिस्तान का नाम लेना जरूरी है।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत ही अच्छा लेख लिखा है। लिखना जारी रखें लेकिन पाकिस्तान का नाम शामिल करके आपने अपने सम्पूर्ण लेख पर सवाल उठा दिया है
जवाब देंहटाएं