भीड़तंत्र - सुशील कुमार की कविता




न कोई कल्पवृक्ष

न कामधेनु

न सपने में कोई देवता
आएगा पृथ्वी का दुख हरने
दुखों के व्रण बस रिसते रहेंगे
मंदिरों के घंटे बजते रहेंगे
कठमुल्ला भी कलमा पढ़ते रहेंगे
न वेद न संविधान
अबलाओं की लुटती अस्मत बचाएँगे
न नेता न मंत्री न सरकारें
बचा पाएँगे हत्यारों से निरीह जनता
यह जनतंत्र भीड़तंत्र का रचाव मात्र होगा
जो सुबह की छाती पर
रोज़ उठेगा धधकता सूर्य सा
पर ढल जाएगा क्षितिज पर हर-सा।
जनता की उम्मीदें, विश्वास सब
प्रेत बन घुमेंगे दसों दिशायें
फिर भी किल्विष आत्माएँ ढूँढ लेंगी उन्हें
और पकड़ ले जाएँगी बूथों तक
जबरन वोट डालने।
सड़कों पर लामबंद होंगे लोग फिर
उबलेंगे नपुंसक विचारों की आँच में
चीखेंगे,चिल्लाएँगे
बिलखेंगे,बिलबिलाएँगे
और लौट जाएँगे अपने-अपने कुनबों में वापस
कुंद हो जाएँगी उनकी आवाज़ें
बुझी हुई, राख-सी।
गावों में धूल,
संसद में गुलदस्ते फिर देखे जाएँगे
न सच होंगे न सपने
सच की तरह सपने
सपनों से सच होंगे।
दूर से सब लगेंगे अपने,
हाँ, इस तंत्र का यही
ताना-बाना होगा।

6 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना .....दुनिया, हालात और समस्याओं पर सीधी बात

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  2. सुशील जी , बेहतरीन रचना । गजब का चित्र खींचा है आपने भीड़ तन्त्र का ।

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  3. सुशील जी आपकी रचना का जवाब नहीं आपके पास शब्‍दों के ऐसे ऐसे बाण हैं जो छोडते ही घायल कर दें बहुत ही अच्‍छी रचना लिखी है आपने आभार

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  4. बहुत अच्‍छी रचना लिखी आपने भीड तंत्र पर ... बधाई।

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