बाँसलोय में बहत्तर ऋतु ( सुशील कुमार की कविता )



[ एक पहाड़ी नदी की व्यथा-कथा ]




संथाल परगना के जंगल
पहाड़ और बियावानों में
भटकती हुई
एक रजस्वला नदी हो तुम
नाम तुम्हारा बाँसलोय है
बाँस के झाड़-जंगलों से
निकली हो
रेत ही रेत है तुम्हारे गर्भ में
काईदार शैलों से सजी हो
तुम्हारे उरोज पर
रितु किलकती है केवल
बरसात में
तब अपने कूल्हे थिरकाती तुम
पहाड़ी बालाओं के संग
गीत गाती
अहरह बहती हो
पहाड़ी बच्चे तुम्हारी गोद में खेलते,
टहनियों की ढेर चुनते हैं तब,
भोजन-भात पकता है
पहाड़ियों के गेहों में
उनके उपलों से।
कलकल निनाद का निमंत्रण पाकर
दक्षिणी छोर से
क्रीड़ा करती हुई
मछलियाँ
मछलियाँ भी आ जाती हैं
और पत्थरों की चोट से
अधमरी होकर
रेत के खोह में समा जाती हैं
या फिर, मछुआरों के जाल में फंस जाती हैं
इतनी चंचला, आवेगमयी होती हो
आषाढ़ में तुम कि,
कोई नौकायन भी नहीं कर सकता
ठूँठ जंगलों से रूठकर
कठकरेज मेघमालाएँ पहाड़ से उतरकर
फिर जाने कहाँ बिला जाती हैं
और तुम अबला-सी मंद पड़ जाती हो !
जेठ के आते-आते
क्षितिज तक फैली हुई पतली-सी
रेत की वक्र रेखा भर रह जाती हो
तब लगता है तुम्हारे तट पर
ट्रक-ट्रैक्टरों का मेला
आदिवासी औरतें अपने स्वेद-कणों से
सींचती हुई तुम्हें
कठौती सिर पर लिये
उमस में बालू ढोती जाती हैं।
सूर्य की तपिश में हो जाती हो
तवे की तरह गर्म तुम।
उनके पैर सीझ जाते हैं तुम्हारे अंचल में
चल-चल कर।
(२)
नदी माँ, तुम्हारी ममता में
बहत्तर ऋतुओं को जिया है मैंने
देखता हूँ, तिल-तिल जलती हो
दिक्कुओं के पाप से तुम
दिन-दिन सूखती हो
क्षण-क्षण कुढ़ती हो निर्मोही महाजनों से
मन ही मन कोसती हो जंगल के सौदागरों को
रेत के घूँघट में मुँह ढाँप
रात-रात भर रोती हो
तुम्हारी जिन्दगी दुःख का पहाड़ है
सचमुच पहाड़ की छंदानुगामिनी हो तुम!
बूढ़े पहाड़ की तरह ही तुम्हें भी
शहर लीलता है हर साल थोड़ा-थोड़ा
इसीलिए इतनी बीहड़, उदास, कृशा हो तुम!
तुम्हारा जन्म
किसी हिमालय की गंगोत्री में नहीं,
पहाड़ी ढलानों में अनचाहे उग आये
बाँस की झुरमुटों से हुआ है
मुझे डर है,
आदिम सभ्यता की आखिरी निशानी
जोग रही हो
पर बचा नहीं पा रही अपनी अस्मिता तुम अब
सारे पत्ते गिराकर जंगल नंगे हो रहे हैं
दम तोड़ रहे हैं
पंछी अपने नीड़ छोड़ रहे हैं
नित तुम्हारा सर्वांग हरण हो रहा है
और मानवीय पशुता के बीच
गहरी उसांसें भरती हुई नित
मैली हो रही हो तुम ।
मुझे दुःख है कि,
अपनी छायाओं में फली-फूली
आदिम सभ्यता के मनोहर चित्र
रेत के वबंडरों से पाटती हुई
लोक-कथाओं में
तुम स्वयं एक दिन
किवदन्ती बनकर दर्ज हो जाओगी।

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुशील कुमार की यह कविता किसी पहाड़ी नदी की ही नहीं, वहाँ रहने वाले लोगों की भी अप्रतिम जीवन-गाथा है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार जनाब ज़ाबिर हुसैन साहब ने भी इस कविता की बहुत तारीफ़ की थी। आदिवासी-साहित्य की यह एक महत्वपूर्ण कविता है जो आज आदिवासी-चिंतन और उसके उजड़ते पर्यावरण को लेकर मील का स्तंभ हो रही है। -अशोक सिंह, दुमका(झारखंड)

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  2. सुशील कुमार की यह कविता किसी पहाड़ी नदी की ही नहीं, वहाँ रहने वाले लोगों की भी अप्रतिम जीवन-गाथा है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार जनाब ज़ाबिर हुसैन साहब ने भी इस कविता की बहुत तारीफ़ की थी। आदिवासी-साहित्य की यह एक महत्वपूर्ण कविता है जो आज आदिवासी-चिंतन और उसके उजड़ते पर्यावरण को लेकर मील का स्तंभ हो रही है। -अशोक सिंह, दुमका(झारखंड)

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  3. सुशील भैया की यह कविता मैंने राजस्थान की सुप्रतिष्ठित पत्रिका ’अरवाली उदघोष’ के लिये जब भेजी जा रही थी, पढ़ी थी। यह अभी उक्त पत्रिका में प्रकाशनार्थ स्वीकृत एवं प्रतीक्षारत है। आदिवासी जीवन के मनोहर चित्र उकेरती यह कविता बहुत ही भावनात्मक और ’टचिंग’ लगी।- राघव,दुमका।

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  4. बेहतरीन प्रस्तुति! यह आदिवासी- जीवन-पर्यावरण की महागाथा प्रतीत होती है।- नंद, रांची।

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  5. आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति का!!

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  6. "बाँसलोई में बहत्तर ऋतु" कविता संतालपरगना की जीवंत तश्वीर प्रस्तुत करती है। मौसम के रास्ते से गुजरती हुई पहाडी नदियाँ और उसपर आश्रित जन-जीवन की गहरी छाप मन-मस्तिस्क पर छोरती है। कुमार साहब, इस सुन्दर प्रस्तुती के लिए हम दिल से आपके आभारी हैं। आपकी लेखनी में सच-मुच में जादू है। :-जितेन्द्र कुमार

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  7. निस्संदेर उत्कृष्ठ रचना

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  8. आप की रचना बेहतरीन है

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  9. आदिवासी जीवन की करुण गाथा का प्रवाह
    बहुत ही मार्मिक चित्रण

    अतिसुन्दर

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