यह चुप्पियों का शहर है - (सुशील कुमार की कविता)

निजाम बदल गये
तंजीमें बदल गयीं
पर इस शहर की तसवीर नहीं बदली
यह,
हादसों का एक शहर है
यहाँ धूल है, धुआँ है
राख की ढीहें हैं
और ढेर-सी चुप्पियाँ हैं।

इन चुप्पियों के बीच
इक्की-दुक्की जो आहटें हैं
अधजले शवों पर श्मशान में
कौवों, चीलों की
छीना-झपटी जैसे हैं
जो टूटता है जब-तब
उँघती सरकार की
नींद उचाटती नारों की फेहरिस्त से
गलियों में सड़कों पर इमारतों में
जिनकी बोलियाँ पहले ही लग चुकी होती है।

'मंगलदायक-भाग्यविधाताओं'
की छतरियों के नीचे
मर-मर कर जीने
और अभिशप्त रहने की तमीज़
स्वशासन के इतने सालों में
लोगों ने शायद सीख लिया है,
तभी तो शहर में इतनी वहशत के बाद भी
न इनकी आँखें खुलती हैं
न जुबान हिलती हैं
पेट के संगत पर सिर्फ़
इनके हाथ और
इनकी जांघें चलती हैं।

इनकी 'बोलती बंद'के पीछे
तरह-तरह की भूख की तफसीलें हैं
जो इंसानियत की सभी हदें फांदकर
इस शहर के जनतंत्र में
इन्हें पालतू र्ररा सी
बनाये रखती हैं
जहाँ अपनी आँखों के सामने
खून होता तो देखते हैं ये
चीखें भी सुनते हैं
मगर बोल नहीं पाते।
न कटघरे में
खड़े होकर अपने हलफ़नामे दे सकते।
इन पर बिफ़रना,
गुस्से से लाल होना
हमारे कायर चलन हैं,
क्योंकि हर लफ्ज़, हर सिफ़र पर
यहाँ कोई गुप्त पाबंदी है,
इसलिए खू़न को खून,
कह पाना यहाँ लगभग बेमानी है,
जैसे खू़न नहीं बहता पानी है।
डर के चूहों ने
हमारे मगज़ में घुसकर
इतनी कारसाजी से
होश की जड़ें कुतर दिये हैं कि
ड्राइंगरूम की सीमा लांघ
कभी हम भी सड़क पर
उतरने की ज़हमत
नहीं उठा पाते।
इतने जात, धर्म, झंडे
और सफेद होते सच हैं यहाँ
कि जन का स्वर
इस तंत्र में दब कर रह जाता है।
लपक लेता है कोई
अन्दर की सुगबुगाहटें
चंद शातिर चालों को खेलकर
अनगढ़े गढ़ देने का आश्वासन देकर
सुशासन के कई-कई वादों में।

हताश जनमन ठगा सा पाता है
शहर के हर मोड़ पर अपने को।
और हर बार यही होता है
कि क्रांतिबीज
अंकुरन की दशा में ही कुचक्रों का पाला
झेलकर मर जाता है,
शहर की नाक़ पर चढ़ा तापमान भी
गिर जाता है।

समझ नहीं पाते
इस शहर के बासिंदे
इतनी-सी सच
और ईहलोक-परलोक सुधारने
का सपना लिये
अपने सपनों की दुनिया में वापस
लौट आते हैं
जहां हाड़तोड़ कमाई को अपनी
ठेकेदारों की झोलियों में भरते रहते हैं
और खुद ‘फकीरचंद’ रहते हैं !

ज़ाहिर है,जायज़ सवालों को लेकर जब तक
लोगों की चुप्पियाँ नहीं टूटेंगी,
रीढ़ अपनी सीधी कर लोग
सख्त इरादों से तनी
अपनी मुट्ठियाँ
कुव्यवस्था के खिलाफ़
जनतंत्र के आकाश में
जब तक नहीं लहरायेंगे
मतपेटियों पर काबिज़ जिन्न
तब तक कानून की आड़ में
तंत्र के अक़्स बनकर
इस शहर पर क़हर
बरपाते रहेंगे
और लोग अपनी आँखें
मलते रहेंगे
लानतों के इस गर्द-गुबार शहर में!

14 टिप्‍पणियां:

  1. निजाम बदल गयी
    तंजीमें बदल गयीं
    पर इस शहर की तसवीर नहीं बदली
    essa hi hota hai

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  2. बहुत सही और ताज़ा बयान है इस कविता में।पढ़कर मन खुश हो गया। यह सही है कि-
    हताश जनमन ठगा सा पाता है
    शहर के हर मोड़ पर अपने को।
    और हर बार यही होता है
    कि क्रांतिबीज
    अंकुरन की दशा में ही कुचक्रों का पाला
    झेलकर मर जाता है,
    शहर की नाक़ पर चढ़ा तापमान भी
    गिर जाता है। --अंशु भारती।

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  3. अविनाश वाचस्‍पति को ई मेल पर प्राप्‍त प्रतिक्रिया

    सरजी
    घणी ही सीरियल कविता हो री है।
    जमाये रहिये। क्या केने क्या केने।
    आलोक पुराणिक

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  4. बहुत ही अच्छी कविता है। धन्यवाद ऐसे पोस्ट के लिए।

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  5. सचमुच लाजवाब ........अपने भीतर कई संदेश भी छिपाए हुए

    जवाब देंहटाएं
  6. अविनाश वाचस्‍पति को लिखचीत बक्‍से (चैट बॉक्‍स) में प्राप्‍त सुप्रसिद्ध व्‍यंग्‍यकार श्री प्रेम जनमेजय की प्रतिक्रिया :-

    sushil ki yeh kavita bahut hi saarthak evam prabhaavshali hai
    visheshkar nimanlikhit panktiyaN
    'मंगलदायक-भाग्यविधाताओं'
    की छतरियों के नीचे
    मर-मर कर जीने
    और अभिशप्त रहने की तमीज़
    स्वशासन के इतने सालों में
    लोगों ने शायद सीख लिया है,
    तभी तो शहर में इतनी वहशत के बाद भी
    न इनकी आँखें खुलती हैं
    न जुबान हिलती हैं
    पेट के संगत पर सिर्फ़
    इनके हाथ और
    इनकी जांघें चलती हैं।

    sprem
    janmejai

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  7. सच को कहती एक सुन्दर रचना। बहुत उम्दा।

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  8. शानदार कविता के लिए आप बधाई के पात्र हैं. काफी दिनों बाद दिल छु लेने वाली कविता ब्लॉग पर पढ़ी. आगे भी ऐसे ही लिखता रहें...इसी दुआ के साथ..........

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  9. सुंदर रचना
    उतनी ही सुंदर अभिव्यक्ति

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  10. श्री दुर्गा प्रसाद अग्रवाल जी सुशील कुमार को यह संदेश भेजा--
    Durgaprasad: Mujhe intazar rahega.
    9:50 AM Aur haan, Sushil Ji,, aapkee ek kawita jo Blog par thee, mujhe bahut achchee lagee hai. Use main Indradhanush me^ de raha hoon. aashaa hai aap naaraaz naheen honge.
    9:51 AM me: यह तो हर्ष का विषय है,नाराजगी की बात ही नही, कौन सी दे रहे है?
    9:52 AM Durgaprasad: Yah chuppiyon ka shahar hai.
    me: शीर्षक बताईए
    Durgaprasad: Bahut badhiya kawita hai.
    me: धन्यवाद सर।
    Durgaprasad: Mujhe khushee hai ki aapane anumati dee. Dhanyawada.
    9:53 AM me: is kavitaa ko kis ank me lagaa rahe hain?
    Durgaprasad: November
    9:54 AM me: ओके यानि अगले ही अंक में।
    Durgaprasad: jee

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  11. क्या बात सुशील जी....भई वाह.खुब्सुरत शब्दों पे विचारों का कसाव
    मुग्ध कर दिया आपने

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  12. लिखते रहें मेरी शूभकामनाएं

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