यह रचनाविरोधी समय है। जो सचमुच रचना को साधना की तरह जीते हैं, जो अपनी पक्षधरता को जीवित रखना चाहते हैं, उनको केवल बाहरी लोगों के षडयंत्रों से नहीं जूझना पड़ रहा है बल्कि भीतर ही ऐसे घुसपैठिये हैं, जो खामोश रहकर या मुस्कराकर वार करते हैं। रचनाविरोधी माहौल से निपटना कठिन नहीं हैं, उनसे संग्राम जारी है और जारी रहेगा पर भीतर के घेरे में कुछ ऐसी ताकतें है, जो आम तौर पर बहुत अपनापन दिखाती हैं, जुलूस में शामिल रहने और नारे लगाने का उतावलापन भी प्रदर्शित करती हैं पर जब भी मंच पर संभावना बनती है तो वे नेपथ्य में रहकर खेल बिगाड़ने में भी नहीं चूकतीं। उनका सारा सामाजिक संवाद निजी हानि-लाभ के गणित में उलझकर उन्हें भी रचनाविरोधी ताकतों के साथ ला खड़ा करता है।
मैं दो घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगा। जाने-माने वयंग्यकार और व्यंग्ययात्रा तथा गगनांचल जैसी दो महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादक प्रेम जनमेजय की पीड़ा पर गौर कीजिए। उनकी पीड़ा निजी नहीं है बल्कि उन सबकी पीड़ा है, जो साहित्य की मर्यादा और शक्ति को समझते या पहचानते हैं। उन्होंने अपना दुख इस तरह व्यक्त किया है- अक्षर थियेटर में , शरद जोशी की ९ रचनाओं का नटरस पाठ था . शरद जोशी ने व्यंग्य को असीमित पाठक दिए, गद्य व्यंग्य को मंच पर स्थापित किया. गया बहुत उत्साह से था पर लौटा बहुत ही उदास. शरद जी की रचनाओं का पाठ करने वाले अधिक थे, श्रोता कम. व्यंग्यकार गायब, बहुत व्यस्त हो गए हैं? इसकी टिकट थी और हम लोग मुफ्तखोर संस्कृति के रक्षक हैं...? अनेक मित्रों को फ़ोन पर सूचना दी, पर बड़े लोगों की व्यस्तताओं को क्या कहिये?
दूसरी कथा घटी मशहूर शायर सर्वत एम जमाल के साथ. उन्हें एक मुशायरे में आमंत्रित किया गया. उन्होंने कार्यक्रम के लिए आर्थिक मदद का भी इंतजाम कराया. समय से कार्यक्रम स्थल पर मौजूद भी हुए। वहां आये लोग उनसे प्यार से, गर्मजोशी से मिले भी. यहां तक कि जिन्होंने बाद में मुशायरे के संचालन का कार्यभार संभाला, वे भी स्वागत मुस्कान के साथ मिले. मंच पर मुख्य कार्यक्रम आरंभ होने के पहले कुछ गणमान्य लोगों ने सर्वत जमाल साहब का नामोल्लेख भी किया पर आश्चर्य वे मंच पर आखिर तक बैठे रहे और संचालक महोदय ने उन्हें काव्य-पाठ के लिए बुलाना तो दूर, उनके नाम का जिक्र तक नहीं किया। कुछ लोगों द्वारा याद दिलाये जाने पर भी न तो उनके इरादे बदले, न ही उनके चेहरे पर किसी अनजानी गलती का आभास ही झलका। बात बहुत साफ है कि सर्वत जमाल को जानबूझकर नहीं पढ़वाया गया। एक बड़े शायर का यह अपमान नहीं तो और क्या है?
प्रेम का दुख निजी कारणों से नहीं है। अगर किसी व्यंग्यकार के मन में शरद जोशी के लिए आदर नहीं है, सूचना मिलने के बाद भी वह इसलिए कार्यक्रम से कन्नी काट जाता है कि उसे केवल बुलाया गया है, उसके लिए टिकट नहीं भेजी गयी है तो इसके क्या मायने हो सकते हैं? मैं अपनी तरफ से कुछ कहने की जगह कुछ प्रतिक्रियाओं से आप को रुबरू कराऊँ तो ज्यादा अच्छा रहेगा। मशहूर व्यंग्यकार प्रमोद ताम्बट ने इस ओढ़ी हुई व्यस्तता को कृतघ्नता कहा जबकि अविनाश वाचस्पति ने सलाह दी कि इन बड़े लोगों की व्यस्तताओँ पर कुछ न कहना ही सब कुछ कहना होगा। मेरा मानना है कि मूल्यहीनता ने इस तरह सबको जकड़ लिया है कि सार्थक सम्वाद की गुंजाइश धीरे-धीरे कम होती जा रही है. इस सर्वग्रासी संकट से साहित्य और रचनाधर्मिता का चेहरा लगाये घूमते बहुत से लोग भी मुक्त नहीं हैं. सवाल है कि क्या ये लोग शरद जोशी से भी बड़े हो गये हैं? नहीं, इस तरह तो उन्होंने अपना बौनापन ही दिखाया है।
इस घटियापन का दूसरा चेहरा देखिये। सिद्धार्थनगर में पिछ्ले महीने एक नाट्य कायर्शाला चलाई जा रही थी, जिसके समापन पर एक 26 जून को एक मुशायरा हुआ. गजल की दुनिया में बड़े नाम सर्वत जमाल को भी इस आयोजन में शरीक होने के लिए बुलाया गया। आयोजकों के आग्रह पर उन्होंने कुछ आर्थिक सहायता भी दिलवायी। इस आयोजन में वीनस केशरी, मेजर राजरिशी गौतम, अर्श के अलावा कुमार विश्वास भी शरीक होने वाले थे। आयोजन का सारा ज़िम्मा नेट पर गजलों की कक्षा चलाने वाले गज़ल गुरु पंकज सुबीर के हाथों में था. राहत इन्दौरी को बुलाया जाना था लेकिन वो इंकार कर चुके थे, कुमार विश्वास की सहमति मिल चुकी थी. सर्वत जमाल पहुंचे तो सभी मिले, पंकज सुबीर से भी भेंट हुई. बड़े दोस्ताना माहौल में गुफ्तगू हुई. कार्यक्रम के आरम्भ में दैनिक जागरण के ब्यूरो चीफ को दो शब्द कहने के लिए बुलाया गया और उन्होंने सर्वत जमाल की तारीफों के पुल बाँध दिए. मुशायरा/कवि सम्मेलन शुरू हुआ और १५ मिनटों में दो बार, पंकज सुबीर ने सभी रचनाकारों के नाम लिए लेकिन उनमें सर्वत का नाम नहीं था. आयोजन चलता रहा और रात पौने बारह बजे के आसपास कुमार विश्वास को अंतिम शायर के रूप में आवाज़ दी गयी. रात लगभग २ बजे कुमार विश्वास ने अपना पाठ समाप्त किया और कार्यक्रम की समाप्ति का एलान हो गया. सर्वत जमाल के अपमान से पंकज सुबीर के कई प्रशंसक भी क्षुब्ध दिखे। सर्वत ने आमंत्रित होने के बावजूद आयोजकों से पारिश्रमिक के रूप में कोई धन नहीं लिया। इस घटना से वे भीतर ही भीतर इतने हिल गये कि कई सप्ताह सदमे में रहे. तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें, क्या न करें. ब्लाग बंद कर दें या लिखना बंद कर दें. आखिर में उन्होंने अपने ब्लाग पर एक खूबसूरत गज़ल लिखी और कमेंट बाक्स बंद कर दिया। किसी को समझ में नहीं आया कि उन्हें क्या हो गया है. वहां इतना संकेत जरूर था कि कुछ अघटित हुआ है. मैने वह गज़ल बात-बेबात पर पोस्ट कर दी. बहुत कुरेदने पर भी उन्होंने मुंह नहीं खोला. मुझे लगा मामला गम्भीर है. फिर मैंने अपने स्तर से खोजबीन की तो सारी कहानी मालूम हुई.आखिर ऐसा व्यवहार पंकज सुबीर ने सर्वत जमाल के साथ क्यों किया ? उन्हें बुलाकर अपमानित क्यों किया गया ? केवल इसलिए कि कुमार विश्वास का विश्वास जीता जा सके और कमाई के और रास्ते खोले जा सकें ? शायद सर्वत जमाल उस मंच से पढ़ते तो पंकज जी को अपनी धाक जमाने में कामयाबी नहीं मिलती। एक समर्थ रचनाकार का अपमान करने वाला आखिर रचनाकार कैसे हो सकता है ? क्या कविता केवल धन कमाने और इसके लिए किसी भी स्तर तक गिर जाने की इजाजत दे सकती है ? क्या इस तरह किसी कवि का अपमान करने वाला कवि कहलाने का अधिकारी भी हैं?
- डॉ. सुभाष राय
सभी मित्रों से इस पीड़ा पर अपनी बेबाक प्रतिक्रियाएं देने और सहमति स्वरूप साथियों से अपने ब्लॉग पर पुनर्प्रकाशन के लिए विनम्र अनुरोध है।
- अविनाश वाचस्पति
इस मुद्दे पर मेरी भी समझ नहीं आ रहा कि कहूँ तो क्या कहूँ....किन शब्दों में ऐसे लोगों की भर्त्सना करूँ....कि ऐसे लोगों पर किस किस्म का प्रहार किया जाये कि ये लोग सदा के लिए चेत जाएँ...!!!
जवाब देंहटाएंप्रथम दृष्टि में …
जवाब देंहटाएंघोर शर्मनाक !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
शर्मनाक अवस्था है और इसका समाधान भी हमसब कुछ इमानदार लोगों को एकजुट होकर ही ढूंढना होगा ...अच्छी प्रस्तुती गंभीर समस्या पर..
जवाब देंहटाएंक्या सर्वत जी बकायदा आमंत्रित थे ......??
जवाब देंहटाएंओह ...हाँ इस मुशायरे का ज़िक्र अर्श ने अपने ब्लॉग पे भी किया है ......
पर इस तरह किसी को आमंत्रित कर मौका न देना गलत है ......और गलत बात का विरोध तो होना ही चाहिए .......!!
सर्वत जी को यह बात यूँ दिल से नहीं लगनी चाहिए थी ...मौका न मिलने से उनकी प्रतिभा कम तो नहीं हो जाएगी ......!!
मेरे विचार में तो सर्वत साहेब को इस "कवि बिरादरी" से नाता ही तोड़ लेना चाहिये। आजकल के "कवि" कविमना होने के अलावा बाकि सब-कुछ हैं। वे राजनीतिज्ञ हैं, छींटा-कशी और दूसरे को नीचा दिखाने की योजनाएँ तैयार करना इनके प्रिय शगुल हो गए हैं। ऐसी बिरादरी से भला कोई सहज, सज्जन और कोमल हृदय कविमना व्यक्ति किस तरह से रिश्ता बना कर रखे? साहित्य तो केवल सीढ़ी मात्र हो कर रह गया है जो शोहरत और पैसे की ओर लेकर जाती है। मेरा नाम हो, लोग केवल मुझे ही जाने... केवल मुझे ही वाह-वाही दें (नहीं देंगे तो हम कह कर मांग लेंगे) -बस आजकल कवि यही चाहते हैं।
जवाब देंहटाएंसर्वत जमाल साहब के साथ जो कुछ हुआ वह बेहद निंदनीय है और उस सभा में मौजूद हर व्यक्ति को जमाल साहब के अपमान पर ग्लानि महसूस होनी चाहिये। पर शायद ग्लानि महसूस कर सकने की क्षमता कवि समाज खो चुका है।
मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं कविता करता हूँ लेकिन मैं कवि नहीं हूँ। मुझे इस छिछोरे कवि समाज का अंग नहीं बनना।
प्रेम जनमेजय जी ने जो बात कही वो भी इसी बात की ओर इंगित करती है कि साहित्यिक समाज अब किस कदर अपनी राह भूल चुका है। कौन कहता है कि श्रोता नहीं हैं या पाठक नहीं हैं? पाठकों को दोष नहीं दिया जाना चाहिये। बात यह है कि आजकल ऐसा साहित्य रचा ही नहीं जा रहा जो लोगो को खींच सके। खत्री जी की "चंद्रकांता" को पढने के लिये लोग बाकायदा हिन्दी सीख सकते हैं। आज अगर अच्छा साहित्य रचा जाए तो लोग ज़रूर पढ़ेंगे।
साहित्य की रचना करने वालो को भी मंचीयता और शोहरत की अंधी दौड़ से निकलना होगा।
मेरे विचार में तो सर्वत साहेब को इस "कवि बिरादरी" से नाता ही तोड़ लेना चाहिये। आजकल के "कवि" कविमना होने के अलावा बाकि सब-कुछ हैं। वे राजनीतिज्ञ हैं, छींटा-कशी और दूसरे को नीचा दिखाने की योजनाएँ तैयार करना इनके प्रिय शगुल हो गए हैं। ऐसी बिरादरी से भला कोई सहज, सज्जन और कोमल हृदय कविमना व्यक्ति किस तरह से रिश्ता बना कर रखे? साहित्य तो केवल सीढ़ी मात्र हो कर रह गया है जो शोहरत और पैसे की ओर लेकर जाती है। मेरा नाम हो, लोग केवल मुझे ही जाने... केवल मुझे ही वाह-वाही दें (नहीं देंगे तो हम कह कर मांग लेंगे) -बस आजकल कवि यही चाहते हैं।
जवाब देंहटाएंसर्वत जमाल साहब के साथ जो कुछ हुआ वह बेहद निंदनीय है और उस सभा में मौजूद हर व्यक्ति को जमाल साहब के अपमान पर ग्लानि महसूस होनी चाहिये। पर शायद ग्लानि महसूस कर सकने की क्षमता कवि समाज खो चुका है।
मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं कविता करता हूँ लेकिन मैं कवि नहीं हूँ। मुझे इस छिछोरे कवि समाज का अंग नहीं बनना।
प्रेम जनमेजय जी ने जो बात कही वो भी इसी बात की ओर इंगित करती है कि साहित्यिक समाज अब किस कदर अपनी राह भूल चुका है। कौन कहता है कि श्रोता नहीं हैं या पाठक नहीं हैं? पाठकों को दोष नहीं दिया जाना चाहिये। बात यह है कि आजकल ऐसा साहित्य रचा ही नहीं जा रहा जो लोगो को खींच सके। खत्री जी की "चंद्रकांता" को पढने के लिये लोग बाकायदा हिन्दी सीख सकते हैं। आज अगर अच्छा साहित्य रचा जाए तो लोग ज़रूर पढ़ेंगे।
साहित्य की रचना करने वालो को भी मंचीयता और शोहरत की अंधी दौड़ से निकलना होगा।
जिन लोगों ने भी ऐसी हरकत की, उनका नाम सामने आना चाहिए, ताकि उनकी भर्त्सना की जा सके।
जवाब देंहटाएं………….
ये साहस के पुतले ब्लॉगर, इनको मेरा प्रणाम
शारीरिक क्षमता बढ़ाने के 14 आसान उपाय।
सर्वत जमाल जी से एक बार ही मिलना हुआ है, ओर वो पहली बार ही दिल मै बस गये बहुत अच्छॆ इंसान है,शायर भी अच्छॆ हे, असल मै यह सर्वत जमाल जी का अपमान नही, उन लोगो का अपमान है जिन्होने यह सब जान बुझ कर किया, ओर हम सब को उन की मानसिकता का पता चल गया, अगर वो लोग इस लाईन को पढ रहे हो तो उन्हे लानत है
जवाब देंहटाएंबेहद शर्मनाक वाकया………………अगर आज के समाज मे ऐसा हो रहा है तो आने वाली पीढियों पर क्या असर पडेगा?
जवाब देंहटाएंकोई भी हो छोटा या बडा अगर किसी को भी आमंत्रित किया है तो उसे पूरा सम्मान मिलना चाहिये और यदि आमंत्रित नही किया गया हो तो भी हमारा देश तो मेहमाननवाज़ी के लिये प्रसिद्ध है और उस देश मे अपने ही लोगो का अपमान बेहद शर्मनाक बात है।
" पता चलता नहीं दस्तूर क्या है
जवाब देंहटाएंयहाँ मंज़ूर, नामंजूर क्या है
कभी खादी, कभी खाकी के चर्चे
हमारे दौर में तैमूर क्या है
गुलामी बन गयी है जिनकी आदत
उन्हें चित्तौड़ क्या, मैसूर क्या है
नहीं है जिसकी आँखों में उजाला
वही बतला रहा है नूर क्या है
बताओ रेत है, पत्थर कि शीशा
किया है तुम ने जिस को चूर, क्या है
यही दिल्ली, जिसे दिल कह रहे हो
अगर नजदीक है तो दूर क्या है
वतन सोने की चिड़िया था, ये सच है
मगर अब सोचिए मशहूर क्या है. "
- सरवत जमाल
सरवत जमाल जी आपको शत शत नमन करता हूँ .............और खुदा का शुक्र है............. मैं शायर या लेखक नहीं हूँ !
यह तो सरासर अपमान है कविता का भी और आमंत्रण का भी| मेरे ख्याल से ऐसा क्यों हुआ इस बात का स्पष्टिकरण देना चाहिए|
जवाब देंहटाएंकहा जाता है कि कविता, ह्रदय कि सर्वोत्तम सुकोमल अभिव्यक्ति है और कविता कहने वाला सुकोमल भावना का स्रोत, इस कथन पर भी लोह प्रहार किया गया है|
BEHAD HI SHARMNAAK BAAT HAI .....
जवाब देंहटाएंYANI KI BLOGGER POETS KA KOI ROLE NAHI HAI KYA AAJ KE SAHITYA ME .. \BAHUT GAMBHEER BAAT HAI ..\
MAIN ISKI AALOCHNA KARTA HON .
निस्संदेह यह एक खेदजनक घटना है !पंकज सुबीर से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती है अतः उनका स्पष्टीकरण का इंतज़ार करना चाहिए ! सर्वत जमाल साहब बेहद संवेदनशील शायर हैं , निस्संदेह उन्हें बहुत कष्ट हुआ होगा ! किसी नौसिखिये रचनाकार को भी बुलवा कर स्टेज पर सम्मान न देना निंदनीय होना चाहिए , सर्वत जमाल जैसे प्रतिष्ठित एवं सर्वमान्य व्यक्तित्व के साथ यह घटना अक्षम्य है !
जवाब देंहटाएंI CAN SAY ONLY THAT THOSE ARE PSUEDO POETS, WRITERS THEY ARE THE ONLY THOSE CAN BE COUNTED UNDER SUCH CATEGORY.
जवाब देंहटाएंआपके इस आलेख में दो बिल्कुल भिन्न विषय उठाए गए हैं। एक तो साहित्य सर्जना की आधुनिक समय में उत्पन्न अप्रासंगिकता का व दूसरा व्यक्ति विशेष की निजी धिक्कारपूर्ण शैतानी का। परन्तु ये दोनों विषय मूलत: अन्त:सम्बद्ध हैं। क्योंकि इनका कर्त्ता व उत्तरदायी दोनों स्थितियों में एक ही है।
जवाब देंहटाएंसाहित्य अथवा साहित्यकारों की वर्तमान दुर्दशा का मूल व मुख्य कारण स्वयं साहित्यकारा ही हैं। जिन कथित रचनाकार के पास किसी भी प्रकार का नेम, फ़ेम या कोई भी उपलब्धि ( भले ही किसी भी गलत तरीके/ तिकड़म से हथियाई/पाई हुई)आ जाती है वे इतने मदमस्त हो जाते हैं कि किसी को भी ज़लील करने या किसी के भी विरुद्ध कोई भी षड़्यन्त्र रचने से बाज नहीं आते; ऐसे अभिमान में अन्धे रहते हैं या हरदम अपनी गोटियाँ बिछाने में तल्लीन, तिकड़में लड़ाने में तल्लीन। ऐसे हालात में जब जिसका बस चलता है वह काबिज़ हो जाता है और दूसरा ठगा रह कर साहित्य की वर्तमान दशा दुर्दशा को कोसता है।
यद्यपि असल में तो हिन्दी साहित्य का हर पक्ष दलदल में डूबा है। जो पक्ष ऐसे रुदन और विलाप करता है, उनके साथ भी साधारण जन को या इस राजनीति से कन्नी काटने वालों को कोई सहानुभूति नहीं रही क्योंकि यह पाठक/जन साहित्य की इस दुकानदारी और राजनीति को चीन्ह चुका है; इसीलिए लोग साहित्य से बिदकते हैं व साहित्यकार का कोई सम्मान हिन्दी जगत् में नहीं बचा/रहा। साहित्य की अवमानना के दोषी स्वयं साहित्यकार ही हैं, बाहर वाले नहीं। रचनाकारों के साथ लोगों की हमदर्दी समाप्त होने का करण यही है - "जिसकी पूछ उठाई वही गाभिन"।
प्रसंग तो दोनों निन्दनीय हैं। सर्वत जी के लिए खेद है। उनके साथ अक्षम्य अपराध किया गया है
आपके इस आलेख में दो बिल्कुल भिन्न विषय उठाए गए हैं। एक तो साहित्य सर्जना की आधुनिक समय में उत्पन्न अप्रासंगिकता का व दूसरा व्यक्ति विशेष की निजी धिक्कारपूर्ण शैतानी का। परन्तु ये दोनों विषय मूलत: अन्त:सम्बद्ध हैं। क्योंकि इनका कर्त्ता व उत्तरदायी दोनों स्थितियों में एक ही है।
जवाब देंहटाएंसाहित्य अथवा साहित्यकारों की वर्तमान दुर्दशा का मूल व मुख्य कारण स्वयं साहित्यकारा ही हैं। जिन कथित रचनाकार के पास किसी भी प्रकार का नेम, फ़ेम या कोई भी उपलब्धि ( भले ही किसी भी गलत तरीके/ तिकड़म से हथियाई/पाई हुई)आ जाती है वे इतने मदमस्त हो जाते हैं कि किसी को भी ज़लील करने या किसी के भी विरुद्ध कोई भी षड़्यन्त्र रचने से बाज नहीं आते; ऐसे अभिमान में अन्धे रहते हैं या हरदम अपनी गोटियाँ बिछाने में तल्लीन, तिकड़में लड़ाने में तल्लीन। ऐसे हालात में जब जिसका बस चलता है वह काबिज़ हो जाता है और दूसरा ठगा रह कर साहित्य की वर्तमान दशा दुर्दशा को कोसता है।
यद्यपि असल में तो हिन्दी साहित्य का हर पक्ष दलदल में डूबा है। जो पक्ष ऐसे रुदन और विलाप करता है, उनके साथ भी साधारण जन को या इस राजनीति से कन्नी काटने वालों को कोई सहानुभूति नहीं रही क्योंकि यह पाठक/जन साहित्य की इस दुकानदारी और राजनीति को चीन्ह चुका है; इसीलिए लोग साहित्य से बिदकते हैं व साहित्यकार का कोई सम्मान हिन्दी जगत् में नहीं बचा/रहा। साहित्य की अवमानना के दोषी स्वयं साहित्यकार ही हैं, बाहर वाले नहीं। रचनाकारों के साथ लोगों की हमदर्दी समाप्त होने का करण यही है - "जिसकी पूछ उठाई वही गाभिन"।
प्रसंग तो दोनों निन्दनीय हैं। सर्वत जी के लिए खेद है। उनके साथ अक्षम्य अपराध किया गया है।
अभी-अभी शिवम मिश्रा जी का फोन आया तो मुझे इस पोस्ट की बाबत जानकारी हुई। उस मुशायरे में जो कुछ भी हुआ वो एक बेहद ही दुखद ही एपिसोड था। मैं खुद उस पूरे घटनाक्रम के लिये अपने-आप को भी दोषी मानता हूँ। यहाँ कुछ भी कहना उस घटना की सफाई देना जैसा लगेगा। जिस पीड़ा से सर्वत जी गुजरे होंगे वो तो खैर कल्पनातीत ही है, हम सिर्फ अंदाज़ा मात्र ही लगा सकते हैं। किंतु पूरे संचालन के समय वरियता-क्रम में सर्वत जी का नाम कुमार विश्वास के नाम से तुरत पहले रखा गया था उनकी लोकप्रियता और उनकी वरिष्ठता को ध्यान में रखते हुये। काव्य-पाठन के दौरान एकदम से ऐसा माहौल बन गया कि कुमार विश्वास साब को बुलाना पड़ गया कविता पाठ के लिये और उसके बाद की कहानी तो पोस्ट में बयान है ही।
जवाब देंहटाएंकिंतु इस घटना के लिये नुसरत मेहदी जी, जो कि मध्य-प्रदेश उर्दू अकादमी की सचिव हैं और खुद एक बहुत ही मानी हुईं शायरा हैं और वो भी शामिल थीं इस मुशायरे में, उन्होंने और पंकज सुबीर जी ने करबद्ध माफी भी माँगी सर्वत जी से। नुसरत जी ने तो यहां तक कहा उनसे कि ये हमसब पर एक कर्ज चढ़ गया है आपका। हमसब ने मिल कर तब से जाने कितनी बार माफी माँगी है सर्वत जी से...थोड़ा-सा जिक्र अगर इस बात का भी हो जाता इस पोस्ट में...। वो गलती हो चुकी थी और इस सैनिक की बात पर अगर आपलोगों को थोड़ा-सा भी भरोसा हो तो यकीन जानिये वो गलती जानबूझ कर नहीं की गयी थी।
हाँ, वो ’पारिश्रमिक’ वाली बात तनिक अखर रही है। सुभाष राय जी का स्त्रोत जो भी हो इस घटनाक्रम के विवरण के लिये....लेकिन मैं बताना चाहूंगा कि सर्वत जी हमसब के पारिवारिक सदस्य जैसे हैं और वो वहाँ पर कंचन के बड़े भाई के जैसे आये थे। पूरे मुशायरे का आयोजन उनके योगदान के बगैर संभव न था।
नुसरत जी, सुबीर जी, मोनिका जी, रमेश जी सारे शामिल कवियों ने करबद्ध माफी माँगी है सर्वत जी से। हम एक बार फिर से उनसे माफी माँगते हैं...अपराध अक्षम्य हैं यकीनन जैसा कि कविता जी कह रही हैं।
वैसे पोस्ट की एकपक्षियता और तमाम माननीय टिप्पणीकारों का पूरी बात जाने बगैर भर्तसना में शामिल होना हैरान कर रहा है और दुखी भी...
मुझे गौतम की बात पर विश्वास न करने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। अर्थात् उनकी बात पर पूरा विश्वास है। अवश्य ऐसा हुआ होगा।
जवाब देंहटाएंइस रहस्योद्घाटन के बाद फिर यही प्रमाणित हुआ न कि एक दूसरे को कोसने व दोषारोपण करने या उत्तरदायी ठहराने वाले हर प्रसंग मेंकिसी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होती। वही बात है कि जब जिसका बस चलता है तिकड़म या गोटियाँ बिछा लेता है। यह तथाकथित रचनाकार नामक वर्ग है ही ऐसा। बेकार है इनके लिए सहानुभूति व्यक्त करना या किसी एक का पक्ष लेना। बेकार में लोगों की भावनाएँ भड़का कर अपनी राजनीति साधने में लगे रहते हैं। इस वर्ग के प्राणियों के लिए कुछ भी करना, कहना, सोचना आदि सब समय व ऊर्जा की बरबादी है। सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। एकदम निरर्थक इनके पचड़े में पड़ना, पुन: यही प्रमाणित हुआ ना!
यह कर्यक्रम मेरा था। मेरे भांजे की संस्था नवोन्मेष का। सर्वत जी से मैने बात की थी। वहाँ जो भी आया था मेरे कहने से और मुझ तुच्छ को अनुग्रहीत करने आया था। पहले तो आप सभी के पत्थर सिर आँखों पर।
जवाब देंहटाएंआप इस पोस्ट को जब जब जहाँ जहाँ पुनर्प्रकाशित करेंगे, मैं हर पत्थर का स्वागत करने वहाँ पहुँचूँगी। अपराध मेरा है दण्ड भी मुझे स्वीकार्य है।
हाँ बस एक बात याद आ रही है कि आधा सच झूठ से अधिक खतरनाक होता है।
खैर....! मुशायरे के अगले दिन पंकज सुबीर जी ने कितनी कितनी बार क्षमा माँगी सर्वत जी से। कितनी बार कहा कि हमारे ऊपर आपका बहुत बड़ा कर्ज़ है हम आपको जब तक विशेष सम्मान नही दे लेते आपके ॠणी रहेंगे। नुसरत जी जैसी वरिष्ठ शायरा ने, डॉ० आज़म ने, मोनिका हठीला ने कैसे कैसे शब्दो में दुःख जता कर इस दुर्योग पर क्षमा माँगी। पंकज जी खुद अपनी गाड़ी से उन्हे ले कर गये। जब उन बातों का कोई मतलब नही निकला तो मेरे सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगने का भी कोई मतलब नही निकलना है।
फिर भी एक अनुरोध। अगला पत्थर मुझ पर चलायें। कुमार विश्वास का विश्वास जीत कर पैसे के रास्ते मेरे खुले हैं। समर्थ रचनाकार का अपमान कर रचानकार ना कहलाने योग्य अपराध मेरा है। धन कमाने और इसके लिये किसी भी स्तर तक गिर जाने की गलती मैने की है। मैं कवयित्री कहलाने की अधिकारी नही हूँ।
मै सिर झुकाए खड़ी हूँ। आप जितनी चाहे लानत मलानत भेजें। मगर पंकज सुबीर जी जिन्होने अपनी मान प्रतिष्ठा ताख पर रख कर मेरी राखी का मान रखा है उन्हे बख्शे। उनका एक अपराध है कि उन्होने मुझे बहन और शिष्या माना।
कौन सी पारिश्रमिक और किसको देनी चाहिए थी.. क्या कोई छोटी बहन अपने बड़े भाई को पारिश्रमिक देती है? सर्वत जी हमरे घर के सदस्य की तरह हैं उनके दुःख का अंदाजा लगाना मुश्किल है ये जानता हूँ मगर इस बात को इस तरह से तूल देना खुद सर्वत जी को भी अच्छा ना लगे , सुभाष जी से ये जरुर अपेक्षा कर सकता हूँ के बात को जहाँ से भी निकलवाया है है जीतनी मेहनत करके उसे कमसे कम खुद सर्वत जी की तो सहमती लेलेते ... के आखिर वो क्या कहते हैं इस बात पर ... दोषी तो हम सभी हैं ये हम कुबूल करते हैं मगर ये तो परिश्थिति बनती चली गयी जिसके बाबत उन्हें बुलाया ना जा सका इस बात को खुद सर्वत जी मानते हैं.... जहाँ तक मंच संचालन की बात थी तो खुद सर्वत जी ने हमें आदरणीय पंकज सुबीर जी का नाम दिया था उनका खुद का कहना था की उनसे बेहतर हमें कोई नहीं जानता... सर्वत जी हमारे आदरणीय हैं और रहेंगे ... सच कहूँ तो सिद्धार्थ नगर में क्षमा मांगने का एक नया रूप देखा जिस तरह से पंकज सुबीर जी , नुसरत दी, मोनिका दी, गौतम भाई और कंचन जी मांग रही थी... कंचन तो उनसे बोल भी नहीं पा रही थी शर्म से इसलिए उसने लिखकर माफ़ी मांगती रही उनके सामने ... इस गलती को और किस तरह से उकेरा जायेगा.... क्या यह पोस्ट लगाने से पहले की इस तरह की बात लिखी जा रही है सर्वत जी के पक्ष में ये विपक्ष में उनकी सहमती ली गयी है... अगर नहीं तो फिर ऐसा क्यूँ किया जा रहा है ... अगर मंच से कोई उस्ताद शाईर अपनी शायरी पेश करता है तो सबसे ज्यादा ख़ुशी मंच संचालक को होती है... दर्शकों से भी ज्यादा क्यूंकि वो कार्यक्रम अपनी बुलंदियों को छूता है ... तो क्या ये सब पंकज सुबीर जी जानबूझकर किये थे ... हमें सर्वत जी को उस रात ना सुन पाने का खुद ज्यादा अपसोस और दुःख है जितना के यहाँ लोग टिपण्णी में कर रहे हैं... कौन कवि है कौन नहीं है ये तय किसको करनी चाहिए ये खुद मैं आप सभी से पूछता हूँ.... ये बात पूरी तरह से गलत है के उन्हें जानबूझकर अपमानित किया गया है ... क्षुब्ध हूँ के इस बात को इस तरह से तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा है ... सर्वत जी गोरखपुर में हैं और उनकी टिपण्णी का इंतज़ार करूँगा ... की इस बात में कितनी सचाई है ... सर्वत जी की श्रेष्ठता को देखते हुए उन्हें कुमार विशवास के तुरंत पहले उतारने की बात थी... मगर परिष्ठितियाँ ऐसी बनती चली गयी की ये हो ना सका ... हम सभी खुद इतने मायूस थे के कह भी नहीं सकते ... क्या कंचन जी हमें पारश्रमिक देंगी वहां आने के लिए , अपने भाईयों को फिर तो लानत है इस बात पे की कोई आपस में बहन और भाई का रिश्ता रखे .... इस पुरे बात को मैंने नजदीक से देखा और जाना मगर कलेजा चिर के तो नहीं दिखाया जा सकता की क्या सही है और क्या कितना गलत ... आधी बाते बहुत ज्यादा संभव है के गलत होती हैं.... सुभाष जी का आभार फिर से जताऊंगा के इस बात को वे ब्लॉग पर ले आये और सबके सामने रखा मगर उनसे और भी अपेक्षाएं हैं बात की तह के लिए ... अगर ये बात हमारे दिल में दफन रहती तो घाव बन जाती... अच्छा हुआ के सबके सामने है मगर इस बात पर सर्वत जी का इंतज़ार करूँगा... वो जितना हमारे सभी के करीबी हैं उतने शायद कुछ टिपनिकारों के भी नहीं !
जवाब देंहटाएं@ हरकीरत जी ... मेरे ब्लॉग पर सिद्धार्थ नगर की रपट है लगी हुई.. और उसमे सभी के इस तरबतर गर्मी में भी पहुँचाने की बात को सराही गयी है ... आपका आभार की आपको वो रपट याद थी...
मैं आप तमाम लोगों से यही गुजारिश करूँगा के इस बात की तह को पहले समझें फिर कुछ तय करें जो भी प्रायश्चित के लिए कही जायेगी हम तैयार हैं... मगर इस गलती के लिए अगर कोई पत्थर उठाये तो पहला मुझे मारे... क्युनके उस शाम का हिस्सा मैं भी था ....
आप सभी का
अर्श
Kuchh samajh me nahe aa raha ki kya comment karun?
जवाब देंहटाएंPooree tarah se dang hun...
@ मेजर साहब,
जवाब देंहटाएंकुछ भी कह देते ............यह क्या कह दिया आपने.............और वो भी आज के दिन??
"इस सैनिक की बात पर अगर आपलोगों को थोड़ा-सा भी भरोसा हो तो...."
बाकियों का तो पता नहीं ..............मुझे आप पर पूरा भरोसा है .....और इस लिए ही आपको फ़ोन किया था मैंने ताकि मैंने अपने भरोसे को और भी पक्का कर सकू ! आपका बहुत बहुत आभार जो आपने मेरे भरोसे को और भी पक्का कर दिया !
सरवत जमाल जी, अविनाश जी और डॉ. सुभाष राय से अनुरोध है कि अब जब कंचन जी, गौतम जी और "अर्श" जी ने यहाँ आ कर अपना पक्ष रखा है तो बात साफ़ की जाए और इस मुद्दे को बंद किया जाए !
इस का यह कतई मतलब नहीं कि जो भी हुआ सही हुआ पर जब यह बात साफ़ तौर पर बार बार कही जा रही है ...........जो भी हुआ जानबुझ कर नहीं किया गया और कंचन जी खुद भी बार बार माफ़ी मांग रही है तो मेरा सरवत जमाल जी से यही अनुरोध है कि बड़े होने के नाते इन लोगो को माफ़ कर दें !
अभी दफ्तर के बाद राय सर के पास गया तो मालूम हुआ कि ब्लाग जगत में तो हंगामा बरपा हुआ है। घर आकर सबसे पहले इस पोस्ट को पढ़ा फिर अर्श, वीनस, गौतम राजरिशी तथा पंकज सुबीर जी की सिद्धार्थ नगर के सम्बन्धित मुशायरे वाली पोस्टों को पढ़ा. गौतम भाई तथा कंचन जी के कमेन्ट को भी पढ़ा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सिद्धार्थ नगर में दादा सर्वत जमाल जी के साथ घटना नहीं दुर्घटना हुई। उनकी पीड़ा को सहज महसूस किया जा सकता है। मैं तो उनके बड़प्पन के आगे नतमस्तक हॅंू कि उन्होंने इतना कुछ हो जाने के पष्चात् भी एक लफ्ज़ मुंह से न निकाला और एक महीने तक मन ही मन में घुटते रहे। वो तो राय सर को इधर-उधर से थोड़ी जानकारी हुई तो उन्होंने बात निकलवाली। गौतम भाई के कमेन्ट से इतना तो सहमत हुआ जा सकता है कि वहां अचानक परिस्थितियां ऐसी बन गई कि कुछ भी अपने हाथ में नहीं रहा और ये दुर्घटना हो गई लेकिन सम्बन्धित पोस्टों और टिप्पणियों से एक बात निकलकर सामने आ रही है कि किसी ने भी अपनी पोस्ट में इस बात का जिक्र तक करना जरूरी नहीं समझा और अब ये बात सामने आ रही हैं। यह तो मान लिया कि वहां परिस्थितियां बन गई लेकिन यहां कौन सी परिस्थितियां बन गई। अच्छा होता कि सबसे पहले पंकज जी अपनी पोस्ट में इस बात का जिक्र करते और सार्वजनिक रूप से माफी मांगते क्योंकि अपमान सार्वजनिक हुआ था तो माफी व्यक्तिगत कैसे हो सकती है। इससे पंकज जी के व्यक्तित्व का बड़प्पन ही प्रकट होता लेकिन न तो पंकज जी ने और न ही उनके गुरूकुल के किसी षिष्य ने दुर्घटना पर खेद प्रकट किया। मैं तो इससे भी सहमत नहीं कि वहां परिस्थिति हाथ से निकल गईं क्योंकि मुषायरा/कवि सम्मेलन संचालक के हाथ में होता है कि कैसे चलाना है। संचालक चाहे तो अदने से कवि को भी हिट करा दे और संचालक चाहे तो बड़े से बड़े सूरमा को भी हूट करा दे। लेकिन जब संचालक ही कुमार विश्वास जैसे बड़े नाम के बोझ तले दबा हुआ हो तो परिस्थितियां तो हाथ से निकलेंगी हीं। पंकज जी श्रोताओं को कह सकते थे कि यदि वे ठीक से नहीं सुनेंगे तो मैं मुशायरे को रद्द कर दूंगा।
जवाब देंहटाएंखैर परिस्थितियां हाथ से निकल गई तो निकल गईं, पोस्टों में जिक्र न किया तो न किया अब क्या हो गया है। यह समझ से परे है कि कंचन जी से मामले का कोई वास्ता नहीं वो सफाई में क्यों बीच में कूद पड़ी।
यहॉं सभी ने सफाई दी है लेकिन मुझे लगता है कि ये सब बातें अपने-अपने ब्लाग पर पहले ही कह दी जाती तो ज्यादा ठीक था। मैं इस मुद्दे पर कोई कमेन्ट करना नहीं चाहता था लेकिन बात को जिस तरह से सबने छिपाने की कोषिष की वह सब ठीक नहीं लगा और अब भी पंकज जी का चुप रहना अच्छा नहीं है।
खैर हम तो इस बात के कायल हैं कि जैसा लिखना चाहिए वैसा होना भी चाहिए बाकी तो अपनी-अपनी मर्जी है-
अपनी-अपनी बुद्धि है, अपनी-अपनी सोच।
मिट्टी में जितनी नमी, उतनी उसमें लोच।।
डॉ कविता वाचक्नवी की बात पर गौर करने की आवश्यकता है ! हिंदी साहित्य की दुर्दशा के जिम्मेवार कौन हैं और इस प्रकार के आयोजनों से इस प्रकार की बदबू क्यों उठती है, इस आयोजन से जुड़े लोग बेहद प्रतिष्ठित और सम्मानित लोग हैं कम से कम जिन्हें मैंने पढ़ा है कंचन ,गौतम राजरिशी और तमाम ग़ज़लों के गुरु खुद पंकज सुबीर, इनकी ईमानदारी पर आसानी से ऊँगली नहीं उठाई जा सकती फिर भी मेरा अनुरोध है कि समीक्षा तो होनी ही चाहिए और अगर भूल हुई तो दार्शनिकों कि तरह माफ़ी न मांग, कारण बताये जाएँ तो अच्छा लगेगा ! यह भी प्रार्थना है कि इस घटना के कारण आयोजन के उद्देश्य पर कोई ऊँगली न उठाई जाये , मुझे नहीं लगता कि वहां कोई मतभेद होगा !
जवाब देंहटाएंहो सकता है कडवी लगे मगर मैं कविता जी की बात से सहमत हूँ कि रोने वाला और रुलाने वाला कुछ हद तक दोनों ही जिम्मेवार माने जाने चाहिए अन्यथा हिंदी का इन कवि सम्मेलनों के वर्तमान स्वरुप से कुछ भला नहीं होने वाला !
मेरा अनुरोध है कि सर्वत जमाल इसे भूल जाएँ !
सादर
yahi hota hai.
जवाब देंहटाएंजो भी हुआ गलत हुआ...सही नहीं हुआ...दुखद
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभाईयों, मैंने जितना लिखा है, कोशिश की है कि पूरा सच हो, पूरा न भी हो तो ज्यादा से ज्यादा हो। चूंकि मैं खुद मौके पर नहीं था, इसलिये मैं यह दावा नहीं कर रहा कि यह कहानी शत-प्रतिशत सही है। मुझे जैसे ही पता चला कि सर्वत जमाल का सिद्धार्थनगर के एक मुशायरे में अपमान हुआ, मैंने अपने सम्पर्कों से पूरी छानबीन की और हर सूचना की प्रामाणिकता का कई-कई बार परीक्षण क़िया और पूरी आश्वस्ति के बाद ही इस घटना के तथ्यों को सार्वजनिक करने का निर्णय किया। इस प्रक्रिया में लगातार मेरे प्रिय मित्र अविनाश वाचस्पति ने मेरी मदद की। इस रिपोर्ट के बाद उठे बहुत सारे सवालों के जवाब मेरे अनुज संजीव गौतम ने दे दिये हैं, इसलिये मैं उन पर विचार नहीं करूंगा। उन्होंने कुछ सवाल उठाये भी हैं, जिनका जवाब जनाब पंकज सुबीर को देना चाहिये। मेरे मन में इन ढेर सारी टिप्पड़ियों को पढकर कुछ सवाल उठ रहे हैं। आखिर इस रिपोर्ट में जिन पंकज सुबीर साहब पर सवाल उठे हैं, वे अपनी बात कहकर सारा कुहासा दूर करने अब तक यहां क्यों नहीं आये? जो लोग अब इस खुलासे के बाद इसे आधा सच आधा झूठ कह कर संशय का माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उन्होंने इतने दिनों तक आधा सच क्यों छिपाये रखा? क्या उनकी यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि अगर किसी संवेदनशील कवि को उनकी वजह से आहत होना पड़ा, तो जैसे मुशायरे का लम्बा-चौड़ा विवरण कई ब्लागों पर प्रकाशित किया गया, उसी के साथ ईमानदारी से इस दुखद प्रसंग से उपजे क्षोभ और शर्मिन्दगी का भी जिक्र कर दिया जाता। तब शायद इस रिपोर्ट की कोई प्रासंगिकता ही नहीं होती। अब जो इतनी भावुकता और बेचैनी दिखायी जा रही है, वह भावुकता अब तक कहां थी? सर्वत का अपमान हुआ, यह तो सभी को स्वीकार है, पर क्या खुले मैदान में उपेक्षा और तिरस्कार का जो दंश सर्वत को मिला, वह व्यक्तिगत रूप से उनसे हजार बार भी माफी मांगने से दूर हो जायेगा? संजीव के सवाल पर गौर फरमायें। उस दर्द और अपमान भरी रात के बाद से सर्वत के अपने ब्लाग का कमेंट बाक्स बन्द किये जाने तक क्या अब हाय-तोबा मचाने वालों में से किसी ने भी सर्वत से जाकर पूछा कि जनाब आप के दिल का जख्म भरा या नहीं?
जवाब देंहटाएंएक बात और मैं इस तरह के किसी तर्क को नहीं मानता कि अमुक व्यक्ति कह रहा है, इसलिये सच ही होगा। इतिहास में युधिष्ठिर को भी पक्षपात करते और अर्धसत्य का सहारा लेते दिखाया गया है। कोई ऐसा आदमी नहीं हो सकता, जिसके लिये कहा जा सके कि वह जो कह रहा है, हर परिस्थिति में सच ही होगा। हां, ऐसा किसी पर किसी का स्नेहवश व्यक्तिगत विश्वास हो सकता है, पर किसी गम्भीर सार्वजनिक मुद्दे पर इस तरह के व्यक्तिगत विश्वास का कोई महत्व नहीं होता. मैं चाहूंगा कि अगर मेरी रिपोर्ट में किंचित त्रुटि रह गयी है तो उसका खुलासा होना चाहिये। सच जानने का सबको हक है। इसलिये महीने भर से चुप्पी साधे लोगों ने यहां जो ढेर सारी बातें कहीं हैं, उनमें कितना झूठ है, कितना सच, उसका भी फैसला होना चाहिये। और यह काम केवल और केवल सर्वत जमाल साहब कर सकते हैं। मेरा उनसे आग्रह है कि बिना किसी दुराव-छिपाव के वे पूरा सच यहां आकर बयान करें और मामले को खत्म करें।
जो घटा,वो अवश्य ही दुखद है।
जवाब देंहटाएंडॉ सुभाष राय के कमेंट्स में उठाये सवालों का जवाब, ईमानदारी की रक्षा के लिए बहुत आवश्यक है, और यह दायित्व पंकज सुबीर जी का ही बनता है ...
जवाब देंहटाएंउनकी चुप्पी खेदजनक है , उनके जैसे गुरु व्यक्तित्व के साथ यह मेल नहीं खाता है, इस घटना का कारण चाहे जो भी हो हो सकता है इस बुरे फैसले के निर्णायक वे खुद हों अथवा किसी और को बचाने की चेष्टा में वे "पत्थर" खा रहे हों मगर किसी संवेदनशील व्यक्ति को आमंत्रित कर, उसे अपने अन्य साथियों के बार बार कहने पर भी उनका परिचय न कराना, और अपने ही साथियों के बीच उसका मखौल बनवा देना , उनके प्रति, पूरे ब्लागजगत में बने उनके प्रभामंडल को खंडित कराने के लिए काफी है !
मुझे दुःख है कि इस असामान्य सामाजिक अपमान को, "पंकज सुबीर के जरिये सरवत जमाल को छोड़ने जाना ऐसा लग रहा है जैसे भगवान् कृष्ण सुदामा को छोड़ने दरवाजे तक आये हों ," आज के समय में चाटुकारिता की चरम सीमा है !
और सम्मानित गौतम राजरिशी और कंचन जैसे निश्छल और संवेदनशील लोगों के होते हुए यह हुआ, जिनके आँखों में सरवत जमाल के लिए आंसू तो आये मगर वे खुद अपने को वहां से मुक्त न कर सके ....
सर्वत जी के साथ जाने / अनजाने में जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ..और हम भी उनसे हाथ जोड़कर, पांव छूकर माफ़ी मांगते हैं...
जवाब देंहटाएंखुदा के लिए ये ना कहिएगा कि जब आप वहाँ थे ही नहीं तो आप कौन होते हैं माफ़ी मांगने वाले...?
'' इस सारे प्रकरण से बहुत दूर होते हुए भी सैनिक की बात पर किसी भी तरह का अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है हमारे पास..''
जमाल साहब की पीड़ा को समझ सकते हैं..ये भी मानते हैं की शो ख़त्म होने के बाद माफ़ी मांगे या जो करें..जो होना था हो चुका है...
क्यूंकि हम बिना फोर्मलिटी के जीने वाले इन्सान हैं..इसीलिए समझ सकते हैं की किसी न किसी वजह से शायद ऐसा हो गया होगा....
वरना हमें भी एक पोस्ट लिखनी चाहिए थी....हमारे ही छोटे भाई-बहनों ने ,अजीज़ दोस्तों ने एक आयोजन किया और हमें बताया तक नहीं....लेकिन हम और हमारे दोस्त समझ सकते हैं कि हमें बुलाना सिर्फ एक फोरमेलिटी होती..जो ना हमें पसंद है ना हमारे दोस्तों को...!
उलटा हमने उन्हें फोन करके निमत्रण ना देने के लिए धन्यवाद कहा...
अब बात के लगने को ही लीजिये...
जो दुःख जमाल साहब को उस मंच से पहुंचा है...हमारी मानें तो उतना ही इस पोस्ट से भी पहुंचा होगा...जो आदमी आयोजन के लिए न सिर्फ बड़े भाई की तरह मदद कर रहा है , अपितु आर्थिक सहायता उपलब्ध करवा रहा है...
उस के लिए पारिश्रमिक का सवाल....!!!
सर्वत जी के साथ जाने / अनजाने में जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ..और हम भी उनसे हाथ जोड़कर, पांव छूकर माफ़ी मांगते हैं...
जवाब देंहटाएंखुदा के लिए ये ना कहिएगा कि जब आप वहाँ थे ही नहीं तो आप कौन होते हैं माफ़ी मांगने वाले...?
'' इस सारे प्रकरण से बहुत दूर होते हुए भी सैनिक की बात पर किसी भी तरह का अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है हमारे पास..''
जमाल साहब की पीड़ा को समझ सकते हैं..ये भी मानते हैं की शो ख़त्म होने के बाद माफ़ी मांगे या जो करें..जो होना था हो चुका है...
क्यूंकि हम बिना फोर्मलिटी के जीने वाले इन्सान हैं..इसीलिए समझ सकते हैं की किसी न किसी वजह से शायद ऐसा हो गया होगा....
वरना हमें भी एक पोस्ट लिखनी चाहिए थी....हमारे ही छोटे भाई-बहनों ने ,अजीज़ दोस्तों ने एक आयोजन किया और हमें बताया तक नहीं....लेकिन हम और हमारे दोस्त समझ सकते हैं कि हमें बुलाना सिर्फ एक फोरमेलिटी होती..जो ना हमें पसंद है ना हमारे दोस्तों को...!
उलटा हमने उन्हें फोन करके निमत्रण ना देने के लिए धन्यवाद कहा...
अब बात के लगने को ही लीजिये...
जो दुःख जमाल साहब को उस मंच से पहुंचा है...हमारी मानें तो उतना ही इस पोस्ट से भी पहुंचा होगा...जो आदमी आयोजन के लिए न सिर्फ बड़े भाई की तरह मदद कर रहा है , अपितु आर्थिक सहायता उपलब्ध करवा रहा है...
उस के लिए पारिश्रमिक का सवाल....!!!
Sarvat jamal JI ke hue apaman ke paksh me mail dekh kar pratikriya kuch alag hoti par dusare paksh ke spshtikaran se bat saf ho gayi,vah log pahale bhi mafi mang chuke hai,aur ab fir mangi hai .ab is vishay par charcha vyarth hai.jamal ji ne yah bat nahi batai thi ki vo mafi mang chuke hai.
जवाब देंहटाएंpavitra
बाकि सब तो ठीक है लेकिन मुझे ये परिस्थिति के "हाथ से निकल जाने" वाली बात समझ नहीं आई। क्या ऐसा संभव है कि मोडेरेटर के होते हुए कोई आमन्त्रित कवि कविता पाठ करने से रह जाए? मैं नहीं जानता कि यह सम्मेलन किसने मोडरेट किया था -लेकिन क्या मोडेरेटर ने "परिस्थिति के हाथ से निकल जाने" की बात का सहारा लेकर आने वाले समय में इस तरह की और घटनाओं के होने का रास्ता नहीं खोल दिया है? अब तो कोई भी मोडरेटर "परिस्थिति के हाथ से निकल जाने" की बात कहकर किसी भी आमन्त्रित रचनाकार को दरकिनार लगा सकता है!
जवाब देंहटाएंबात को ज्यादा तूल देने से सर्वत भाई का अपमान तो कम नहीं हो जाएगा वरन ये सारी बाते जले पर नमक छिडकने े जैसी है अच्छाा तो यह है कि आगे से इन बातो का ध्यान रखा जाय|े मै भी सर्वत भाई से मिल चुकी हू वे उदार व्यक्ति ह|ै जाने अनजाने जो भी हुआ हो उसे छोडकर आगे बदने में ही भलाई है|
जवाब देंहटाएंइस समय मेरे किताब के कारोबार का सीज़न होने की वजह से पोस्ट देर से पढ़ पाया
जवाब देंहटाएंसर्वत जी आज इलाहाबाद आये थे और उनसे मुलाक़ात हुई | उनसे मुलाक़ात होने के ठीक पहले मुझे इस पोस्ट की जानकारी हुई और पोस्ट बिना पढ़े ही सर्वत जी से इस विषय में बहुत सी बात हुई | सर्वत जी ने बहुत सी बात कही |
मगर अब पोस्ट को पढ़ कर यह कहता हूँ कि दुखद स्थिति है
वास्तव में बातों को एकतरफा करके प्रस्तुत किया गया है और यह बात मुझसे ज्यादा “वीनस केशरी” से ज्यादा अच्छी तरह कौन जान सकता है
नवोन्मेष संस्था द्वारा आयोजित मुशायरे के इस कार्यक्रम के साथ सर्वत जी शुरुआत से जुड़े हुए थे और उन्होंने पवन सिंह जी के द्वारा इस कार्यक्रम के लिए कंचन जी को एक धनराशि भी मुहैया करवाई जिसके लिए इस कार्यक्रम की कर्ताधर्ता नवोन्मेष संस्था की स्थापना करने वाली कंचन जी हार्दिक शुक्रगुजार थी और हैं
सर्वत जी कार्यक्रम के शुरू होने अर्थात ८ बजे रात की जगह दोपहर में ही आये थे और बाकी के शायरों को होटल में ठहराने की व्यवस्था थी मगर ये सर्वत जी से हमारा अपनापन था कि उनके रुकने की व्यवस्था खुद कंचन जी के घर में थी
सर्वत जी के आने की खबर मिलते ही मैं अपना खाना बीच में छोड़ कर और भाग कर घर से २०० मीटर दूर से उनको रिसीव करने गया
घर आ कर सभी से मिले और बहुत अच्छे माहौल था
कार्यक्रम शुरू होने से पहले जिन महानुभाव ने सर्वत जी का नामोल्लेख किया, सर्वत जी ने बाद में खुद ही ये बात मुझसे मंच पर बैठे बैठे कही थी कि, सन १९७५ के जिस समय का जिक्र वो कर रहा है उस समय तो भगवान जाने इस बंदे नें मुझे कहाँ सुना होगा और ये जितनी दारू पिए हुए हैं इसको तो शायद अपना नाम भी ठीक से याद न हो,, १९७५ की घटना क्या ख़ाक याद होगी
और ये बात भी दीगर है कि जिस समय उन महानुभाव ने सर्वत जी के बारे में कहना शुरू किया
मेरी और सर्वत जी की नज़रे मिली और हम दोनों ही उसकी बोलने के तरीके पर मुस्कुरा पड़े
और उस समय तो स्थिति और भी हास्यपद हो गई जब गुरु जी पंकज सुबीर जी को उन महानुभाव में सर्वत जमाल समझ लिया
और बाद में जब गलती का एहसास हुआ तो कहने लगे मैं सर्वत जी को पहचानता ही नहीं, सर्वत जी और मेरा हँसी के मारे बुरा हाल था
बाद में सर्वत जी को और मुझे पता चला वो दैनिक जागरण के ब्यूरो चीफ हैं
कार्यक्रम की शुरुआत में सभी शायरों को एक एक कर मंच पर स्थापित किया गया उनका माल्यार्पण किया गया उन्हें मोमेंटो दिया गया,,, जिसमे सर्वत जी भी ससम्मान शामिल थे |
जिस कार्यक्रम में स्थानीय कवियों तक को पढ़ने का मौक़ा दिया गया, सर्वत जी को काव्यपाठ का मौक़ा नहीं मिल सका, यह मुझ सहित सभी के लिए दुःख की बात है, कार्यक्रम समाप्त होते ही उस मंच पर ही मैं कंचन दीदी और सर्वत जी बैठे थे | मैं रुआंसा हो गया और कंचन दीदी भी बार बार माफी मांग रही थीं |
फिर कंचन जी के घर पर वापसी हुई और मैंने सर्वत जी ने और अर्श भाई ने साथ साथ भोजन किया और उसके बाद सर्वत जी और मैं कमरे में सोने चले | बाद में बाकी शायर भी होटल चले गए |
सुबह एक बार फिर से माफी का सिलसिला शुरू हुआ,,,,, अर्श भाई ने बार बार माफी माँगी, कंचन जी ने माफी माँगी और मैंने माफी मांगी, सर्वत जी ने बहुत विशाल ह्रदय का परिचय देते हुए बात को खत्म ही कर दिया फिर गुरु जी से मैंने फोन पर बात की तो सर्वत जी ने भी गुरु जी पंकज सुबीर जी से बात की कि वो उनका इंतज़ार कर रहे हैं |
जवाब देंहटाएंफिर मेरी ट्रेन होने की वजह से मैं गोरखपुर के लिए निकल गया |
बाद में सर्वत जी का फोन आया और उन्होंने मुझे खुद कहा कि बाकी शायर और गुरु जी होटल से घर पर आये थे पंकज सुबीर जी, मध्य प्रदेश उर्दू समिति की अध्यक्षा नुसरत मेहंदी जी, और मोनिका जी ने खुद बार बार उनसे माफी माँगी हैं और नुसरत जी ने कहा है कि जब तक हम आपको एक इससे भी बड़े मंच पर सम्मानित नहीं कर देते तक तक हम सभी आपके कर्ज़दार हैं
और उसके बाद उन सभी ने उनसे दो गजल भी सुनी और सर्वत जी ने बहुत बढ़िया माहौल में दो दिलकश गजलें सुनाई जिस पर सभी ने खुले दिल से दाद दी, इसके बाद सर्वत जी भी सभी के साथ एक ही गाड़ी में गोरखपुर तक आये और मुझसे बात करते हुए भी खुश थे
साथ ही सर्वत जी ने फोन पर कहा था कि उन्हें कंचन जी की बड़ी दीदी रुपये दे रही थी मगर उन्होंने ये कह कर लेने से साफ़ इनकार कर दिया कि वो गजल पाठ नहीं कर सके इसलिए वो इसके हकदार नहीं हैं और चूँकि कंचन जी की बड़ी दीदी; सर्वत जी से छोटी हैं इस लिए वो व्यवहार स्वरूप भी या विदाई स्वरूप भी उस लिफ़ाफ़े को ग्रहण नहीं कर सकते | यहाँ ये बात भी काबिलेगौर हैं कि मैं बड़ी दीदी से लिफाफा नहीं ले रहा था और नहीं ही ले रहा था... फिर सर्वत जी ने ही बार बार मुझे कहा कि बड़ों का आशीर्वाद है वीनस, इसके लिए मना मत करो, रख लो |
यह वे बाते हैं जिनका जिक्र आपकी पोस्ट में नहीं किया गया और जिनका जिक्र जरूरी है और इसके बिना इस पोस्ट को एक तरफा एक पक्षीय कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है आपको ये बाते पता है और आपने ये बातें जानबूझ कर नहीं लिखी है तो यह अत्यंत निंदनीय है खास कर वो दो बात जो सर्वत जी ने मुझे खुद फोन पर बताई थी
दुःख है कि आपको या किसी और को लगता है कि सर्वत जी के गजल पाठ से पंकज सुबीर जी को धाक जमाने में कोई दिक्कत होती| आपकी इस बात पर क्या कहूँ |
पंकज सुबीर जी को दो बार भारत की सुप्रसिद्ध साहित्यिक संस्था भारतीय ज्ञान पीठ से ज्ञानपीठ नवलेखन पुरूस्कार मिल चुका है और उन्हें कोई जरूरत नहीं है यह सब करने की |
पारिश्रमिक की बात करना ही बेमानी है|
आमने सामने कंचन दीदी, गुरूजी पंकज सुबीर जी मोनिका दीदी और आदरणीय नुसरत मेहंदी जी के भी बार बार माफी मांगने के बाद भी अगर आपको लगता है कि गुरु जी को इस ब्लॉग पर माफी मांगनी चाहिए तो क्षमा करे यह अनुचित है
अगर किसी को लगता है कि पंकज सुबीर जी ने माफी नहीं माँगी है तो सर्वत जी से संपर्क करके स्थति स्पष्ट कर ले तो हे कोई राय बनाए |
आज सर्वत जी मेरे घर आये थे और उन्होंने स्पष्ट कहा कि वीनस तुम यहाँ इस पोस्ट पर कोई कमेन्ट मत करो
मुझे इस बात से बहुत धक्का पहुचा
मगर पोस्ट पढ़ने के पहले ही मैंने उन्हें कह दिया था मैं पोस्ट पढ़ कर जो उचित होगा कमेन्ट करूँगा
और कमेन्ट जरूर करूँगा
कहने को दिल में बहुत सी बात है मगर कम लिखा ज्यादा समझियेगा
सुभाष जी आप वहाँ पर नहीं थे मगर मैं वहाँ पर था और लगातार सर्वत जी के साथ था
अगर किसी को मेरी कही कोई बात गलत लगती है तो सर्वत जी से इस बात को साफ़ कर लें कि वीनस केशरी ने सच कहा है या झूट और अगर उसके बाद भी किसी को मेरी कही किसी बात से कोई आपति है तो सर्वत जी से मेरा फोन नंबर ले कर मुझसे संपर्क कर सकते है
आज सर्वत जी से मैंने एक प्रश्न किया था जिसका जवाब मुझे उनसे नहीं मिल पाया,,,उस प्रश्न को यहाँ छोड़े जा रहा हूँ
@ सर्वत जी निवेदन है कि अगर आप बाकी के लोगों को कोई उत्तर देते हैं या कोई कमेन्ट करते हैं तो इस प्रश्न का उत्तर भी जरूर जरूर दे दीजियेगा और सिर्फ हाँ या नहीं में दीजियेगा
प्रश्न – अगर वहाँ सब कुछ बढ़िया से होता और वैसे ही होता जैसे होना चाहिए था, आप काव्यपाठ करते तो क्या आप अन्य शायरों की तरह काव्य पाठ का पारिश्रमिक लेते ?
एक बार फिर से कहता हूँ --- दुखद स्थिति है
मैं भी सिद्धार्थनगर गया था। कंचन के फोन किया था और कहा था कि मुझे वहां आना है। मैं गया। मेरा कुछ काम नहीं था वहां। लेकिन कंचन की बात टालना मेरे लिये मुमकिन नहीं था इसलिये गया। न मैं शायर हूं न नाटक लेखक न कंचन के गुरुकुल का। लेकिन इस बहादुर बच्ची का अनुरोध मेरे लिये आदेश सरीखा था जिसे मैं टाल नहीं सकता था। बाकी लोग भी लगभग इसी तरह आये थे। हाल ही में कंचन के भाई की मौत और उसके बाद एक के बाद एक आयी पारिवारिक परेशानियों (उनकी दीदी का कैंसर एडवांस स्टेज मे है) में उसको सांत्वना देने की कोशिश भी एक कारण था मेरे जाने का।
जवाब देंहटाएंकवि सम्मेलन वाले दिन मुझे अचानक लौटना पड़ा। मैं लौट आया। लेकिन इस एक दिन में ही जिस तरह से आयोजन के लिये इन लोगों ने जिस तरह के प्रयास किय उसको याद करके मैं आज भी सोचता हूं कि कैसे किया होगा इन लोगों ने? क्या जरूरत थी यह सब करने की। यही सब सुनने के लिये और बार-बार माफ़ी मांगने के लिये?
सर्वत जमाल जी बड़े शायर हैं। उनको मंच पर बुलवाकर उनको पढ़वाने के न बुलवाना एक चूक है। गलती है। उसके लिये क्या इनको फ़ांसी पर चढ़ा देंगे? हाथ जोड़ कर पांव छूकर माफ़ी मांगने के बाद क्या उसकी लाइव टेलीकास्ट भेजें ये लोग?
सर्वत जमाल जी शायर बहुत बड़े होंगे लेकिन अगर यह सब वे पढ़ रहे हैं और इस मसले पर मौन हैं तो मेरी नजर में आदमी बहुत छोटे हैं। ऐसा लग रहा है कि अपनी जिंदगी में आखिरी बार मुशायरे में शिरकत करने का मौका छीन लिया गया उनसे कुशीनगर में।
मैंने शाहजहांपुर में आठ साल कवि सम्मेलन कराये हैं। उनकी परेशानियों से वाकिफ़ हूं। राजबहादुर’विकल’ और दामोदर स्वरूप ’विद्रोही’ हमारे शहर के कवि थे। उनसे हम एक कविता नहीं पढ़वाते थे। विकल जी को अध्यक्ष बना देते थे और दामोदर स्वरूप’विद्रोही’ जी नीचे बैठे चाय पीते रहते थे अपने समर्थकों के साथ। एक बार वीर रस के कवि अग्निवेश शुक्ल पहन के तहमद मंच पर जबरियन चढ़ गये और कविता पढ़कर उतर आये। संचालक,श्रोता और सिक्योरिटी सब देखते रहे।
कुछ दिन पहले कानपुर में हुये एक कवि सम्मेलन में नीरज जी धड़ल्ले से कविता पाठ कर रहे थे। घंटों गुजार दिये उन्होंने तो पदम श्री बेकल उत्साही जी भन्ना के मंच से उठकर चले गये कहते हुये- तुम लोग नीरज से ही सुन लो। उनको न संचालक ने टोका न श्रोताओं ने रोका। वे फ़िर शायद आये भी नहीं। न अगले दिन इसकी कोई खबर छपी अखबार में।
कवि सम्मेलन के एक दिन पहले हुये नाटक में जिस तरह बच्चे बिलख-बिलख कर यह सोचकर रो रहे थे कि अब वे बिछुड़ जायेंगे और अगले दिन से नाटक का अभ्यास नहीं करेंगे यह मेरे जीवन की एक अविस्मरणीय घटना है। उन बच्चों ने घर-घर जाकर पर्चे बांटे नाटक के बारे में बताया, लोगों को बुलाया। भयंकर गर्मी में इतनी मेहनत करने का जज्बा लिये बच्चों से मिलकर मुझे अद्भुत खुशी मिली।
--जारी
यह पोस्ट जिन लोगों ने लिखी है वे वहां थे नहीं इसीलिये इतने आत्मविश्वास से सब लिखा है सूचनायें इकट्ठा करके। कई लोगों ने अपने बयान भी जारी किये हैं। मैं वहां था। जिस तरह रात भर, बिना बिजली वाले घर में पसीना बहाते हुये सोते-जागते गौतम ये लोग लगे रहे आयोजन के इंतजाम में उसको देखने की बाद मैं तो यह कत्तई सोच भी नहीं सकता कि इन जानबूझकर किसी ने इरादतन अपमान करने की मंशा से ऐसा किया होगा।जो हो गया अनुभवहीनता के चलते या किसी चूक के चलते उसके लिये अफ़सोस व्यक्त करने के अलावा क्या किया जा सकता है?
जवाब देंहटाएंजो लोग पंकज सुबीर पर यह आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने जानबूझकर सर्वतजमाल को नहीं पढ़वाया वे दुनिया के और मामलों में बड़े ज्ञानी होंगे लेकिन कवि सम्मेलन का ककहरा नहीं जानते होंगे। कवि सम्मेलन से जुड़े होने के नाते होते पंकज सुबीर अच्छी तरह होंगे कि अगर वे जानबूझकर ऐसा करेंगे तो उनकी कितनी थुक्का-फ़जीहत होगी। इसके बनिस्बत वे सर्वत जमाल कि किसी बेमौके बुलवाकर भी फ़्लॉप करवा करवा सकते।मुझे यह मानने में कत्तई संदेह नहीं कि यह चूक पंकज सुबीर से अनजाने में या मजबूरी हुई( यह भी बता दूं कि न मैं पंकज सुबीर का चेला हूं न शायर/गजलकार और न मुझे उनके यहां कोई किताब छपवानी है)
कुल मिलाकर मुझे यह पोस्ट शातिर पोस्ट लगी जिसमें कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाले अंदाज में गोलियां दागी गयी हैं। बहुत घाघ अंदाज में।
सर्वत जमाल जी अगर यह पोस्ट पढ़ें तो कृपया कंचन के बारे में लिखा मेरा यह संस्मरण पढ़ें (अन्य होंगे चरण हारे) इसमें कंचन ने अपने बचपन का एक किस्सा बयान करते हुये बताया है-“मैं वह घट्ना कभी नहीं भूल सकती जब प्रिंसिपल मैडम एक बार क्लास खत्म होने पर कुचलते हुये चले गयीं थीं । उन्होंने पलट के यह भी नहीं देखा कि उनके पैर के नीचे कोई कुचला गया है।”
आप देखिये कहीं आपके कवि सम्मेलन में आपके द्वारा कविता न पढ़वाये जाने का दुख एक बहादुर लड़की के आत्मविश्वास को तो नहीं रौंद रहा है।
पारिश्रमिक की बातें मैं नहीं जानता क्या हुआ होगा। लेकिन जब मैं सुबह वहां से चला तो कंचन की दीदी ने जबरदस्ती मुझे नेग कहकर रुपये दिये। मैं बार-बार मना करता रहा लेकिन वे मानी नहीं और जबरदस्ती नेग दिया। पूरे रास्ते मैं और कुश यह बात करते आये कि अगर घर वाले ऐसे न होते तो कंचन को इतना आत्मविश्वास कैसे हासिल होता।
करमचंद जासूस की तरह इधर-उधर से तथ्य जुटाकर पोस्ट लिखने की बजाय अगर लोग वहां गये होते तो शायद बेहतर बात कर पाते। लोगों का क्या वे तो जो लिखा गया वही पढ़कर प्रतिक्रिया करेंगे।
अविनाश वाचस्पति ने लिखा है:
सभी मित्रों से इस पीड़ा पर अपनी बेबाक प्रतिक्रियाएं देने और सहमति स्वरूप साथियों से अपने ब्लॉग पर पुनर्प्रकाशन के लिए विनम्र अनुरोध है।
- अविनाश वाचस्पति
तो इस पर मेरी बेबाक प्रतिक्रिया यह है कि किसी के मान-अपमान से जुड़ी खबर प्रतिक्रिया वाली टिप्पणी प्रकाशित करने के बाद तो कम से कम देख लिया करें। ये जो Lalit Kumar के नाम से ललित टिप्पणियां की गयी हैं वे फ़र्जी प्रोफ़ाइल से की गयी हैं। आप कम से कम इनको तो हटाइये और वर्ना मुझे यही लगेगा आप या कोई पोस्ट लेखक का हितचिंतक या सर्वत जमाल जी का कायर प्रशंसक अपने जौहर दिखा रहा है। कम से कम इतना तो समझ ही सकते हैं आप अविनाश जी!
@अनूप जी,
जवाब देंहटाएंमैं पंकज सुबीर का मैं शिष्य नहीं हूँ , मगर उनके कार्य के बारे में जितना जानता हूँ , उसके बारे में अपने ब्लाग पर शायद तीन बार पोस्ट लिखकर उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त कर चुका हूँ और ऐसा करके मैंने उन पर कोई अहसान नहीं किया है बल्कि मेरे विचार से वे इस सम्मान के हकदार है !
अनूप भाई का जवाब बहुत गुस्से में दिया गया लगता है ...और कई स्थान पर वे मर्यादा उल्लंघन के दोषी भी हैं यह खेद जनक है ! उनके द्वारा उपयोग में लाये गए शब्द उनके व्यक्तित्व और छवि से मेल नहीं खाते और मेरे जैसे उनके प्रसंशकों के लिए तकलीफ देह हैं ! स्वस्थ बहस खराब नहीं मानी जानी चाहिए जब तक वहां आपा न खोया जाए !
बेहद संवेदनशील, ईमानदार एवं सम्मानित बहिन कंचन चौहान कम से कम मेरे लिए बहुत श्रद्धेय हैं ......इसमें किसी को कोई संदेह नहीं हो सकता ...
चूंकि मैं अनूप भाई का विभिन्न कारणों से सम्मान करता हूँ अतः उनके इस विरोध को देखते हुए बिना किसी शिकायत के अपने आपको इस बहस से अलग करता हूँ !
हाँ पंकज सुबीर जी और सरवत जमाल से उनके मौन पर शिकायत अवश्य रहेगी .....
मुझे लगता है मेजर के कथन के बाद.ओर आदरणीय कविता जी की टिपण्णी के बाद वैसे भी कुछ कहने को शेष नहीं रह गया था है ..बाकी अर्श ओर वीनस ने कह दिया है ....यूँ भी .....इस दुखद घटना के लिए जिस तरह से सभी ने ह्रदय से क्षमा मांगी है वह उन सभी के व्यक्तित्व ओर उनकी सोच को दिखाता है ....कंचन को किसी स्पष्टीकरण की जरुरत नहीं है .
जवाब देंहटाएंबचकानी बातों पर ग्रन्थ लिख देना हमारे हिंदी ब्लॉग-जगत की परंपरा है. यह पोस्ट ग्रन्थ लिखने की दिशा में पहली चौपाई है. स्वस्थ बहस के नाम पर हम अक्सर चमत्कार करते रहते हैं और यह पोस्ट भी चमत्कार ही है.
जवाब देंहटाएंचमत्कार के लिए बधाई.
प्रेम जन्मेजय की पीड़ा जायज है और जायज है सर्वत जमाल का भी दर्द -मुझे सबसे आश्चर्यजनक यह लग रहा है की अपमानित और अपमान करने वाला दोनों ही खामोश है -अपमानित की पीड़ा तो खैर समझी जा सकती है मगर दो शब्द पंकज सुबीर अपने मुखारबिन्द से कह दिए होते तो शायद यह विवाद अनावश्यक रूप से इतना नहीं खिंचता -एक संचालक के रूप में हुयी चूक अब यहाँ एक व्यक्ति की भी सायास चूक में तब्दील होती दिख रही है -बाकी तो लम्बरदार लोग बीच बचौवल के लिए आ ही जाते हैं ....किसी को आठ कवि सम्मलेन के आयोजन की याद है (ताज्जुब है संख्या तक याद रखते हैं ऐसे मौकों पर लिखने के लिए ...शायद इसलिए कि गली कूंचे वाले कहीं भूल न जायं ) ...अब मैं कैसे कहूं की झांसी में अखिल भारतीय कवि सम्मलेन का संयोजन मैंने १९८७-८८ में किया था ..उर्मिलेश जी संचालक थे,सोम ठाकुर ,कैलाश गौतम जैसे दिग्गज पधारे थे -आगे भी कवि सम्मेलनों से विभिन्न हैसियतों में जुड़ने का सौभाग्य/दुर्भाग्य रहा है मेरा -केवल यह कहने के लिए यह उल्लेख करना पड़ा कि संचालक ही मंच का सर्वे सर्वा होता है ..सर्वत जमाल को अगर संचालक ने तवज्जो नहीं दी तो इसके बस दो ही खास कारण हो सकते हैं -या तो उन्हें सर्वत जमाल इस काबिल नहीं दिखे ...या फिर उनके मन में इस अजीम शायर के प्रति ईर्ष्याभाव हो ...बाकी तो सब बहाने बाजी है ....
जवाब देंहटाएंबहरहाल साहित्य और इससे जुड़े लोगों का यह अंतहीन गिरता स्तर चिंता का विषय तो है ही ...
राय साहब
जवाब देंहटाएंबहुत पहले जब सर्वत साहब ब्लॉग पर अवतरित हुए थे हम पहले ही दिन से उनकी कलम की ताक़त के कायल हो गए थे. उनकी गजलों में व्यवस्था की सड़ांध को निकल फेकने का जो जज्बा है वह उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है . सर्वत की गजल ज़िन्दगी को ज़िन्दगी देने की जंग का औजार है . सर्वत के जज्बों की पर्वत सी ऊंचाई को मीरासी और भांडगीरी कर के चन्द चांदी के टुकडो की खातिर हुनर बेचने वाले कभी छू भी नहीं पाएंगे .
जहाँ तक सर्वत साहब के साथ घटी घटना और उस पर आई प्रतिक्रियाओं माफीनामों की बात है ,किसके मन में उस समय क्या रहा होगा और वह बाद में क्या कह रहा है ,इसे या तो वह खुद जानता है या खुदा जानता है .बेहतर होगा कि आयोजक और संचालक अपने अपने ढंग से घटना का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत करें . इस पूरे घटना क्रम का पश्चाताप चाहे जैसे कर लिया जाये .अपमान की वेदना की भरपाई नहीं हो सकती .
सर्वत साहब से निवेदन है कि इश्वर पर भरोसा करें और उसके द्वारा दिए गए हुनर से साहित्य और समाज की सेवा जारी रखें . इश्वर की लाठी बे आवाज होती है .मै समझ सकता हूँ कि आपको ही नहीं आपके परिवार को भी बहुत यंत्रणा से गुजरना पड़ा होगा .
साहित्य को समाज के सुख का माध्यम मानने वाले ब्लॉगर इस का निराकरण कर लेंगे .यह विश्वास है .
राय साहब पीड़ा की अनुभूति करने और न्याय का प्रयास करने के लिए आप साधुवाद के पात्र है
बहुत पहले जब सर्वत साहब ब्लॉग पर अवतरित हुए थे हम पहले ही दिन से उनकी कलम की ताक़त के कायल हो गए थे. उनकी गजलों में व्यवस्था की सड़ांध को निकल फेकने का जो जज्बा है वह उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है . सर्वत की गजल ज़िन्दगी को ज़िन्दगी देने की जंग का औजार है . सर्वत के जज्बों की पर्वत सी ऊंचाई को मीरासी और भांडगीरी कर के चन्द चांदी के टुकडो की खातिर हुनर बेचने वाले कभी छू भी नहीं पाएंगे .
जवाब देंहटाएंजहाँ तक सर्वत साहब के साथ घटी घटना और उस पर आई प्रतिक्रियाओं माफीनामों की बात है ,किसके मन में उस समय क्या रहा होगा और वह बाद में क्या कह रहा है ,इसे या तो वह खुद जानता है या खुदा जानता है .बेहतर होगा कि आयोजक और संचालक अपने अपने ढंग से घटना का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत करें . इस पूरे घटना क्रम का पश्चाताप चाहे जैसे कर लिया जाये .अपमान की वेदना की भरपाई नहीं हो सकती .
सर्वत साहब से निवेदन है कि इश्वर पर भरोसा करें और उसके द्वारा दिए गए हुनर से साहित्य और समाज की सेवा जारी रखें . इश्वर की लाठी बे आवाज होती है .मै समझ सकता हूँ कि आपको ही नहीं आपके परिवार को भी बहुत यंत्रणा से गुजरना पड़ा होगा .
साहित्य को समाज के सुख का माध्यम मानने वाले ब्लॉगर इस का निराकरण कर लेंगे .यह विश्वास है .
पीड़ा की अनुभूति करने और न्याय का प्रयास करने के लिए आप साधुवाद के पात्र है
सतीश भाई साहब से सहमत हूँ ! मुझे उम्मीद थी अब तक तो बात खत्म हो गयी होगी पर..................!!
जवाब देंहटाएंअब यह बात नैतिकता की नहीं बल्कि २ अलग अलग खेमो की होती जा रही है .............और माफ़ कीजियेगा मैं किसी भी खेमे में नहीं हूँ और ना होना चाहता हूँ !
बार बार सिर्फ़ और सिर्फ़ २ लोगो का नाम आ रहा है - पंकज जी और सरवत जी | और इन दोनों ही ने अभी तक इस कि जरूरत नहीं समझी कि यहाँ केवल एक लाइन ही लिख देते !
हो सकता है मुझ से ये पुछा जाए कि मैं कौन होता हूँ किसी से भी कोई सफाई मांगने वाला ..........सच है मैं कोई भी नहीं ........पर हाँ जब बात यहाँ तक आ ही गयी है तो अगर सब कुछ बेपर्दा हो जाए तो क्या हर्ज़ है ?? सिर्फ़ २ लोगो को ही तो कहना है जो भी कहना है क्यों है ना ? तो एक बार फिर इस उम्मीद से जा रहा हूँ कि अगली बार तक सब कुछ साफ़ हो चूका होगा !
वरना हमें भी एक पोस्ट लिखनी चाहिए थी....हमारे ही छोटे भाई-बहनों ने ,अजीज़ दोस्तों ने एक आयोजन किया और हमें बताया तक नहीं....लेकिन हम और हमारे दोस्त समझ सकते हैं कि हमें बुलाना सिर्फ एक फोरमेलिटी होती
जवाब देंहटाएंहम तो अपने इस कमेन्ट से घबराकर वापस आये थे..शायद हमारे भी आहत मन की पीड़ा को समझ कर किसी ने यहाँ पर कोई नया लेख तो नहीं डाल दिया...
पर इधर तो और कई तरह की पीडाओं का उल्लेख है...
ब्लॉग संचालक का आभार...
:)
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आपके आने के लिए धन्यवाद
लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद
बेबाकी...और मोडरेशन के साथ....
:)
है बहुत बेबाक, बेशक....
जाने दीजिये.....
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आपके आने के लिए धन्यवाद
लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद
बेबाकी...और मोडरेशन के साथ....
:)
है बहुत बेबाक, बेशक....
जाने दीजिये.....
खैर साहित्यकारों की खूब कबड्डी हुई ....मुआफ करें तथाकाहित साहित्यकरों कि या आदाब नवाज़ों की......... मुआफ करें मैं आदाब नवाज़ों के साथ थोडा ज्यादती कर रह हूँ इस वक़्त ..और और खूब पाले मारे गये....सब इसी होड़ में की कौन सही है बजाय इसके की क्या गलत हुआ ......अच्छा एक बात और कह दूं की बरसों बाद एक ऐसे मुशायरे का आयोजन हुआ या मुनाक्कित किय गया जिसमे शायर ने ही ग़ज़ल नहीं पढ़ी या नहीं पढवाया गया .......बरसों बाद इसलिए की मुशायरे का मयार ही वो नहीं रहा जिस दयार में सर्वात जमाल गजल कहते .. और हाँ सर्वात साहब साहब आप क्यों उदास होतें हैं ....लोगों ने यगाना चंगेजी तक को जूते की माला पहना कर घुमा दिया..
जवाब देंहटाएं--- मुझे राजरिशी जी - वीनस - अर्श - कंचन जी निर्दोष लगते हैं , ये आयोजक-मंडल में थे , शायद मुख्य भूमिका कंचन जी की है इस हेतु उनका उत्साह स्तुत्य भी है ! .. ये निर्दोष हैं इसलिए कि इस पोस्ट में जिस 'दोष' को बताया गया है उसमें एक राजनीति भी हो सकती है और मैं इन सबको फिलहाल शातिर सियासती नहीं मान पा रहा हूँ , कोई प्रमाण ऐसा नहीं दिखता जिसमें मुझे सीधे इन सबकी गलती दिखे , क्योंकि मंच पर नियंत्रक शक्ति तो संचालक होता है , इसलिए इन लोगों का इतना ज्यादा माफी मांगना न तो युक्तिसंगत है और न ही प्रभावकारी ! .. कंचन जी की टिप्पणी पढ़कर मुझे भी दुःख पहुंचा ... वे बंधु-द्वय जो स्वयं को कंचन जी का भाई कहते हैं और इन मामलों से सीधे जुड़े हैं उन्हें यहाँ आकर अपनी बात रखनी चाहिए और इस बहिन की अन्तः ग्लानि को महसूस करना चाहिए ... ! ... हे बड़े कवियों , तुम जन-पीड़ा से इतने कटे हुए कवि हो ! बड़प्पन क्या सिर्फ कविताई की चीज है !
जवाब देंहटाएं--- एक प्रश्न जरूर खड़ा होता है कि सर्वत जी के साथ हुए अन्याय से ये सारे लोग इतने ज्यादा दुखी थे तो अपने इतने ज्यादा सिद्धार्थनगर से सम्बद्ध लेखन में एक झलक भी इस बात की क्यों नहीं दिखाई ! अब तक तो ये लोग सिद्धार्थनगर के नामपर पोस्ट लिख लिखकर कुमार विश्वास - पंकज सुवीर की काव्य-प्रतिभा का दस्तावेज बना रहे हैं और इतने खेद से गुजरे हैं तो कहीं तो एक पंक्ति मिलती कि '' ............. सर्वत साहब के साथ जो हुआ वह खेदजनक है .... '' ! इससे एक खटकन पैदा होती है और सिद्धार्थनगर से सम्बंधित इनके लेखन की इमानदारी पर संदेह भी ! .. संभव है 'गुरु-दक्षिणा' देने के मोह में ऐसा न कर सके हों ! .. पर यह कमी तो है ही !
--- ३०० किमी. से किसी को कवि के नाम पर बुलाया जाय और उससे कविता न पढवाई जाय जबकि गली-कूचे के किसी भी कवि को मौक़ा दिया जाय , तो यह अपमानजनक/दुखद/निंदनीय है ! .. निश्चय ही संचालक को सीधे बरी नहीं किया जा सकता , कवि सम्मेलनों में ऐसी राजनीतियाँ होती रहती हैं , इसलिए पंकज सुवीर के ऐसे निर्णय में सियासती पेंच हो सकता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता .. इस बात का क्या प्रमाण मानूं कि वाकई सुवीर दुखी हैं ... यह असंगत है कि मठाधीश मौन है और चेले मांफी मांग रहे हैं ... इसतरह मामले में पंकज के 'पंक' से इनकार नहीं किया जा सकता ! ... वैसे भी कविता-गिरी सिखाने के लिए मठ-गिरी और उस्ताद-गिरी का अपना कोई तुक नहीं दिखता , सिवाय सम्प्रदाय खड़ा करने के !
--- सर्वत जी ने अगर यह पोस्ट सायास लिखवाई है तो यह भी निंदनीय है , यह एक प्रति-राजनीति कही जायेगी .. और जब हमाम में सब नंगे तो कौन किसे कहने वाला ! ... वीनस केसरी के इस प्रश्न पर कुछ कहने की जरूरत नहीं महसूस होती कि 'जो यूँ होता तो क्या होता' , हम जो हुआ उसी के अनुसार अपनी बात को कहते हैं ! आभार !
--- मुझे राजरिशी जी - वीनस - अर्श - कंचन जी निर्दोष लगते हैं , ये आयोजक-मंडल में थे , शायद मुख्य भूमिका कंचन जी की है इस हेतु उनका उत्साह स्तुत्य भी है ! .. ये निर्दोष हैं इसलिए कि इस पोस्ट में जिस 'दोष' को बताया गया है उसमें एक राजनीति भी हो सकती है और मैं इन सबको फिलहाल शातिर सियासती नहीं मान पा रहा हूँ , कोई प्रमाण ऐसा नहीं दिखता जिसमें मुझे सीधे इन सबकी गलती दिखे , क्योंकि मंच पर नियंत्रक शक्ति तो संचालक होता है , इसलिए इन लोगों का इतना ज्यादा माफी मांगना न तो युक्तिसंगत है और न ही प्रभावकारी ! .. कंचन जी की टिप्पणी पढ़कर मुझे भी दुःख पहुंचा ... वे बंधु-द्वय जो स्वयं को कंचन जी का भाई कहते हैं और इन मामलों से सीधे जुड़े हैं उन्हें यहाँ आकर अपनी बात रखनी चाहिए और इस बहिन की अन्तः ग्लानि को महसूस करना चाहिए ... ! ... हे बड़े कवियों , तुम जन-पीड़ा से इतने कटे हुए कवि हो ! बड़प्पन क्या सिर्फ कविताई की चीज है !
जवाब देंहटाएं--- एक प्रश्न जरूर खड़ा होता है कि सर्वत जी के साथ हुए अन्याय से ये सारे लोग इतने ज्यादा दुखी थे तो अपने इतने ज्यादा सिद्धार्थनगर से सम्बद्ध लेखन में एक झलक भी इस बात की क्यों नहीं दिखाई ! अब तक तो ये लोग सिद्धार्थनगर के नामपर पोस्ट लिख लिखकर कुमार विश्वास - पंकज सुवीर की काव्य-प्रतिभा का दस्तावेज बना रहे हैं और इतने खेद से गुजरे हैं तो कहीं तो एक पंक्ति मिलती कि '' ............. सर्वत साहब के साथ जो हुआ वह खेदजनक है .... '' ! इससे एक खटकन पैदा होती है और सिद्धार्थनगर से सम्बंधित इनके लेखन की इमानदारी पर संदेह भी ! .. संभव है 'गुरु-दक्षिणा' देने के मोह में ऐसा न कर सके हों ! .. पर यह कमी तो है ही !
--- ३०० किमी. से किसी को कवि के नाम पर बुलाया जाय और उससे कविता न पढवाई जाय जबकि गली-कूचे के किसी भी कवि को मौक़ा दिया जाय , तो यह अपमानजनक/दुखद/निंदनीय है ! .. निश्चय ही संचालक को सीधे बरी नहीं किया जा सकता , कवि सम्मेलनों में ऐसी राजनीतियाँ होती रहती हैं , इसलिए पंकज सुवीर के ऐसे निर्णय में सियासती पेंच हो सकता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता .. इस बात का क्या प्रमाण मानूं कि वाकई सुवीर दुखी हैं ... यह असंगत है कि मठाधीश मौन है और चेले मांफी मांग रहे हैं ... इसतरह मामले में पंकज के 'पंक' से इनकार नहीं किया जा सकता ! ... वैसे भी कविता-गिरी सिखाने के लिए मठ-गिरी और उस्ताद-गिरी का अपना कोई तुक नहीं दिखता , सिवाय सम्प्रदाय खड़ा करने के !
--- सर्वत जी ने अगर यह पोस्ट सायास लिखवाई है तो यह भी निंदनीय है , यह एक प्रति-राजनीति कही जायेगी .. और जब हमाम में सब नंगे तो कौन किसे कहने वाला ! ... वीनस केसरी के इस प्रश्न पर कुछ कहने की जरूरत नहीं महसूस होती कि 'जो यूँ होता तो क्या होता' , हम जो हुआ उसी के अनुसार अपनी बात को कहते हैं ! आभार !
प्रिय भाई सर्वत जमाल जी ने इस पोस्ट और सभी टिप्पणियों को बहुत ध्यान से पढ़-मनन कर ई मेल के जरिए जो कहा है, उसे मैं डॉ. सुभाष राय जी की सहमति से सार्वजनिक कर रहा हूं। इस टिप्पणी को बतौर पोस्ट इसलिए भी लगाया गया है क्योंकि पोस्ट बहुत नीचे चली गई है। इससे अवश्य ही संदेह और भ्रम के वे अंकुर काल-कवलित हो जाएंगे जो सुधि पाठकों, साहित्यकारों और टिप्पणीकारों के मन में जगह बनाने लगे थे। पढ़ने के लिए क्लिक कीजिए
जवाब देंहटाएंसर्वत जमाल का कहना है : आप सुन-समझ रहे हैं न ?
सर्वत जमाल से मेरा याराना 1978 से है जब वह गोरखपुर का रूपोर्ट मर्डाक हुआ करता था . विज्ञापन की दुनिया का बेताज बादशाह ! मैं उस वक्त ताज़ा ताज़ा 'जागरण' में सम्पादकीय प्रशिक्षु भर्ती हुआ था .मेरी लिखी हुई खबरों और हेडिंग पर अक्सर सम्पादकीय विभाग में चर्चा होती थी जिसमे सर्वत भी शामिल रहता था.तड़ित दादा तथा बाद में अखिलेश मिश्र की चेलहटी में हमारी दोस्ती पनपी जो आज बत्तीस साल बाद भी कायम है. उसकी खुद्दारी, हातिमताईपने और लाख दुश्वारियों में भी हमेशा नार्मल दिखने की आदतों ने उसे परेशान ही किया है, मगर यही तो उसका सर्वतजमालपन है जो उससे छूटता ही नहीं.नौकरी हमेशा सर्वत के लिए फ़ुटबाल जैसी रही जिसे उसने हमेशा लतियाया .बड़े बड़ों को सर्वत ने उनकी औकात दिखाई .सर्वत आज मेरे लिए बिलकुल अनजान सी, ना जाने किस दुनिया में जी रहा है, ना जाने किन लोगों से उसका साबका है ,ना जाने क्या उसकी मसरूफियतें हैं - मुझे नहीं पता फिरभी इतनी तो तसल्ली थी ही कि जहां भी है ,जैसे भी है ,ठीक ही होगा ,गत सप्ताह मैं सपरिवार लखनऊ गया था . सर्वत के घर ही ठहरा .मुझसे पहले मेरी पत्नी ने ही भांप लिया कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. बहुत कुरेदने पर भी सर्वत तो सामान्य रहने का नाटक करता रहा मगर अंततोगत्वा रात में चलते चलते अलका भाभी ने सिर्फ इतना ही कहा कि घर पहुँच कर "नुक्कड़"ब्लॉग पढ़ लीजियेगा .गोरखपुर आ कर ब्लॉग देखा तो सारा माज़रा समझ में आया .दूसरे चाहे जितनी भी दुश्मनी करें मगर यहाँ तो सर्वत के अपनों ने ही उसे मर्मान्तक चोट पहुंचाई है.उसे वेदना के समंदर में डुबो दिया है.लानत है ऐसे लोगों और उनकी नीच प्रवृत्ति पर.
जवाब देंहटाएंभईया- मैं तो कोई साहित्यिक जीव हूँ नहीं . इस तरह की घटनाएँ देख सुनकर यही कहूँगा कि शुक्र है कि मुझे इस जंजाल से कोई लेना देना भी नहीं है,सिर्फ सर्वत की दशा से चिंतित हूँ.
गोरखपुर में एक बहुत बड़े कवि हुआ करते थे -विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ' .-
"धरती पर आग लगी /पंछी मजबूर है/क्योंकि आसमान बड़ी दूर है ."
लोग 'विज्ञ' जी को निराला का अवतार कहा करते थे .उन्हें मंच पर सदा अंत में ही बुलाया जाता था क्योंकि उनके बाद कवि सम्मेलन ख़त्म हो जाता था .उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही गयी ,मगर कुछ लोगों की ईर्ष्या, कुछ षड्यंत्रों के वे शिकार हुए और इतनी मानसिक चोट पहुँची कि पागल हो गए .'बबूल के फूल ' जैसी दुर्लभ गीतावली का कवि ना जाने कब शहर की एक मज़ार पर गुमनाम सी मौत मर गया उनकी लाश को शायद श्रद्धांजलि के फूल भी नहीं नसीब हुए .
सिद्धार्थनगर में जो भी वाकया हुआ उसे जानने के बाद यही कहूँगा कि शेरोशायरी की संवेदनशील दुनियां में सर्वत जमाल जैसे एक संवेदनशील इंसान की संवेदनाओं को इतनी बेरहमी से कुचलनेवाले कभी भी सच्चे साहित्यकार नहीं हो सकते- हाँ दूकानदार जरूर होंगे जिन्हें शायद सर्वत की खुद्दारी रास नहीं आयी .
"पड़ गए राम कुकुर के पाले"
और अंत में सर्वत के शेर से ही बात पूरी करता हूँ-
रोटी लिबास और मकानों से कट गए ,हम सीधे सादे लोग सयानों से कट गए
'सर्वत' जब आफताब उगाने की फ़िक्र थी,सब लोग उलटे सीधे बहानों से कट गए
------रवि राय ,गोरखपुर
मैंने कभी भी किसी ब्लाग को पढ़ने में इतना समय नहीं दिया पर यहाँ तो सर्वत जी और पंकज सुबीर जी जैसे सुविख्यात लोगों पर बहंस छिड़ी है, पूरे ब्लाग को पढ़ना जरूरी हो गया.
जवाब देंहटाएंजो हुआ, सभी मानते हैं, बुरा हुआ. पंकज जी ने जान बूझ कर ऐसा किया ऐसा सर्वत जी के कथन से लगता है. आयोजन के बाद माफी मांग लेना भी तो वैसे ही होता जैसे भीड़ में जूते मारो और गली में माफी मांग लो.
पर मुख्य प्रश्न तो अब विश्वसनीयता का है. किस पर विश्वास किया जाय.... स्वयं सर्वत जी के व्यक्तिगत कथन पर या पंकज सुबीर जी की तरफ से दिए गए अन्य लोगों के वक्तब्य पर (जो वहाँ उपस्थित रहे है) क्या पंकज जी का मौन "मौनम स्वीकार लक्षणम" (दोनों म पर हलंत लगाकर पढ़ें) को समर्थित नहीं कर रहा है?
पंकज जी मुझे जानते भी नहीं और सर्वत जी से दो तीन बार फोन पर बात हुई है.उसके बाद उन्होंने शायद मेरी औकात नाप ली और फोन रिसीव करना बंद कर दिया. ऐसे में दोनों के व्यक्तित्व के बारे में जानकारी का दावा करने की मूर्खता मैं नहीं कर सकता.
मैं कोई विशिष्ट व्यक्ति नहीं हूँ जिसकी बातों को बहुत महत्व दिया जाय पर मेरी राय में मुख्य मुद्दे पर तो यहाँ बात हो ही नहीं रही है. जिस तथाकथित सुविख्यात कवि/शायर/आदि आदि... को सर पे बिठाने में कंधे में दर्द हुआ उस पर थोड़ी चर्चा होती तो शायद साहित्य जगत का कुछ भला हो जाता. बाकी घाव तो समय के साथ भर जायेंगे, सर्वत जी और पंकज जी फिर से एक मंच पर नजर आयेंगें क्योंकि लाठी मारने से पानी अलग नहीं होता पर साहित्य को पतन के जिस गर्त में पैसे देकर हमारा प्रबुद्ध वर्ग धकेल रहा है उससे निजात दिलाने में पंकज जी, सर्वत जी, कंचन जी, गौतम राजरिशी जी, वीनस जी जैसे लोग सक्षम हैं. आवश्यकता है तो व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं से ऊपर उठ कर सोचने की.
कवि ह्रदय बहुत कोमल होता है, चोट बर्दाश्त नहीं कर पाता. चूक चाहे जिससे भी हुई, जिस कारण से हुई या जिन परिस्थितियों में हुई, पर अब तो हो गयी.
चोट तो अब लग चुकी मरहम की बातें कीजिये
बात कड़वी ही सही हँसते हंसाते कीजिये
शेष धर तिवारी
इलाहबाद