सोचता आगे बढूँ किस राह पर..

क्षितिज तक आकर खड़ा
अनजान एक पथिक
सोचता आगे बढूँ
किस राह पर ?
मिलते रहे चौराहे
हर पग पर ।
साथ में संबल नहीं,
जाउँ मैं गंतव्य पर,
अपने किस प्रकार ?
मान सकता हूँ नहीं
मैं हार ।
संग में जब दृढ़ सदा
संकल्प,
मिल ही जायेंगे
स्वतः विकल्प ।
सत्य ही मनुपुत्र
है अति हठी
ठान लेता मन में
जब निश्चय,
दिग-दिगन्त बोलते
सब उसकी जय ।
पर सदा जय की ही
नहीं है लालसा,
जय-विजय सुनने का
आदी जीव यह,
अंततः पाता, विषय
भ्रम जाल सा ।
भ्रमित होकर पुनः
क्षितिज तक आकर
खड़ा,
सोचता आगे बढूँ
किस राह पर ?
मिलते चौराहे
हर पग पर ।

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वाणी जी ने अपनी डायरी के पन्ने याद किये ....मैंने भी इसी दीपावली की सफाई के उपक्रम यह चिट्ठी पायी ..आपसे बाँट रहा हूँ ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. संग में जब दृढ़ सदा
    संकल्प,
    मिल ही जायेंगे
    स्वतः विकल्प ।

    आभार ।

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  2. जय-विजय सुनने का
    आदी जीव यह,
    अंततः पाता, विषय
    भ्रम जाल सा ।
    भ्रमित होकर पुनः
    क्षितिज तक आकर
    खड़ा,

    स्वागत है,

    जवाब देंहटाएं
  3. क्षितिज तक आकर
    खड़ा,
    सोचता आगे बढूँ
    किस राह पर ?
    मिलते चौराहे
    हर पग पर।

    नवगीत बहुत सुन्दर है।
    बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब....अक्सर यही सोचता हूं...सुंदर रचना है

    जवाब देंहटाएं
  5. सोचता आगे बढूँ
    किस राह पर ?
    मिलते चौराहे
    हर पग पर ।
    चौराहे पर ही एक नई राह मिलेगी
    आगे बढकर देखो अब छाह मिलेगी

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