अनजान एक पथिक
सोचता आगे बढूँ
किस राह पर ?
मिलते रहे चौराहे
हर पग पर ।
साथ में संबल नहीं,
जाउँ मैं गंतव्य पर,
अपने किस प्रकार ?
मान सकता हूँ नहीं
मैं हार ।
संग में जब दृढ़ सदा
संकल्प,
मिल ही जायेंगे
स्वतः विकल्प ।
सत्य ही मनुपुत्र
है अति हठी
ठान लेता मन में
जब निश्चय,
दिग-दिगन्त बोलते
सब उसकी जय ।
पर सदा जय की ही
नहीं है लालसा,
जय-विजय सुनने का
आदी जीव यह,
अंततः पाता, विषय
भ्रम जाल सा ।
भ्रमित होकर पुनः
क्षितिज तक आकर
खड़ा,
सोचता आगे बढूँ
किस राह पर ?
मिलते चौराहे
हर पग पर ।
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वाणी जी ने अपनी डायरी के पन्ने याद किये ....मैंने भी इसी दीपावली की सफाई के उपक्रम यह चिट्ठी पायी ..आपसे बाँट रहा हूँ ।
संग में जब दृढ़ सदा
जवाब देंहटाएंसंकल्प,
मिल ही जायेंगे
स्वतः विकल्प ।
आभार ।
जय-विजय सुनने का
जवाब देंहटाएंआदी जीव यह,
अंततः पाता, विषय
भ्रम जाल सा ।
भ्रमित होकर पुनः
क्षितिज तक आकर
खड़ा,
स्वागत है,
Vary Nice......
जवाब देंहटाएंawesome bhai...
जवाब देंहटाएंक्षितिज तक आकर
जवाब देंहटाएंखड़ा,
सोचता आगे बढूँ
किस राह पर ?
मिलते चौराहे
हर पग पर।
नवगीत बहुत सुन्दर है।
बधाई!
बहुत सुंदर कविता.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत खूब....अक्सर यही सोचता हूं...सुंदर रचना है
जवाब देंहटाएंसोचता आगे बढूँ
जवाब देंहटाएंकिस राह पर ?
मिलते चौराहे
हर पग पर ।
चौराहे पर ही एक नई राह मिलेगी
आगे बढकर देखो अब छाह मिलेगी