नेट पर हिन्दी का भविष्य और प्रायोजित टिप्पणियाँ- सुशील कुमार


बदनाम होंगे तब ही तो ज्‍यादा नाम होगा

[संदर्भ- विजय कुमार सपत्ति की कविताओं की काव्यात्मकता]

आज जब विजय कुमार सपत्ति जी का प्यारा मेल पढ़ा तो उनके ब्लॉग कविताओं के मन से पर भ्रमण करने चला गया। उनके ब्लॉग पर उपर की दो कवितायें ‘आओ सजन’ और ‘तेरा चले जाना’ पर यहाँ नज़र डालना चाहूँगा जो टिप्पणियों की
संख्या के हिसाब से नेट-जगत में मशहूर हो गयी हैं और उस पर अब हिंदी के सुधी पाठकों की राय भी जानना चाहूंगा। क्या आपको नहीं लगता कि दोनों ही कवितायें आत्ममुग्धता का शिकार और कवि की निहायत ही व्यक्तिगत अभिव्यक्ति यानि आत्मालाप (या बेहतर शब्द तो आत्मप्रलाप होगा) से आगे कुछ नहीं है ? कविता ‘तेरा चले जाना’ प्रेयसी की विदाई के दु:ख से उद्भूत एक प्रेमी का विरहगान है जिसकी भाषा एकदम कच्ची और कविता का रूप कविता की संरचना और उसकी शास्त्रीयता से बाहर जाता दिखाई देता है। शब्दों का प्रयोग यहाँ इतना बेतुका और भोंडा है कि क्या कहूं ! अजनबी स्टेशन, मदिरा का जाम, बेचैन सी रात की सुबह, उदास उजाले से आसूंओं का सूखना इत्यादि ऐसे मुहावरे और शब्द हैं जिसे हिंदी के गंभीर पाठक कैसे सहन करेंगे ? स्टेशन अनजान होता है,अजनबी नहीं। आदमी अजनबी हो सकता है। मदिरा का जाम की जगह कुछ और लिखा जाना कविता के बेहतरी के लिये जरूरी था। बेचैन सी रात का सुबह होने का मतलब है दु:ख का निस्तार होना, पर कवि ने भावातिरेक में बहकर मुहावरे के अर्थ पर बिना ध्यान दिये ही उसे अपनी कविता में डाल दिया है। यहां यह कहना समीचीन है कि कविता करते समय कवि को आत्मसम्मोहन की अवस्था और शब्दों के वेग से स्वयं को संयमित रखना आवश्यक होता है वर्ना वह कहां जायेगा शब्दों की बाढ़ में बहकर , कहना जरा कठिन है। पूरी कविता ट्रांस(बदहवास)स्थिति में आत्मनियंत्रण को खोकर लिखी गयी प्रतीत होती है जिस कारण कविता भाव को शिल्प के स्तर पर अभिव्यक्त करने में नितांत असफल हो गयी है। अगर सपत्ति जी आज्ञा दें तो इसी भाव को एक दूसरी कविता में पिरोकर मैं ही उन्हें अवगत करा दूं कि कैसे भाव कविता में रूप का लक्ष्य सही रीति से करता है। हिंदी साहित्य में प्रेम-कविताओं का बड़ा महत्व है । इस पर अनेक विशेषांक भी निकाले जाते हैं पर उन कविताओं में दुराशा और व्यथा की जगह प्रेम का व्यापक रूप और उसका सामाजिक सरोकार होता है। चिली कवि पॉब्ला नेरूदा की प्रेम कवितायें मनुष्य में जीवन की जिजीविषा का अदम्य भाव भरती है। पर सपत्ति की ये प्रेम कवितायें उस दृष्टि से साहित्यिक दर्जा तक प्राप्त ही नहीं कर सकती। अच्छे और बुरे का सवाल तो बाद में उठता है।

दूसरी कविता ‘आओ सजन’ को सपत्ति सुफियाना भक्ति-गीत से प्रेरित होकर रचा हुआ कह रहे हैं। पर उन्हें मध्यकालीन सूफी कवियों को पढ़ना चाहिये। तब उनके पल्ले यह बात पड़ेगी कि सूफी कवितायें क्या होती है? क्या उन्होंने ‘दमादम मस्त कलन्दर ’ या फिर ‘छाप तिलक सब’ नहीं पढी है? अगर वह नहीं पढ़ी तो मलिक मोह्म्मद जायसी, मीरा, सूर और उस समय के सूफी कवियों में से किसी को देंखें। यहाँ पूरी कविता ही सपाटबयानी का नमूनाभर है जबकि सूफी कविताओं में प्रेम का जो स्वरूप और मानदंड सामने रखा गया है और उससे जो संदेश मिलते हैं उसके लिये वह भाषा और शिल्प भी चाहिये जिसकी गुंजाईश कम से कम सपत्ति की इन कविताओं में तो रत्तीभर भी नहीं है। इस कविता पर अपनी टिप्पणी देते हुये अशोक कुमार पाण्डेय ने उनसे ठीक ही आग्रह किया है कि उन्हें अन्य विषयों को भी अपनी कविता में लाना चाहिये।

मगर टिप्पणी की संख्या तो जरा देखिये। यह लेख लिखे जाने तक उक्त कविताओं पर क्रमश: सत्तर और एक सौ बत्तीस टिप्पणियाँ विजय कुमार सपत्ति जी को मिल चुकी है। क्या करूं, मुझे भी वहां जाकर देनी पड़ी। अब प्राण साहब जो गजल के जाने -माने उस्ताद हैं, ने अपनी हजार गजलें सपत्ती की एक कविता‘तेरा चले जाना’ पर न्योछावर कर दिया। मेरी तरह उनकी भी टिप्पणी करने की कुछ मजबूरियाँ जरूर रही होंगी। पर सपत्ति जी की कवितायें चाहे जैसी हों पर
आदमी बड़े भोले-भाले, बच्चे जैसे स्वभाव वाले और मृदुल हैं जिसकी यहाँ तारीफ़ करनी होगी। हाँ, नेट पर टिप्पणी पाने का यही नुस्खा़ है भाई। मैं तेरा- तू मेरा। आपको अगर अपनी घटिया पोस्ट पर भी सत्तर टिप्पणी चाहिये तो उसका सबसे सरल उपाय यह है कि आप भी सत्तर जगह जाकर उन पर टिप्पणी करें भले ही वहां आपके टेस्ट की चीज न हो और टिप्पणी में वाहवाही भी करें। फिर आप देखिये, टिप्पणियों की टी. आर. पी. कैसे बढ़ती है! सपत्ती को जितनी टिप्पणी मिली है उतनी तो कोई नागार्जुन, त्रिलोचन और अभी जीवित बड़े कवियों की कविताओं पर भी मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है क्योकि वे आयेगे नहीं टिपियाने। पर अगर आप विजय कुमार सपत्ति की अदा अपना लेंगे तो आपके ब्लॉग पर भी टिप्पणियों की बरसात हो जायेगी।


अब मैं एक सवाल नेट पर हिंदी के गंभीर पाठक-लेखक-कवियों से करना चाहूंगा कि क्या इससे नेट पर हिंदी का भविष्य उज्जवल रह पायेगा, जब तक अच्छी चीजें उपेक्षित-तिरस्कृत होती रहेंगी और खराब चीजों पर वाहवाही लुटायी जाती रहेंगी? निश्चय ही यह हिंदी के अपरिपक्व पाठकीयता की ओर इंगित करती है जिससे नेट पर बचने का सार्थक प्रयास होना चाहिये।

दूसरे , मैं सपत्ति जी को परामर्श देना चाहूँगा कि आप हिंदी के बड़े कवियों जो दिवंगत हो चुके या अभी जीवित हैं और वरिष्ठ हैं यथा चन्द्र्कांत देवताले, भगवत रावत,विजेन्द्र, एकांत श्रीवास्तव,कुमार अम्बुज, कूँवर नारायण, अरुणकमल जैसे कई- कई कवि हैं जिन्हें पढ़ें ताकि आपको कविता के स्वभाव और उसकी समकालीनता और उसके काव्यतत्व का भान हो सके। अगर विजय कुमार सपत्ति को अपनी कविताओं का नेट पर ही साहित्यिक मूल्य परखना है तो इस तरह की कवितायें वे हिन्द-युग्म (www.hindyugm.com), सृजनगाथा(srijangatha.com), लेखनी ( www.lekhani.in), कृत्या( www.kritya.in) इत्यादि वेब पत्रिकाओं में भेंजे तो उनको यह पता चल जायगा कि यहाँ भी रास्ता इत्ता आसां नहीं जित्ता सोच रक्खा है! हा हा हा। ***

64 टिप्‍पणियां:

  1. सच्‍चाई कड़वी होती है
    रबड़ी तो झूठ होता है
    यहां पर तो रबड़ी ही
    रबड़ी भरी पड़ी है

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  2. सुशील जी,सब की अपनी अपनी पसंद होती है।कुछ पाठक सिर्फ भावनाओ को महत्व देते हैं तो कुछ कविता की विधा को।आप ने जो लिखा वह आपकी व्यक्तिगत सोच है.....अब जरूरी नही की आप की बात से सभी सहमत हो...

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  3. यद्यपि विजय जी ने मेरे ब्लॉग पर कभी टिप्पणि नहीं की, पर उनकी प्रविष्टियों पर टिप्पणी देना कभी-कभी जरूरी हो जाता है । खास कर तब जब लगातार एक ही पोस्ट पढ़ने के तीन-तीन आमंत्रण विभिन्न माध्यमों से आ रहे हों, आप कितना नजरअंदाज कर सकेंगे इन्हें ।

    यद्यपि कुछ अन्य कविताओं पर तो नहीं, पर ’आओ सजन’ के पहले विजय जी की भूमिका ने शायद उस प्रविष्ट को और कमजोर कर दिया । इस कविता से मैं भी बहुत प्रभावित नहीं हुआ, और आपकी कही एक-एक बात से सहमत हूँ । टिप्पणी यद्यपि मैंने भी दी थी वहाँ ।
    यह बात भी मानने वाली है कि कई बार बहुत अच्छी प्रविष्टियाँ पाठकों का रोना रोती हैं, और कुछ कमतर प्रविष्टियाँ हाईलाइट कर दी जाती हैं । दोष प्रविष्टि से अधिक टिप्पणीकार का ही है । हम गुणवत्ता पर भी टिप्पणी देना सीखें, जरूरी है । सही गलत का भेद तो टिप्पणीकारों को आना ही चाहिए ।

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  4. भाई यह सच है की सपत्ति जी कोई बहुत अच्छे कवि नही हैं पर यह भी सच है वह एक भोले भाले इंसान हैं ... एक से एक कचरा और निगेटिव लोग नेट पर उपलब्ध हैं फिर इन पर ही हमला क्यूं?

    अब टीप के लिए सब परेशान रहते हैं...तो वह क्या गुनाह कर रहे हैं?

    यह टीप उनके ब्लॉग पर लगती तो अलग बात थी...यह तो सरासर अपमान लग रहा है...ऐसे तो कोई किसी को कह सकता है भाई...यहाँ तो बौनों की बारात है

    पर ज्ञान बाटने की इच्छा हुई तो बेचारे सपत्ति ही फंसे!!!!!

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  5. आप जिसे कह रहे हैं अपमान
    उसी में छिपी है बंधु पहचान।

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  6. आपसे सहमत हूँ. अच्छा लिखनेवाले अन्य अछे पर टिप्पणी नहीं करते तो यही होगा. शिल्प को सराहनेवाले जहाँ अच्छा शिल्प देखें सराहें अन्यथा कथ्य को सब कुछ मानने का प्रचलन बढ़ता रहेगा.

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  7. यहाँ बौनों की बारात नहीं है अशोक कुमार पाण्डेय जी । आँखें खोलकर देखिये- उनके ब्लॉग पर भी टिप्पणी दे दी गयी है उसी वक्त।

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  8. SUSHEEL KUMAR JEE ,
    AAP BHALE HEE VIDVADAA
    MEIN MUJHE SE OONCHEE HAIN LEKIN
    JEEWAN KE ANUBHAV SE NAHIN.MANAKI
    AAP SAHITYA KE CHAAR AKSHAR PADH
    GAYE HAIN LEKIN JIS DHANG SE AAPNE
    VIJAY KUMAR SAMPATI KEE RACHNA-
    DHARMITA AUR BHASHA KEE KHILLEE
    UDAYEE HAI,VAH SARAHNIY NAHIN HAI.
    AAP JAESE VIDWAAN KO SHOBHAA NAHIN
    DETAA HAI.AAPNE UNKEE BHASHA KO
    "KACHCHEE" KAHAA HAI.AAPNE KABIR
    KAA ZIKR KIYAA HAI.KYAA MAIN AAPSE
    POOCHH SAKTA HOON KI KABIR KEE
    BHASHA KITNEE "PAKKEE" THEE?AAPNE
    UNKEE SUFEE KAVITA "AAO SAJAN--"
    KO SARAAHAA AUR AB AAP UNHEN
    "SUFISM" KAA PAATH PADHAANE LAGE
    HAIN.ISKE PEECHHE KAUN SEE BHAVNA
    KAAM KAR RAHEE HAI AAPKEE? KAHIN
    AESA TO NAHIN KI AAP VIJAY KUMAR
    SAMPATI KEE LOKPRIYTAA SE BOKHLAA
    UTHE HAIN?
    AGAR MAINE VIJAY KUMAR
    SAMPATI KEE KAVITA PAR YE TIPPANI
    KAR DEE -"AAPKEE KAVITA PAR HAZAAR
    GAZALEN QURBAAN" (MAINE ABHEE TAK
    150 GAZALEN BHEE NAHIN KAHEE HAIN)
    TO KAUN SEE AAFAT AA GAYEE? YAH
    AAPKO BHEE ACHCHHEE TARAH PATAA HAI
    KI" TUM JIYO HAZAARON SAAL "
    AASHIRWAAD DENE SE KOEE HAZAAR SAAL
    KAA NAHIN HO JAATAA.
    AGAR AAP KISEE KO UTHAA
    NAHIN SAKTE HO TO IS TARAH KISEEKO
    GIRAAEEYE BHEE NAHIN.

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  9. आदरणीय प्राण सर।
    मैं आपकी बड़ी इज्जत करता हूं। मैंने सपत्ति की रचनाओं की खिल्ली नहीं उड़ायी है, उसकी सप्रसंग व्याख्या करते हुए उन त्रुटियों की ओर पाठकों का ध्यान इंगित किया है जिस नज़र उनको नहीं थी। इस आलेख में अगर आप ध्यान से देंखे तो न मैंने आपके बारे में कोई निगेटिव बात कही है(सिर्फ़ आपके द्वारा टिप्पणी करने की मजबूरियां बतायी गयी हैं जैसे कि मेरी भी रहती है) और न सपत्ति को कोई व्यक्तिगत लांछन ही दिया है। सिर्फ़ उनकी रचना के दोष उजागर किये हैं मैंने। आप जैसे बुजुर्ग औरर मंजे हुये शायर अगर किसी की समालोचना को सहन नहीं करेंगे तो साहित्य का भला कैसे होगा? अगर सपत्ति इजाजत दें तो उन्हीं भावों पर केन्द्रित मैं एक कविता लि्खकर आपको नज़र कर दूं जिसे आप स्वयं पढ़कर कहेंगे कि यह उससे उम्दा है या घटिया। सपत्ति को तो मेरी शुभकामनायें हैं कि अच्छा से अच्छा लिखें। पर टिप्पणियां प्रायिजित न हों नेट पर,मेरा यह उद्धेश्य अवश्य रहेगा।सादर।-सुशील कुमार।

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  10. और हां प्राण सर। आप सपत्ति की भाषा की तुलना संत कबीर की भाषा से अगर करते हैं तो साहित्य संबंधी आपके खयालात पर भी मुझे गंभारता से विचारना होगा। कबीर की भाषा क्या कच्ची थी? वह तो लोक के शब्द से दोहे बनाते थे जो सच्चे और खरे थे जिसकी आज भी जरूरत है।

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  11. देखिये मैंने बौनों की बारात इसलिए कहा की यहां वे लोग सर,महोदय और विद्वान बने हुए हैं जो हिन्दी की दोयम दर्र्जे की पत्रिकाओं में बमुश्किल छप पते हैं. विदेशो में रह रहे शौकिया 'saahitykar', अधिकारी और प्रोफेसनल टाईप के कुछ आत्ममुग्ध जीव और चार लाइन न जानने वाले ' आलोचक ' यहाँ बिखरे पड़े हैं...और आलोचना करने वाले आलोचना बर्दाश्त करने में असमर्थ.

    फूहड़ तुकबंदियों में अगंभीर टिप्पणिया और अपने ही ब्लॉग या पत्रिका पर अपने ही प्रशंसा में लेख लगाने वाले यहाँ महान बने हैं जो अपनी सारी जुगाडो के बावजूद मुख्यधारा से बहिस्कृत रहे. सुशील जी जब हमने कृत्या की संपादिका के आप द्वारा की गयी विरुदावली पर टिप्पणी की तो आपने उसे हटा दिया था और कहा की यह मेरा ब्लॉग है और यहाँ हटाने लगाने का अधिकार मेरा है...तो यह अधिकार सपत्ति को क्यों नही?

    समीक्षा आलोचना नही होती....

    हाँ आपने तमाम ई पत्रिकाओ की बात की...मै अगर हंस , कथन , ज्ञानोदय, उद्भावना, समयांतर और कथाक्रम का नाम लू तो तमाम स्वघोषित कवियो , आलोचकों और विचारको के होश उड़ जायेंगे.

    मेरा तो मानना है की अभी हजारो फूलो को खिलने दो....सारी खिड़कियों को खुला रहने दो....जो रचेगा वही बचेगा.
    जो अच्छा न लगे वहां न जाएँ...जो परेशां करे उसे स्पैम बना दें. अपील कौन नही करता?

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  12. हाँ आपने बात की बड़े कवियो की तो साहब हमने हमकलम पर केदार नाथ सिंह और देवताले जी की कविता लगायी तो आपने भी टिप्पणी नही की....तो क्या पर उपदेश कुशल बहुतेरे?

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  13. एक और बात आँखे खुली ही थी हमारी...हमने भी नही ही की बात की थी...

    हाँ मै लिख कर नज़र कर दूं वाला वाक्य दिखाता है कि आत्ममुग्ध तो आप भी कम नही.....
    इतना गुरूर किसी लेखक को शोभा नही देता भाई साहब..अभी न तो आप ऐसे कवि हो गए हैं ना आलोचक कि कविता के प्रतिमान बने/बनाए.

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  14. चलिए एक सार्थक बहस तो हुई इस बहाने...समालोचना होनी ही चाहिए और हर रचनाकार को अच्छे और बुरे फीडबैक के लिए तैयार रहना ही चाहिए. यदि ये नहीं होगा तो हिंदी के लेखक सदा ही स्वयं की प्रशंसा में डूबे रहेंगें. और यदि आप सब लोग वाकई हिंदी ब्लॉग्गिंग को बढ़ते हुए देखना चाहते हैं तो तिप्पन्नियों का मोह छोड़ दीजिये, अधिक टिप्पणियां का मतलब ये नहीं है की आपको अधिक लोगों ने पढ़ा है. ये उस पोस्ट की गुणवत्ता का सबूत भी नहीं है. हिंदी ब्लॉग्गिंग में बहुत सी ऐसी पोस्ट्स हैं जहाँ यदि ७५ टिप्पणियां है पर कुल पाठक लगभग १०० हैं. तो ये कोई उपलब्धि नहीं है. टिप्पणियों के लिए किसी को न तो मजबूर होना चाहिए न करना चाहिए. और नेगेटिव यदि मिले तो सौभाग्य समझिये. ये आपको और बेहतर ही बनयेगा. अब कोशिश ये करें की आपकी पोस्ट में गुणवत्ता हो और उसे अधिक से अधिक पाठक मिले (टिपण्णी नहीं) सब को मिलकर कुछ बड़े जानकार रचनाकारों को इन सब से जोड़ना चाहिए ताकि आपकी लेखनी को सही मार्गदर्शन मिल सके. यदि आलोचनाओं से बचते रहेंगें तो कहीं भी नहीं पहुँच पायेंगे. दस झूठी तारीफों से एक सच्ची आलोचना भली. अब समय आ गया है की हम प्रायोजित टिप्पणियों से उपर उठें.

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  15. ये क्या छपे साहित्य की तरह की राजनीति से ब्लॉग की दुनिया भी अछूती नहीं रही....जब शुरू किया था तो दोस्तों ने समझाया था कि यहाँ भी माफिया काम करता है। अपनी ऊर्जा को बेकार किसी के काम की चीरफाड़ करने के यदि रचनात्मकता में लगाएँ तो ही नेट पर हिंदी का भला हो पाएगा। किसी ने ठीक ही टिप्पणी की है.....इस संघर्ष में जो अच्छा रचेगा वही बचेगा...तो हम तो अपना काम करें...परिणाम आएँगें.....।

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  16. टिप्‍पणियों के चक्‍कर में न पडें और अपना काम करते रहें।

    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  17. महान लोगों के मुँह से ऐसी बातें शोभा नहीं देती। लोग मुझे पत्रिकायें न गिनायें,लगभग सभी जगह छप चुका हूं,छपता रहता हूं पर उसका ढोल पीटना जरूरी है क्या? पत्रिका के नाम गिनाने से किसके होश उड़ जायेगे,जरा साफ़ करें अशोक बाबू। यह भी गरूर की ही भाषा है। कृत्या की संपादिका जितना आप पहले लिख लें मात्रा और गुण दोनो में, तब आप उनकी निगेटिव टिप्पणी करें तो अच्छा लगेगा। आपको तेजेन्द्र शर्मा जी और रति जी बर्दाश्त नहीं तो मैं क्या करूं? प्राण साहब भी बहुत छपते हैं प्रिंट में ,अभी हाल का ज्ञानोदय में उनकी उम्दा रचना नहीं देखी क्या? ..और किसी और की बात कर रहे तो अलग बात है।

    हां.एक बात यह कि सपत्ति जी को टिप्पणी हटाने से मना किसने किया जो आप अधिकार की बात करते हैं? अब आप के ब्लॉग पर जाकर टिप्पणी कमपलसरी है क्या? अपनी मनमर्जी है। मेरा बस इतना ही कहना है कि नेट पर प्रायोजित टिप्पणियां न हो,बस। और आपका तो नेट से खास लेना-देना भी नहीं रहता,आप ही ने कहा है तो फिर व्यर्थ का विवाद क्यों?That is the end and goal of disscussion.

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  18. आपने जो भी कहा सहमत हूँ लेकिन लिखने दीजिये ..अभ्यास से भी कभी-कभी बात बन जाती है अपने अच्छे-बूरे लिखे को आदमी स्वयं जानता है अपनी गलतियाँ भी ...लिखने की ही तरह ...कलात्मक सोचना भी एक कला हो सकती है जब एसा होगा तो लिखना बड़ी बात नही रह जायेगी ...जिसको आप लिखना मान रहें हैं....इन बन्धु को हलाँकि मैंने अभी तक पढा नही है ...

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  19. वैसे कुछ हद तक बात सही भी है या यह कह सकते हैं बात बिल्कुल सही है।

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  20. part -1

    महा आदरणीय सुशील जी
    प्रणाम !!

    मुझे ये समझ नहीं आ रहा है की आपने ये पोस्ट क्यों लिखी और इससे आपको कौनसी ख़ुशी हासिल हुई !!!

    ज़िन्दगी इतनी खूबसूरत है ...कुछ दुनिया के बखेडे है ...जिन्हें day in -day out हमें सुलझाना है ..उस पर आपकी ये पोस्ट ..मैं तो ये सोच रहा हूँ की आपके पास कितनी सारी negative एनर्जी है , आपको ये request करूँगा की आप एक बार फिर से " आओ सजन " पढ़ ले.. मन शांत हो जायेगा ....

    ये पोस्ट पढ़कर तो मुझे ये समझ में आ रहा है की लोग अपने दुःख से उतने दुखी नहीं होते है ,जितना की दुसरे के सुख से....... This is a clear showcasing of your frustration . लेकिन अब आपने मेरा नाम का ज़िक्र कर ही दिया है तो मैं भी कुछ कह ही दूं.

    १.. मैंने अपने आपको न तो कभी महान कवी समझा है ,न ही कभी अच्छा कवी ..in fact मैं कविता कहने की technicalities को तो जानता ही नहीं हूँ ... मेरे पास जो 6 डिग्री है वो, engineering, management और economics की है ..मैंने हिंदी साहित्य में कोई डिग्री नहीं ली है .. मुझे कोई साहित्यिक पुरूस्कार नहीं लेना है मेरे भाई ... मेरे लिए तो यही गर्व की बात है की मैं तेलुगु भाषी होकर हिंदी में लिख -पढ़ रहा हूँ ... मैं उन तथाकथित हिंदी के ढोल पीटने वालों से तो कई गुना बेहतर हूँ ......जो की साहित्य के नाम पर जाने क्या कर रहे है ..क्या पढ़ रहे है....वरना ...दुनिया में सिर्फ और सिर्फ मेरा देश है ऐसा है जहाँ अपने ही राष्ट्र भाषा का कोई सम्मान नहीं है .. just look at Japan, china, russia..... they all use only their language लेकिन यहाँ देखिये क्या हाल है ..आपको तो मुझ जैसे मित्र पर गर्व करना चाहिए की मैं 7 भाषाएं जानने के बावजूद सिर्फ हिंदी में लिखता हूँ ,क्योंकि मैं अपने देश से प्यार करता हूँ और अपनी राष्ट्रभाषा से प्यार करता हूँ.

    २. रही बात मेरी कविता में use की गयी भाषा की , तो भैय्या , जब गुलजार जी बीढ़ी जलाइए ले लिख सखते है तो वाह वाह ...पंकज बिष्ट जी मां की गाली का इस्तेमाल करे तो वाह वाह ..[ मेरे इस सवाल पर राजेंद्र यादव चुप हो गए थे ..] लोग कविता में सम्भोग की बाते लिखे तो वाह वाह ...विजय तेंदुलकर नाटको में स्त्री के private parts को showcase करे तो वाह वाह .. मणि मधुकर और दया पवार sexual feelings और sex के बारे में लिखे तो वाह वाह ..........जय हो जय हो जय हो ...ये आपका so called साहित्यक जगत है और इस साहित्य के पढने वाले पाठक है...

    .मैं तो बहुत सभ्य भाषा का इस्तेमाल करता हूँ मेरे दोस्त.... जो की लोगो को समझ में आती है और लोग अपने आप को उस कविता से relate करते है ..... मेरी भाषा पर न जाईये ..अभिव्यक्ति पर जाईये ....भावो को महसूस करे...

    ...............cont-part-II...

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  21. .....part- II...

    ३. अब लिखने की बात , तो भाई मैंने हमेशा ही कविता एक "ट्रांस" में आकर ही लिखी है और हमेशा ही ३०-४० मिनट के भीतर ही लिखी है ... मैं दिल से लिखता हूँ ..मुझे कविता लिखने का दिमाग नहीं है बंधू .... आप लिखते हो न ,बस ....that is more than sufficient .... मैं कोई झंडे नहीं गाड़ना चाहता हूँ .. मेरा कविता का ब्लॉग मेरी फोटोग्राफी वाले और मेरी पेंटिंग वाले और मेरे दुसरे hobbies वाले ब्लॉग की तरह है.. जिसे पसंद हो वो पढ़े , जिसे पसंद न हो वो न पढ़े ....मैं किसी का हाथ पकड़कर तो comment नहीं लिखवाता हूँ .लोग मुझे प्यार करते है , मुझसे मित्रता करते है ...मुझे चाहते है इसलिए इतने कमेंट्स भी आते है.. मेरे भाई सुशील ; मैं लोगो में मित्रता , प्यार, और भक्ति और ख़ुशी बांटता हूँ और मुझे भी लोगो से यही मिलता है ..कभी कभी आप जैसे महानुभाव कुछ देर के लिए negative zone में चले जाते है और ऐसी पोस्ट करते है .....

    ४. अब रही बात comment प्रायोजित करना .... ये तो मानव का स्वभाव ही है की वो कुछ करे ..तो दुनिया देखे ...अब आप बताये की क्या आप मेल नहीं लिखते हो ...जब भी आप कोई पोस्ट डालते हो , या कविता लिखते हो ,तब हमेशा ही आपका मेल मुझ तक और मुझ जैसे कई और तक पहुँचता है ... अब इस मेल को पढने के बाद कितने लोग आपकी पोस्ट पढ़ते है.. उसे पसंद करते है ... और उस पर कमेन्ट करते है ..ये आपके लेखन का कमाल है .....इसमें कमेन्ट प्रायोजित करने वाली बात क्या है ...जो काम आप खुद करते है उसी के लिए आप मुझे दोषी ठहरा रहे हो ....ये तो दोहरी मानसिकता हुई मेरे भाई ...

    ५. रहा सवाल पब्लिशिंग का ,तो भैय्या ,मेरी कविता तो कई इ-मगजींस और दूसरी पत्रिकाओ में छपती है ... मेरे fan followers में श्री हिमांशु जोशी, मुन्नान्वर राना ,प्राण शर्मा , इमरोज तथा और भी कई महानुभाव है ,लेकिन मुझे कभी इस बात का घमंड नहीं रहा .. न कभी रहेंगा .. क्योंकि मैं अपने लिए लिखता हूँ ... लिखना मेरा शौक है ..जीविका नहीं ..और न ही मैंने साहित्य के किसी मुकाम पर पहुंचना है ...और मैंने कई विषयों पर लिखा है ...सिर्फ प्रेम पर नहीं ..कॉमेडी भी लिखा है , भक्ति भी लिखा है .भूख और कई विषय है जिन पर लिखा है ....आपने मेरी कविता का ब्लॉग पूरा नहीं पढ़ा ..Please read that blog completely , I am sure you will enjoy it...और लिखते ही रहूँगा .....irrespective of these kind of posts....

    ६. सुशील जी , मुझे बहुत कम गुस्सा आता है ..लेकिन आपने अपने post के अंत में जो "हा हा हा " लिखकर मेरी हंसी उडाई है ,वो सहने की सीमा से परे है . लेकिन , मैं आपसे; आपकी तरह बात करके ,आपकी तरह नहीं बनना चाहता हूँ ......क्योंकि मैंने भी कुछ ऐसा ही कहा तो आपमें और मुझे फर्क ही क्या रहेंगा ....लेकिन this is not acceptable.... please refrain yourself from this kind of personal things....

    और अंत में आप सब महानुभावो को प्रणाम करता हूँ और मुझसे कोई गलती हो गयी हो तो क्षमा मांगता हूँ .......

    प्रणाम
    विजय

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  22. पहले तो मैं विजय सपत्ति जी के लिए यह कहना चाहूँगा कि विजय जी तेलुगु भाषी होने पर हिंदी में लिखने में गर्व अनुभव करते हैं, इसके लिए हमें भी आप पर गर्व ही नहीं, अगाध प्रेम रखते हैं.

    आदरणीय सुशील जी
    नुक्कड़ पर यह पोस्ट पढ़कर आर्श्चय हो रहा है. यदि आप जैसे विद्वान लेखक, समीक्षक, कवि जब किसी की समालोचना में "हा हा हा" जैसी भाषा का प्रयोग करने लगें तो अशिष्टता का भान होने लगता है. नेट पर हिंदी ब्लोगों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है. इसी प्रकार टिप्पणियां भी उसी प्रकार लोगों की अपनी अपनी रूचि के अनुसार बढ़ना स्वाभाविक है.
    विजय सपत्ति ही नहीं, अनेक ब्लॉग ऐसे हैं जिन पर लोग जा जा कर टिप्पणियां न्यौछावर कर रहे हैं. यह समझ नहीं आया कि ऐसे ब्लोगों की बाढ़ में से केवल विजय जी के ही ब्लॉग को चुनकर उनके हृदय की भावनाओं को ही चोट पहुंचाने का कष्ट किया है.
    दूसरी बात यह है कि आपने टिप्पणी की 'मजबूरी' की बात की है और यह भी कुछ ऐसा कहा है कि शायद आपने भी 'मजबूरी' से टिपण्णी दी थी. क्या यह 'मजबूरी' थी कि वे ई मेल से सब को अपनी नई रचना की सूचना देते थे जैसा आप भी करते हैं, मैं भी करता हूँ और अन्य भी.
    यदि इसे मजबूरी कहेंगे तो यह आपकी कमजोरी कही जायेगी. यदि आपका दिल नहीं चाहता है तो आप टिप्पणी मत दीजिये. सैंकड़ों 'स्पैम' आते है तो क्या हम उनके उत्तर देने के लिए बाध्य हैं?
    किसी टिप्पणी में सद्भावना से कोई खामी दिखाई जाये तो टिप्पणीकार और रचनाकर दोनों प्रेम के डोर में बंध जाते हैं. इस प्रकार लेखन में भी सुधार होगा और टिप्पणीकार को भी सम्मान मिलेगा. इसके विपरीत यदि सद्भावना न हो, ध्वंसात्मक भाषा से ब्लॉग-वातावरण दूषित होने लगता है और द्वेष की लहर दौड़ने लगती है.
    आप इस पोस्ट में विजय जी के बारे में जो बात कह रहें हैं, वही बात सकारात्मक रूप में कहते तो इसका प्रभाव भी पोजिटिव होता. भाषा में यदि मृदुलता और शिष्टता को थोड़ा और मांज लेते तो इस पोस्ट से विजय जी आहात न होते. इसके विपरीत आपका धन्यवाद देते.
    एक और बात अजीब सी लगी कि आप ही नहीं, अन्य लोगों ने भी विजय जी की रचना को टिप्पणियों में सुन्दर शब्दों से सजा कर आज यहाँ उनकी मिट्टी पलीद कर रहे हैं. कोई मजबूरी भी नहीं थी. ऐसे लोगों को किस श्रेणी में कहें? (अशिष्टता के लिए क्षमा चाहता हूँ.)

    विजय एक सुशिक्षित, सच्चे मन के इंसान, विनम्र और भद्र-पुरुष हैं जो अपने देश के लिए
    प्रगाढ़ प्रेम रखते हैं, दूसरों का सम्मान करते हैं. प्राण जी ने बड़ी सद्भावना और प्रेम और शिष्टतापूर्वक विजय जी की एक रचना पर टिप्पणी द्वारा सुझाव दिया था. विजय जी ने उनका धन्यवाद सहित सम्मान किया. ऐसे सुन्दर मन के हैं विजय जी! (प्राण जी आपसे क्षमां चाहता हूँ कि आपको इसमें खींच लाया हूँ.)
    जहाँ तक टिप्पणियों की बात है, टिप्पणियां तो होनी ही चाहिए, अपने विचारों को भी प्रकट करने चाहिए किन्तु सद्भावना सहित, सकारात्मक संयत भाषा हो, नीचा गिराने के लिए नहीं. टिप्पणियां नहीं होंगी तो हिंदी ब्लॉग ख़त्म हो जायेंगे.
    विजय जी, आप इससे खिन्न न होईये. मन में ऐसा धारण कीजिए कि इस प्रकार की बातें निरुत्साहित न कर के 'बल' प्रदान करते हैं.
    सस्नेह
    महावीर शर्मा

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  23. देखिये सपत्ति जी। मैंने अपने आलेख में आपकी रचनाधर्मिता के बहाने नेट पर हिंदी के चलन और पाठकों की परिपक्वता से संबंधित कई सवाल उठाये हैं। पर आप इन्हें व्यक्तिगत मानकर तरह-तरह के सवालात खड़े कर रहे हैं। आप पाठकों को उनकी इच्छा पर छोड़ दें ताकि वे स्वयं आपकी रचना से प्रेरित होकर आपको टिप्पणियां दें। हां विज्ञापन जरूर करें पर तंग नहीं। मुझे कई लोगों ने कहा कि आप ईमेल,एस एम एस,यहां तक की फोन करके टिप्पणियां देने को उन्हें बाध्य करते हैं। यह आलेख उसी प्रतिक्रिया का परिणाम है। वैसे आप इंसान एक नेकदिल हैं ,मैंने पहले भी कहा है। वैसे
    आपने कहा है कि This is a clear showcasing of your frustration . अब आप ही बतायें कि मेरी निराशा का क्या कारण हो सकता है। क्या मैं छपने के लिये किसी नेट या प्रिंट पत्रिका की बाट जोह रहा हूं,मुहताज हूँ और मुझे वे छापना नहीं चाहते? बात यह है कि आप उन विसंगतियों पर गौर फ़रमायें जिसका मैंने उल्लेख किया है वर्ना वाहवाही के दलदल में डूबने में देर न होगी। हँसने की मेरी आदत है हा हा हा।

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  24. मै आज यह जान पाया हूं की किसी की आलोचना के लिए उसके बराबर लिखना ज़रूरी है...
    खैर मै किस किस पर लिखता हूँ वह बताने की ज़रुरत नही...
    कम्पलसरी आपका सर्टिफिकेट भी नही...जिन पत्रिकाओं का नाम लिखा है उनमे जो नही छप सकते उनके होश उड़ने की बात की थी हमने... आप को क्यों बुरा लगा आप जाने.

    आप खुद को आलोचक कहलवाना पसंद करते है....मै आपको आलोचक नही मानता बस समीक्षक भर...और एक सामन्य कवि
    प्राण साहब से मेरी क्या शिकायत ?
    तेजेंदर नही पसंद है .... लन्दन घुमाऊ पुरस्कार न देते तो मालूम पङता वो क्या है.

    रहा सवाल रति सक्सेना का तो उनको मै बेहद औसत दर्जे की kavi मानता हूँ...ठीक से कलावादी भी नही और अधिकार तो मुक्तिबोध और मार्क्स की आलोचना का भी है मुझे..

    बड़े कवियो का नाम लेने से क्या होगा? मैंने बस ये पूछा की अगर इतनी इज्ज़त है तो इन लोगो की कविताओं पर क्यों खामोश रहे? मै टिप्पणियों के लिए भूखा नही...जिसको अच्छा लगेगा आयेगा...

    और क्या नेट पर लिखने और टीप करने के लिए आपका प्रमाण पत्र लेना होगा?
    कोई यह कहे की पहले सपत्ति जितनी टीप ले आयी फिर लिखियेगा तो ?

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  25. आदरणीय महावीर शर्मा जी।
    आपकी टिप्पणी पढ़ी। बहुत संतुलित और ग्राह्य है। अगर आप या किसी गुरुजन को मेरे वक्तव्य से ठेस पहुँची हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ। वैसे विजय सपत्ति अपना यार ही है! उनसे यारी पुरानी है। पुनश्च, कि आपकी टिप्पणी से प्रभावित हूँ।

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  26. अभिव्यक्ति की आजादी के मायने समझाना आसान नही होता....आलोचना करना आसान पर सहना मुश्किल

    कृत्या की संपादिका जितना आप पहले लिख लें मात्रा और गुण दोनो में, तब आप उनकी निगेटिव टिप्पणी करें तो अच्छा लगेगा।

    यानी? मुक्तिबोध ने अपनी शुरुआत में कामायनी एक पुनर्विचार लिख कर धृष्टता kii?
    पुराणी पीढी की बस चमचागिरी करे नयी पीढी?

    और aapne कौन सा तीर मार लिया है कि नामवर जि और राजेन्द्र जी पर बात करते हैं?

    हाँ मै नेट में ज्यादा रूचि नही लेता कि बौनों की बारात नाचने के लिए अँधा बनना पड़ता है.... और मै इससे ज्यादा ज़रूरी काम करता हूँ....

    हंस कोई भी सकता है.....अज्ञानियो की मूर्खता पर भी और ''ज्ञानियो ''के ज्ञान पर भी

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  27. अशोक जी आपको अधिकार सब कुछ का है , और अधिकार के दुरुपयोग का ।कर्तव्य तो सिर्फ़ हम जैसॊ की डिक्शनरी की चीज है।आपके चलते पहले भी मै अपनी बहुत फजीहत करवा चुका हूं। आप की हर बात क्यों मानूं?

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  28. baat maanoo?

    koun kah rahaa hai maanane ko?

    aapne jo baaten kii hai ve yahan sarvajanik kya karni...han yah zaroor kahungaa kii aapke nirnay hamesha vyktigat hit ahit se prerit rahe.

    maine na kabhi koii prastaav diyaa na apni kisi yojana me aapko shamil kiyaa...aage bhii nahii karungaa

    haan aapkii faziihat isliye huii ki jise hataya fir lagaayaa maine jo nirnay liya us par tika raha

    haan sapatti ko tippani hatane kaa hii nahii apne space me jo chahe likhane kaa aur use mahan samajhne kaa bhii hai jaisaa tamaam doosre log karte hain....

    जवाब देंहटाएं
  29. aur aap kaun hote hain upyog durupyog tay karne vaale?

    haa haa haa aur tirache vaar vicharhiinta ki nishanii hote hain. jab vichaar chook jaate hain to vyktigat tanz kiye jaate hain

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  30. यह सार्थक चर्चा नहीं है और सुशील जी पूरी विनम्रता से कहूंगा कि सार्थक चर्चा से आपको परहेज भी है। मेरे प्रश्नों से आप समालोचना करना ही छोड कर...जाने दीजिये।

    विजय जी आहत न हों, अहिन्दी भाषी हिन्दी में कविता न केवल लिख रहा है बल्कि पसंद भी किया जा रहा है यह हिन्दी का ही हित है।

    एक उदाहरण दूंगा सुशील जी को शायद पता नहीं होगा। यह उदाहरण भी इस लिये कि उन्होने इस हिन्द-युग्म ब्ळोग का नाम ले कर इसमें विजय जी को छपने की चुनौती दी है। इसकी कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर विजय जी युनिकवि रह चुके हैं। यह अलग बात है कि कई जगह प्रकाशित होने के कारण उनसे पुरस्कार वापस लिया गया। इस प्रतियोगिता में सुशील जी आपने भी तो हिस्सा लिया था।

    यानि कि नेट पर हिन्दी के भविष्य को कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत है तो दिमाग खोलने की।

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  31. आप इस बार इस मुगालते में न रहें कि आपके चिढ़ा देने से अपना विचार बदल दूंगा। आपकी परख अब है मुझे। और आपकी कहन का मामुली असर भी नहीं कि कल से आपकी तथाकथित जनवादी विचारधारा में शामिल हो जाऊँ और तमाम उन लोगों की निंदा करने लग जाऊं जो अच्छा लिख-पढ़ रहे हैं। अशोक जी।

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  32. mujhe aap ko apanii vichardhara me shamil karne me koii ruchi nahi...vichar koii cinemaa nahii ki doston ke kahne se chale gaye...

    aur aap ko chidhane ke liye mai tippaniya nahii kartaa...mera svar mere vichar se sanchalit hotaa hai..kisi ki khushi ya dukh se nahii


    aap na janvadi the na hain na ho sakte hain...vah chetana vah drishti arjit karni padti hai...aap ko lekar koii mugaltaa ya sambhavanaa nahii mujhe...

    asar vaicharik bahas karne vaalon par padta hai naa ki vyaktigat star par chikh chikh karne vaalon par... aap apne mahanta ke saath is mayalok me aaram se rahiye . mai bhavishy me kabhii aapke kaam me dakhal karne ki koshish nahii karunga...

    is aho rroopam aho swaram ke ''achcha '' likhne padhne vaalon me vaise bhii merii koii ruchi nahii...

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  33. यही बात मैं ‘नुक्कड़’ पर आपसे निकलवाना चाहता था। अपना काम हो गया।लेकिन काफ़ी मशक्क्क्क्कत करनी पड़ी। ओह ! अब नमस्कार।शुभ-रात्रि। -सुशील कुमार

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  34. mujhe aap ko apanii vichardhara me shamil karne me koii ruchi nahi...vichar koii cinemaa nahii ki doston ke kahne se chale gaye...

    aur aap ko chidhane ke liye mai tippaniya nahii kartaa...mera svar mere vichar se sanchalit hotaa hai..kisi ki khushi ya dukh se nahii

    आपने लिखा है कि और आपको चिढ़ाने के लिए मैं टिप्‍पणियां नहीं करता ... मेरा स्‍वर मेरे विचार से संचालित होता है ... किसी की खुशी या दुख से नहीं

    इस वक्‍तव्‍य में घोर विरोधाभास है। आप चिढ़ाने के लिए टिप्‍पणियां नहीं करते, अगर आपकी टिप्‍पणियों से कोई चिढ़े तो आप टिप्‍पणियां भी करेंगे। इसका सीधा सा अर्थ हुआ कि आप के स्‍वर, आपके विचार किसी की खुशी या दुख से ही संचालित होते हैं तो आप एक वाक्‍य में कुछ कहते हैं और दूसरे वाक्‍य में कुछ और ... आप तो महान हैं पर अशोक महान नहीं, शोक महान। धन्‍य हैं पांडेय जी आप।

    आपने यह भी स्‍वीकारा है कि अच्‍छा लिखने पढ़ने वालों में वैसे भी आपकी रुचि नहीं है। आपकी दिलचस्‍पी के विषय आपकी करतूतों बनाम कारनामों की पोल खोलते प्रतीत होते हैं।

    जय हो।
    मैं हूं सत्‍य। आपका धुर विरोधी। पर जीत मेरी ही होती है, होती रहेगी सदा सर्वदा।

    जवाब देंहटाएं
  35. आपने कुछ नही किया बस अपनी औकात बता दी...बहस में टिक नही पाए तो खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे...और एक नया सत्यम गढ़ दिया...वैसे आपकी यह हरकत नई नही है आपके मैसेज बॉक्स में जो स्वयमप्रकाश हैं उन्हें देख कर लगा विख्यात कहानीकार स्वयमप्रकाश है पर क्लिक किया तो मालूम पड़ा की आपने अपने मुह से मिया मिट्ठू बने है.

    विरोधाभास गढ़ने के लिए जो ''मौलिक'' तर्क गढे है आप उर्फ़ सत्यम ने उसका फैसला पाठक करेंगे. इन्वर्टेड कम में लिखे का अर्थ समझने के लिए साहित्य पढ़ना पड़ता है....इस सत्यम से यह ''उम्मीद'' नही कर सकता मै..आप जैसों को हमसे शोक ही होगा...

    और मुझसे मुक्ति...अगर आपके भेजे सन्देश सार्वजनिक कर दूं तो पता चलेगा कि कौन किसके पीछे पडा है...मशक्कत क्यूं मैंने कब कहा आपको कुछ ढोने को...इस ब्लागपोस्ट के पहले भी आपने ही मुझे फोन किया था...

    ''सत्यम'' जैसे चिरकुतो को कुछ सिद्ध करने की ज़रुरत मुझे नही....

    कुए का हर कीडा अपने खुश होने पर चिल्ल पों मचा सकता है...

    नुक्कड़ पर मै आपके लिए नही भाई अविनाश वाचस्पति के लिए आता रहा हूँ...वो नही चाहेंगे तो नही आउंगा

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  36. in sab me Rati Saxena jii ka jo naam aaya vah anavshyak tha..jisse unhe maansik kasht huaa.

    iske liye mai unse vyaktigat kshama prarthi hoon.

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  37. "सत्यम" मैं नहीं और सत्यप्रकाश मेरे मित्र हैम जिसने मेरे epatra ईमेल का उपयोग किया क्योंकि उनको टिप्पणी देनी थी और मैं जी मेल का पासवर्ड उन्हेम बताने के बजाय epatra का ही बताया|शक पर गोली चलाना आपकी फ़ितरत है अशोक जी।

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  38. और सत्यप्रकाश ने आपके इमेल की आई डी का प्रयोग कर अपना नाम लिखा स्वयमप्रकाश .... वाह वाह

    झूठ के पाँव नही होते...सर गाल होता है वह बजता है और सब समझते हैं...

    जवाब देंहटाएं
  39. और सत्यप्रकाश ने आपके इमेल की आई डी का प्रयोग कर अपना नाम लिखा स्वयमप्रकाश .... वाह वाह

    झूठ के पाँव नही होते...सर गाल होता है वह बजता है और सब समझते हैं...

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  40. आपकी तरह जो समझदार होगा वही समझेगा। हमलोग अपनी पेशानी पर उतना बल नहीं देते,नसें तड़क जायेंगी।

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  41. baap ree......... yaha to yudh chal raha he...
    bhaaagggoooooooooooooooo.........

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  42. वैसे तो मुझे बहुत ज्ञान नहीं है लेकिन फिर भी मैं समझता हूँ कि यह ऊर्जा रचनात्मक कार्यों में भी लगाई जा सकती थी .

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  43. सुशील जी,

    टिप्पणियों की संख्या का यह गणित अब बहुत से ब्लॉगरों को समझ में आने लगा है। ऐसे बहुत से ब्लॉग हैं जिनके पोस्टों पर टिप्पणियों की संख्या 70 से ऊपर होती है। पिछले वर्ष मैंने जब राजस्थान पत्रिका के लिए हिन्दी ब्लॉगिंग पर कवर स्टोरी की थी तो समीरलाल द्वारा टिप्पणी पाने के नुख़्से का बकौल समीरलाल ही जिक्र किया था। ऐसे पाठक जो अंग्रेजी के मशहूर ब्लॉगों पर भी विचरते हैं, वे देखते हैं कि उन ब्लॉगों पर प्रतिदिन 1,000-10,000 पाठक आते हैं, लेकिन टिप्पणियों की संख्या 40-50 होती हैं।

    हाँ, मैं समझता हूँ इस दिशा में दुबारा सोचने का एक झरोखा ज़रूर खोलता है आपका आलेख। प्रौढ़ लेखकों के मन में टिप्पणियों की संख्या से ग्लानि या गर्व का भाव जगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। परंतु नये लेखकों के लिए जिन्होंने अभी कलम पकड़ी ही है, टिप्पणियों की बहुत बड़ी संख्या और वह भी केवल सराहना की ‌चाश्‍नी में डूबी हुई, खतरनाक हो सकती है।

    संचार के माध्यम समृद्ध ज़रूर होते जा रहे हैं, लेकिन लोगों की पठनीयता सिकुड़ती जा रही है। यह केवल इंटरनेटीय पाठकों की ही समस्या नहीं है, बल्कि गैरइंटरनेटीय साहित्यानुरागी भी छोटी-छोटी गोष्ठियाँ आयोजित कर केवल सराहना के फूल खिला रहे हैं। और हिन्दी में तरह-तरह की, या अपने तरह की स्तर वाली 400 से अधिक पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं, जो अमूमन उन लोगों द्वारा शुरू की जाती हैं, जिनकी रचनाओं को कुछ स्थापित पत्रिकाओं में जगह नहीं मिल पाती। पता नहीं कारण क्या है, मुझे नहीं पता, लेकिन मैं 100 हिन्दी लेखकों से मिलता हूँ (उन्हें तथाकथित भी कह सकते हैं) तो उसमें से शायद 1 यह स्वीकृति देता है कि उसने अपने पाठ्यक्रमों के बाहर, सन 50 के बाद के कवि-लेखकों को पढ़ा है। असल में यह समस्या बहुत गंभीर है। हम सभी अपना-अपना आकाश सीमित करते जा रहे हैं।

    एक और बात, इन दिनों यह बात भी कई शिखर-आलोचकों द्वारा उठाई जाती है कि अब हिन्दी साहित्य अपने उस दौर में है कि इसे प्रवासी साहित्य, गैरहिन्दीभाषी लेखक के साहित्य में वर्गीकृत करके इसके साथ सहानुभूति नहीं रख सकते। समय के मापदंडों पर उन्हें भी परखना होगा।

    बाकी इस तरह की बहसें होती रहने चाहिएँ, इससे लिखने वाले को भी कुछ मिलता है और पढ़ने वालों को भी बहुत कुछ।

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  44. यही बात मैं ‘नुक्कड़’ पर आपसे निकलवाना चाहता था। अपना काम हो गया।लेकिन काफ़ी मशक्क्क्क्कत करनी पड़ी। ओह ! अब नमस्कार।शुभ-रात्रि। -सुशील कुमार


    --मुझे तो अब आपके हिन्दी लेखक होने पर ही संशय होने लगा है जो मात्र एक बात उगलवाने के टिप्पणियाँ प्रयोजित बताता है और खुद प्रायोजित और षणयंतकारी पोस्ट लिखता है.

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  45. वैसे इस पूरी पोस्ट और प्रकरण का निचोड़ यह है कि:

    -आप अपनी पहचान न बन पाने से इस जगत में तिलमिला गये हैं.

    -यह पोस्ट आपकी कुंठित मानसिकता की उपज है.

    -उसे इतनी टिप्पणियाँ और मुझे कोई पूछ नहीं रहा जबकि संपादकों के तलुए चाट कर मैं कहाँ कहाँ नहीं छप चुका-यह भाव हीन भावना तो देता है. आपकी पोस्ट रुपी प्रक्रिया स्वभाविक सी है मगर सब कलई का भेद जान गये.

    -आप प्रिंट जगत की चाटुकारिता शायद यहाँ भी लाने के प्रयास में पूर्णतः अक्षम रहे, आपकी हार पर हम बस दुख व्यक्त कर सकते हैं.

    -नुक्कड़ जैसा मंच आपके आने से शर्मसार हुआ होगा.

    -अगर आपको नुक्कड़ से नहीं निकाला गया तो नुक्कड़ भी भड़ास गति को जल्द प्राप्त होगा, यह बात तय मानिये.

    -आप अपनी दुनिया की गंदगी यहाँ न फैलाऐं.

    -अगर कभी अपने बच्चों को देखियेगा और कोशिश करियेगा यह जानने की कि क्या वो पहले दिन से पैदाईशी वैसे ही थे जो आज हैं. वैसे अपने माँ बाप से पूछ कर खुद के लिए भी तय कर सकते हैं, मगर आप तो नीचे ही गिरे हैं पहले से तो आपके लिए यह उदाहरण सही नहीं है. माफी.

    -अपका कहना कि इस विषय पर ऐसा लिख कर दिखा सकता हूँ जिसे आप उम्दा कहेंगे- मात्र अहंकार है. उसे पढ़ने में किसी की दिलचस्पी नहीं, यह टिप्पणियों से समझ ही गये होंगे. किसी ने कहा तक नहीं कि लिखिये. हाथ खुजला रहे होंगे.

    -अगर प्रोत्साहित नही कर सकते तो हतो-उत्साहित करने का हक आपको है ही नहीं.

    -प्राण जी के कबीर के उपर कमेंट पर आपको उनके साहित्यिक जानकारी पर पुनर्विचार करने का विचार मात्र कपाल कल्पना है.

    -आप बाथरुम में बंद हों जो चाहें, विचारें. किसी को उससे क्या फर्क पड़ता है.

    -आपके मानने न मानने से मात्र आप खुश हो सकते हैं. बाकी सबके अपने विचार है. आपके सिवाय ऐसा मिट्टी का माधो कोई दिखा नहीं आज तक.

    -अब आप ऐश करिये. आपकी क्रेडिटेबिलिटी शून्य है चाहे जहाँ छपो और अपने पाठकों के साथ जश्न मनाओ.

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  46. भाई मैं सिर्फ एक बात कहूँगा की इस बहस में अकारण कटुता आ गयी है . इसके बिना भी यही अपनी अपनी बात कही जा सकती है . अब मैं तो अपने आपको इस लायक नहीं मानता की गुण दोष बताऊँ पर हम सभी कभी अछ्छा और कभी बुरा भी लिखते है . प्रसंसा भी चाहते हैं . स्वाभाविक है .

    इतना ही कह सकता हूँ विजय जी से पुणे में हाल ही में मुलाकात हुयी थी , बड़े ही प्यारे आदमी हैं . बड़े सीधे साधे और पारदर्शी . बहुमुखी प्रतिभा के धनी भी . उनसे खास प्रेम स्नेह इसलिए भी महसूस होता है की तेलुगु भाषी होकर भी हिंदी ब्लॉग जगत का हिस्सा हैं .मैं इतना जानकार नहीं की उनके शिल्प पर बात करून पर भावः अभिव्यक्ति में एक बाल सुलभ सच्चाई पाता हूँ .

    अंत में अनुपम अग्रवाल जी से सहमत यही कहूँगा की अपनी ऊर्जा रचनाधर्मिता में लगाएं हम सब तो बेहतर ...

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  47. इस पोस्‍ट और टिप्‍पणियों में से लाभकारी सामग्री निकाल कर जल्‍द ही नुक्‍कड़ अपने धैर्यवान पाठकों तक पहुंचाएगा ताकि सब यह जान और मान सकें कि जिस तरह विज्ञान वरदान है और अभिशाप भी, उसी प्रकार विवादों से चाहे तो अवगुण फैल सकते हैंऔर जज्‍बा हो तो गुण ग्रहण किए जा सकते हैं।
    आप सभी धैर्य बनायें रखें।

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  48. सब से पहले तो बता दूँ कि मैं कोइ बडी साहित्य्कार नहीं हूँ एक गाँव मे सालों घूँघट मेरह कर अब दुनिया की रोशनि नसीब हुई है कुछ शब्द लिखने सीखे ेआढे तिरछे अगर कुछ एक आध अच्छा लिख पायी तो तो कुछ अच्छे लोगों का प्रोत्साहन था सकारात्मक आलोचना थी मैं इस बहस के लिये केवल इतना ही कहूँगी कि ये बहस मुझे किन्हीं सहितय्करों मे नहीं बल्कि गली की किसी नुक्कड मे आपस की लडाई लगी सुशील जी की अलोचना एक आलोचक की नहीं लगी फिर कौन सा लेखक है जिसकी हर रचना हिट होती है हर रचनाकार ऐसी ही रचनाओं से गुजर कर आगे बढता है मुझे पता है कि सही अलोचनरउर प्रोत्साहन एक इन्सान को कहाँ तक ले जाती है मै जिस्ने 30 साल तक हिन्दी का एक शब्द नहीं लिखा था आज कुछ अच्छे सहित्यकारों के मार्गदर्शन और उत्साह से 4 सल मे तीन पुस्तकें छपवा पायी हूँ सुशील जी का सम्मान करती हूँ मगर उनकी आलोचना से (जिसे आलोचना नहीं कहा जा सकता) आहत हूँ मुझे ये आलोचना बिल्कुल भी नहीं लगी आप किसी की कलम को रोकें नहीं क्या पता कल इनमे से कौन आपसे आगे निकल जाये मैं ये टिप्पणी बार बार आपकी मेल आने से दे रही हूँ ना कि इस लिये कि मैं अपने को कोई सहित्यकार समझती हूँबकी परम्जीत बाली जी सही कह रहे हैं हो सकता है किसी लेखक मे भाशा वि्शय सभ कुछ हो मगर भावना और संवेदना रहित हो तो जरूरी बहीं सब को अच्छी लगे ये केवल नज़रिया है देखने भर का आप हर रचना की तुलना केवल अपनी रचनाओं से नहीं कर सकते एसी बहस जहां व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप हों उससे साहित्य का क्या भला हो सकता है अगर ये सकारात्मक बहस होती तो तो आपकी मेल के बिना ही टिप्पणियों का ढेर लग जाता क्षमा चाहती हूँ ये सहित्यिक परिचरचा नहीं है हो सकता है मुझ अल्पग्य को ही सही पहचान न हो मगर जो मन को सही लगा वो लिख दिया जिसे लिखने को मुझे मजबूर किया गया आभार्

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  49. प्रौढ़ लेखकों के मन में टिप्पणियों की संख्या से ग्लानि या गर्व का भाव जगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता।....shailesh bharatwasi ji ne kaha aur yah satya hai.......

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  50. tippani kam ho par sashakt vichaaron se paripoorn ho,yahi mayne rakhta hai,sankhya ka koi arth nahi.....yah to bachkani ikshaa hai

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  51. मैं कोई कवि नही हूं, इसलिये भाषा की श्रेष्ठता पर , कविता की विधा के तकनीकी पहलू पर क्या लिख सकता हूं? मगर मेरे मेल पर यह आग्रह आया है, कि इस छीछालेदार मसले पर टिप्पणी करूं तो यहां जो भी पढा वह सार्थक,Constructive, या शालीन नही कहा जा सकता.

    वैसे मैं विजयजी की बात से सहमत हूं कि कविता Trance में लिखी जाती है. उन्होने जैसा लिखा वह सीधा दिल को छू गया. (आम आदमी हूं तो मेरे लिये भी तो कोई लिखे भाई). इतना अच्छा लगा , इतना Lucid लगा , कि तरलता से मैं भी -Trans में आ गया और उस कविता पर बिना किसी रिहल्सल के एक भाव पूर्ण Podcast रिकोर्ड किया और व्यक्तिगत भेज दिया.

    मेरे खयाल से जिस प्रकार पूजा में कर्मकांड से ज़्यादा भक्तिभाव का महत्व होना चाहिये, या किसी भी संगीत रचना में सुरों में मेलोडी के साथ भाव पूर्ण शब्द हों , उसी तरह कविता वही जो मन में सीधे उतर जाये.

    बाकी आप साहित्यिक लोगों की बातें आप ही जानें, सही और गलत कहने वाले हम कौन?

    जवाब देंहटाएं
  52. are aap sab kyu jhagad rahe hai....post se jyada tipaaniya interesting hai..

    जवाब देंहटाएं
  53. डार्लिंग राज ! आपसे सहमत हूं कि पोस्ट से ज्यादा टिप्पणी महत्वपूर्ण है पर यहां झगड़ा नहीं रगड़ा हो रहा है राज वीर जी।

    जवाब देंहटाएं
  54. अगर कोई किसी के ज्यादा कमेंट्स से जलेगा तो उसे कमेन्ट ही क्यूं करेगा,,,,??
    क्यूं बढाएगा उस पर एक और कमेन्ट,,,??
    :-(

    जवाब देंहटाएं
  55. अब तक छप्पन,,,,,
    और ये लीजिये,,,,,

    57,,,

    जवाब देंहटाएं
  56. आपको अगर अपनी घटिया पोस्ट पर भी सत्तर टिप्पणी चाहिये तो उसका सबसे सरल उपाय यह है कि आप भी सत्तर जगह जाकर उन पर टिप्पणी करें भले ही वहां आपके टेस्ट की चीज न हो और टिप्पणी में वाहवाही भी करें। फिर आप देखिये, टिप्पणियों की टी. आर. पी. कैसे बढ़ती है!
    सुशिल जी लगता है की आप भी अपनी पोस्ट पर इसी तरह टिप्पणी लेते हैं...
    दूसरों पर ऊँगली उठाने पर बाकि बची ऊँगली खुद पर उठती हैं...
    मीत

    जवाब देंहटाएं
  57. किसी कविता पर टिप्पडी करना किसी का भी अधिकार हैजैसे कि रचना को प्रकाशित करना। इऽधिकार का सदुपयोग नही किया गया, इसके फलस्वरुप बहस सार्थक नही रही्॥मजबूत तर्क की अपेक्शा दम्भ प्रदर्शन खूब हुआ।नकारात्मक बहस न हो तो अच्छा है।

    जवाब देंहटाएं
  58. बेनामीजून 23, 2009 11:30 pm

    MAHA TIPPNEE NO 60
    __________________

    सुशील जी,सब की अपनी अपनी पसंद होती है।कुछ पाठक सिर्फ भावनाओ को महत्व देते हैं तो कुछ कविता की विधा को।आप ने जो लिखा वह आपकी व्यक्तिगत सोच है.....अब जरूरी नही की आप की बात से सभी सहमत हो...

    यद्यपि विजय जी ने मेरे ब्लॉग पर कभी टिप्पणि नहीं की, पर उनकी प्रविष्टियों पर टिप्पणी देना कभी-कभी जरूरी हो जाता है । खास कर तब जब लगातार एक ही पोस्ट पढ़ने के तीन-तीन आमंत्रण विभिन्न माध्यमों से आ रहे हों, आप कितना नजरअंदाज कर सकेंगे इन्हें ।

    यद्यपि कुछ अन्य कविताओं पर तो नहीं, पर ’आओ सजन’ के पहले विजय जी की भूमिका ने शायद उस प्रविष्ट को और कमजोर कर दिया । इस कविता से मैं भी बहुत प्रभावित नहीं हुआ, और आपकी कही एक-एक बात से सहमत हूँ । टिप्पणी यद्यपि मैंने भी दी थी वहाँ ।
    यह बात भी मानने वाली है कि कई बार बहुत अच्छी प्रविष्टियाँ पाठकों का रोना रोती हैं, और कुछ कमतर प्रविष्टियाँ हाईलाइट कर दी जाती हैं । दोष प्रविष्टि से अधिक टिप्पणीकार का ही है । हम गुणवत्ता पर भी टिप्पणी देना सीखें, जरूरी है । सही गलत का भेद तो टिप्पणीकारों को आना ही चाहिए ।

    अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा…
    भाई यह सच है की सपत्ति जी कोई बहुत अच्छे कवि नही हैं पर यह भी सच है वह एक भोले भाले इंसान हैं ... एक से एक कचरा और निगेटिव लोग नेट पर उपलब्ध हैं फिर इन पर ही हमला क्यूं?

    अब टीप के लिए सब परेशान रहते हैं...तो वह क्या गुनाह कर रहे हैं?

    यह टीप उनके ब्लॉग पर लगती तो अलग बात थी...यह तो सरासर अपमान लग रहा है...ऐसे तो कोई किसी को कह सकता है भाई...यहाँ तो बौनों की बारात है

    पर ज्ञान बाटने की इच्छा हुई तो बेचारे सपत्ति ही फंसे!!!!!

    June 17, 2009 10:35 AM


    आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने कहा…
    आपसे सहमत हूँ. अच्छा लिखनेवाले अन्य अछे पर टिप्पणी नहीं करते तो यही होगा. शिल्प को सराहनेवाले जहाँ अच्छा शिल्प देखें सराहें अन्यथा कथ्य को सब कुछ मानने का प्रचलन बढ़ता रहेगा.

    June 17, 2009 10:53 AM


    सुशील कुमार ने कहा…
    यहाँ बौनों की बारात नहीं है अशोक कुमार पाण्डेय जी । आँखें खोलकर देखिये- उनके ब्लॉग पर भी टिप्पणी दे दी गयी है उसी वक्त।

    June 17, 2009 11:24 AM


    PRAN SHARMA ने कहा…
    SUSHEEL KUMAR JEE ,
    AAP BHALE HEE VIDVADAA
    MEIN MUJHE SE OONCHEE HAIN LEKIN
    JEEWAN KE ANUBHAV SE NAHIN.MANAKI
    AAP SAHITYA KE CHAAR AKSHAR PADH
    GAYE HAIN LEKIN JIS DHANG SE AAPNE
    VIJAY KUMAR SAMPATI KEE RACHNA-
    DHARMITA AUR BHASHA KEE KHILLEE
    UDAYEE HAI,VAH SARAHNIY NAHIN HAI.
    AAP JAESE VIDWAAN KO SHOBHAA NAHIN
    DETAA HAI.AAPNE UNKEE BHASHA KO
    "KACHCHEE" KAHAA HAI.AAPNE KABIR
    KAA ZIKR KIYAA HAI.KYAA MAIN AAPSE
    POOCHH SAKTA HOON KI KABIR KEE
    BHASHA KITNEE "PAKKEE" THEE?AAPNE
    UNKEE SUFEE KAVITA "AAO SAJAN--"
    KO SARAAHAA AUR AB AAP UNHEN
    "SUFISM" KAA PAATH PADHAANE LAGE
    HAIN.ISKE PEECHHE KAUN SEE BHAVNA
    KAAM KAR RAHEE HAI AAPKEE? KAHIN
    AESA TO NAHIN KI AAP VIJAY KUMAR
    SAMPATI KEE LOKPRIYTAA SE BOKHLAA
    UTHE HAIN?
    AGAR MAINE VIJAY KUMAR
    SAMPATI KEE KAVITA PAR YE TIPPANI
    KAR DEE -"AAPKEE KAVITA PAR HAZAAR
    GAZALEN QURBAAN" (MAINE ABHEE TAK
    150 GAZALEN BHEE NAHIN KAHEE HAIN)
    TO KAUN SEE AAFAT AA GAYEE? YAH
    AAPKO BHEE ACHCHHEE TARAH PATAA HAI
    KI" TUM JIYO HAZAARON SAAL "
    AASHIRWAAD DENE SE KOEE HAZAAR SAAL
    KAA NAHIN HO JAATAA.
    AGAR AAP KISEE KO UTHAA
    NAHIN SAKTE HO TO IS TARAH KISEEKO
    GIRAAEEYE BHEE NAHIN.

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  59. बेनामीजून 24, 2009 5:25 pm

    सुशील कुमार ने कहा…
    आदरणीय प्राण सर।
    मैं आपकी बड़ी इज्जत करता हूं। मैंने सपत्ति की रचनाओं की खिल्ली नहीं उड़ायी है, उसकी सप्रसंग व्याख्या करते हुए उन त्रुटियों की ओर पाठकों का ध्यान इंगित किया है जिस नज़र उनको नहीं थी। इस आलेख में अगर आप ध्यान से देंखे तो न मैंने आपके बारे में कोई निगेटिव बात कही है(सिर्फ़ आपके द्वारा टिप्पणी करने की मजबूरियां बतायी गयी हैं जैसे कि मेरी भी रहती है) और न सपत्ति को कोई व्यक्तिगत लांछन ही दिया है। सिर्फ़ उनकी रचना के दोष उजागर किये हैं मैंने। आप जैसे बुजुर्ग औरर मंजे हुये शायर अगर किसी की समालोचना को सहन नहीं करेंगे तो साहित्य का भला कैसे होगा? अगर सपत्ति इजाजत दें तो उन्हीं भावों पर केन्द्रित मैं एक कविता लि्खकर आपको नज़र कर दूं जिसे आप स्वयं पढ़कर कहेंगे कि यह उससे उम्दा है या घटिया। सपत्ति को तो मेरी शुभकामनायें हैं कि अच्छा से अच्छा लिखें। पर टिप्पणियां प्रायिजित न हों नेट पर,मेरा यह उद्धेश्य अवश्य रहेगा।सादर।-सुशील कुमार।

    June 17, 2009 6:32 PM


    सुशील कुमार ने कहा…
    और हां प्राण सर। आप सपत्ति की भाषा की तुलना संत कबीर की भाषा से अगर करते हैं तो साहित्य संबंधी आपके खयालात पर भी मुझे गंभारता से विचारना होगा। कबीर की भाषा क्या कच्ची थी? वह तो लोक के शब्द से दोहे बनाते थे जो सच्चे और खरे थे जिसकी आज भी जरूरत है।

    June 17, 2009 6:46 PM


    अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा…
    देखिये मैंने बौनों की बारात इसलिए कहा की यहां वे लोग सर,महोदय और विद्वान बने हुए हैं जो हिन्दी की दोयम दर्र्जे की पत्रिकाओं में बमुश्किल छप पते हैं. विदेशो में रह रहे शौकिया 'saahitykar', अधिकारी और प्रोफेसनल टाईप के कुछ आत्ममुग्ध जीव और चार लाइन न जानने वाले ' आलोचक ' यहाँ बिखरे पड़े हैं...और आलोचना करने वाले आलोचना बर्दाश्त करने में असमर्थ.

    फूहड़ तुकबंदियों में अगंभीर टिप्पणिया और अपने ही ब्लॉग या पत्रिका पर अपने ही प्रशंसा में लेख लगाने वाले यहाँ महान बने हैं जो अपनी सारी जुगाडो के बावजूद मुख्यधारा से बहिस्कृत रहे. सुशील जी जब हमने कृत्या की संपादिका के आप द्वारा की गयी विरुदावली पर टिप्पणी की तो आपने उसे हटा दिया था और कहा की यह मेरा ब्लॉग है और यहाँ हटाने लगाने का अधिकार मेरा है...तो यह अधिकार सपत्ति को क्यों नही?

    समीक्षा आलोचना नही होती....

    हाँ आपने तमाम ई पत्रिकाओ की बात की...मै अगर हंस , कथन , ज्ञानोदय, उद्भावना, समयांतर और कथाक्रम का नाम लू तो तमाम स्वघोषित कवियो , आलोचकों और विचारको के होश उड़ जायेंगे.

    मेरा तो मानना है की अभी हजारो फूलो को खिलने दो....सारी खिड़कियों को खुला रहने दो....जो रचेगा वही बचेगा.
    जो अच्छा न लगे वहां न जाएँ...जो परेशां करे उसे स्पैम बना दें. अपील कौन नही करता?

    June 17, 2009 7:39 PM


    अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा…
    हाँ आपने बात की बड़े कवियो की तो साहब हमने हमकलम पर केदार नाथ सिंह और देवताले जी की कविता लगायी तो आपने भी टिप्पणी नही की....तो क्या पर उपदेश कुशल बहुतेरे?

    June 17, 2009 7:42 PM


    अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा…
    एक और बात आँखे खुली ही थी हमारी...हमने भी नही ही की बात की थी...

    हाँ मै लिख कर नज़र कर दूं वाला वाक्य दिखाता है कि आत्ममुग्ध तो आप भी कम नही.....
    इतना गुरूर किसी लेखक को शोभा नही देता भाई साहब..अभी न तो आप ऐसे कवि हो गए हैं ना आलोचक कि कविता के प्रतिमान बने/बनाए.

    June 17, 2009 7:46 PM

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  60. बेनामीजून 24, 2009 5:29 pm

    सजीव सारथी ने कहा…
    चलिए एक सार्थक बहस तो हुई इस बहाने...समालोचना होनी ही चाहिए और हर रचनाकार को अच्छे और बुरे फीडबैक के लिए तैयार रहना ही चाहिए. यदि ये नहीं होगा तो हिंदी के लेखक सदा ही स्वयं की प्रशंसा में डूबे रहेंगें. और यदि आप सब लोग वाकई हिंदी ब्लॉग्गिंग को बढ़ते हुए देखना चाहते हैं तो तिप्पन्नियों का मोह छोड़ दीजिये, अधिक टिप्पणियां का मतलब ये नहीं है की आपको अधिक लोगों ने पढ़ा है. ये उस पोस्ट की गुणवत्ता का सबूत भी नहीं है. हिंदी ब्लॉग्गिंग में बहुत सी ऐसी पोस्ट्स हैं जहाँ यदि ७५ टिप्पणियां है पर कुल पाठक लगभग १०० हैं. तो ये कोई उपलब्धि नहीं है. टिप्पणियों के लिए किसी को न तो मजबूर होना चाहिए न करना चाहिए. और नेगेटिव यदि मिले तो सौभाग्य समझिये. ये आपको और बेहतर ही बनयेगा. अब कोशिश ये करें की आपकी पोस्ट में गुणवत्ता हो और उसे अधिक से अधिक पाठक मिले (टिपण्णी नहीं) सब को मिलकर कुछ बड़े जानकार रचनाकारों को इन सब से जोड़ना चाहिए ताकि आपकी लेखनी को सही मार्गदर्शन मिल सके. यदि आलोचनाओं से बचते रहेंगें तो कहीं भी नहीं पहुँच पायेंगे. दस झूठी तारीफों से एक सच्ची आलोचना भली. अब समय आ गया है की हम प्रायोजित टिप्पणियों से उपर उठें.

    June 17, 2009 8:21 PM


    डॉ. अमिता नीरव ने कहा…
    ये क्या छपे साहित्य की तरह की राजनीति से ब्लॉग की दुनिया भी अछूती नहीं रही....जब शुरू किया था तो दोस्तों ने समझाया था कि यहाँ भी माफिया काम करता है। अपनी ऊर्जा को बेकार किसी के काम की चीरफाड़ करने के यदि रचनात्मकता में लगाएँ तो ही नेट पर हिंदी का भला हो पाएगा। किसी ने ठीक ही टिप्पणी की है.....इस संघर्ष में जो अच्छा रचेगा वही बचेगा...तो हम तो अपना काम करें...परिणाम आएँगें.....।

    June 17, 2009 10:14 PM


    महामंत्री - तस्लीम ने कहा…
    टिप्‍पणियों के चक्‍कर में न पडें और अपना काम करते रहें।

    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

    June 17, 2009 10:24 PM


    सुशील कुमार ने कहा…
    महान लोगों के मुँह से ऐसी बातें शोभा नहीं देती। लोग मुझे पत्रिकायें न गिनायें,लगभग सभी जगह छप चुका हूं,छपता रहता हूं पर उसका ढोल पीटना जरूरी है क्या? पत्रिका के नाम गिनाने से किसके होश उड़ जायेगे,जरा साफ़ करें अशोक बाबू। यह भी गरूर की ही भाषा है। कृत्या की संपादिका जितना आप पहले लिख लें मात्रा और गुण दोनो में, तब आप उनकी निगेटिव टिप्पणी करें तो अच्छा लगेगा। आपको तेजेन्द्र शर्मा जी और रति जी बर्दाश्त नहीं तो मैं क्या करूं? प्राण साहब भी बहुत छपते हैं प्रिंट में ,अभी हाल का ज्ञानोदय में उनकी उम्दा रचना नहीं देखी क्या? ..और किसी और की बात कर रहे तो अलग बात है।

    हां.एक बात यह कि सपत्ति जी को टिप्पणी हटाने से मना किसने किया जो आप अधिकार की बात करते हैं? अब आप के ब्लॉग पर जाकर टिप्पणी कमपलसरी है क्या? अपनी मनमर्जी है। मेरा बस इतना ही कहना है कि नेट पर प्रायोजित टिप्पणियां न हो,बस। और आपका तो नेट से खास लेना-देना भी नहीं रहता,आप ही ने कहा है तो फिर व्यर्थ का विवाद क्यों?That is the end and goal of disscussion.

    June 18, 2009 12:25 AM


    Vidhu ने कहा…
    आपने जो भी कहा सहमत हूँ लेकिन लिखने दीजिये ..अभ्यास से भी कभी-कभी बात बन जाती है अपने अच्छे-बूरे लिखे को आदमी स्वयं जानता है अपनी गलतियाँ भी ...लिखने की ही तरह ...कलात्मक सोचना भी एक कला हो सकती है जब एसा होगा तो लिखना बड़ी बात नही रह जायेगी ...जिसको आप लिखना मान रहें हैं....इन बन्धु को हलाँकि मैंने अभी तक पढा नही है ...

    June 18, 2009 12:34 AM

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  61. ... प्रभावशाली अखाडा जान पडता है, बधाई-बधाई-बधाईंयाँ !!!!

    जवाब देंहटाएं
  62. टिप्पणियों में लिखी गई कवितायें अत्यंत प्रभावशाली हैं....:-)

    जवाब देंहटाएं

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