बदनाम होंगे तब ही तो ज्यादा नाम होगा
[संदर्भ- विजय कुमार सपत्ति की कविताओं की काव्यात्मकता]
आज जब विजय कुमार सपत्ति जी का प्यारा मेल पढ़ा तो उनके ब्लॉग कविताओं के मन से पर भ्रमण करने चला गया। उनके ब्लॉग पर उपर की दो कवितायें ‘आओ सजन’ और ‘तेरा चले जाना’ पर यहाँ नज़र डालना चाहूँगा जो टिप्पणियों की
संख्या के हिसाब से नेट-जगत में मशहूर हो गयी हैं और उस पर अब हिंदी के सुधी पाठकों की राय भी जानना चाहूंगा। क्या आपको नहीं लगता कि दोनों ही कवितायें आत्ममुग्धता का शिकार और कवि की निहायत ही व्यक्तिगत अभिव्यक्ति यानि आत्मालाप (या बेहतर शब्द तो आत्मप्रलाप होगा) से आगे कुछ नहीं है ? कविता ‘तेरा चले जाना’ प्रेयसी की विदाई के दु:ख से उद्भूत एक प्रेमी का विरहगान है जिसकी भाषा एकदम कच्ची और कविता का रूप कविता की संरचना और उसकी शास्त्रीयता से बाहर जाता दिखाई देता है। शब्दों का प्रयोग यहाँ इतना बेतुका और भोंडा है कि क्या कहूं ! अजनबी स्टेशन, मदिरा का जाम, बेचैन सी रात की सुबह, उदास उजाले से आसूंओं का सूखना इत्यादि ऐसे मुहावरे और शब्द हैं जिसे हिंदी के गंभीर पाठक कैसे सहन करेंगे ? स्टेशन अनजान होता है,अजनबी नहीं। आदमी अजनबी हो सकता है। मदिरा का जाम की जगह कुछ और लिखा जाना कविता के बेहतरी के लिये जरूरी था। बेचैन सी रात का सुबह होने का मतलब है दु:ख का निस्तार होना, पर कवि ने भावातिरेक में बहकर मुहावरे के अर्थ पर बिना ध्यान दिये ही उसे अपनी कविता में डाल दिया है। यहां यह कहना समीचीन है कि कविता करते समय कवि को आत्मसम्मोहन की अवस्था और शब्दों के वेग से स्वयं को संयमित रखना आवश्यक होता है वर्ना वह कहां जायेगा शब्दों की बाढ़ में बहकर , कहना जरा कठिन है। पूरी कविता ट्रांस(बदहवास)स्थिति में आत्मनियंत्रण को खोकर लिखी गयी प्रतीत होती है जिस कारण कविता भाव को शिल्प के स्तर पर अभिव्यक्त करने में नितांत असफल हो गयी है। अगर सपत्ति जी आज्ञा दें तो इसी भाव को एक दूसरी कविता में पिरोकर मैं ही उन्हें अवगत करा दूं कि कैसे भाव कविता में रूप का लक्ष्य सही रीति से करता है। हिंदी साहित्य में प्रेम-कविताओं का बड़ा महत्व है । इस पर अनेक विशेषांक भी निकाले जाते हैं पर उन कविताओं में दुराशा और व्यथा की जगह प्रेम का व्यापक रूप और उसका सामाजिक सरोकार होता है। चिली कवि पॉब्ला नेरूदा की प्रेम कवितायें मनुष्य में जीवन की जिजीविषा का अदम्य भाव भरती है। पर सपत्ति की ये प्रेम कवितायें उस दृष्टि से साहित्यिक दर्जा तक प्राप्त ही नहीं कर सकती। अच्छे और बुरे का सवाल तो बाद में उठता है।
दूसरी कविता ‘आओ सजन’ को सपत्ति सुफियाना भक्ति-गीत से प्रेरित होकर रचा हुआ कह रहे हैं। पर उन्हें मध्यकालीन सूफी कवियों को पढ़ना चाहिये। तब उनके पल्ले यह बात पड़ेगी कि सूफी कवितायें क्या होती है? क्या उन्होंने ‘दमादम मस्त कलन्दर ’ या फिर ‘छाप तिलक सब’ नहीं पढी है? अगर वह नहीं पढ़ी तो मलिक मोह्म्मद जायसी, मीरा, सूर और उस समय के सूफी कवियों में से किसी को देंखें। यहाँ पूरी कविता ही सपाटबयानी का नमूनाभर है जबकि सूफी कविताओं में प्रेम का जो स्वरूप और मानदंड सामने रखा गया है और उससे जो संदेश मिलते हैं उसके लिये वह भाषा और शिल्प भी चाहिये जिसकी गुंजाईश कम से कम सपत्ति की इन कविताओं में तो रत्तीभर भी नहीं है। इस कविता पर अपनी टिप्पणी देते हुये अशोक कुमार पाण्डेय ने उनसे ठीक ही आग्रह किया है कि उन्हें अन्य विषयों को भी अपनी कविता में लाना चाहिये।
मगर टिप्पणी की संख्या तो जरा देखिये। यह लेख लिखे जाने तक उक्त कविताओं पर क्रमश: सत्तर और एक सौ बत्तीस टिप्पणियाँ विजय कुमार सपत्ति जी को मिल चुकी है। क्या करूं, मुझे भी वहां जाकर देनी पड़ी। अब प्राण साहब जो गजल के जाने -माने उस्ताद हैं, ने अपनी हजार गजलें सपत्ती की एक कविता‘तेरा चले जाना’ पर न्योछावर कर दिया। मेरी तरह उनकी भी टिप्पणी करने की कुछ मजबूरियाँ जरूर रही होंगी। पर सपत्ति जी की कवितायें चाहे जैसी हों पर
आदमी बड़े भोले-भाले, बच्चे जैसे स्वभाव वाले और मृदुल हैं जिसकी यहाँ तारीफ़ करनी होगी। हाँ, नेट पर टिप्पणी पाने का यही नुस्खा़ है भाई। मैं तेरा- तू मेरा। आपको अगर अपनी घटिया पोस्ट पर भी सत्तर टिप्पणी चाहिये तो उसका सबसे सरल उपाय यह है कि आप भी सत्तर जगह जाकर उन पर टिप्पणी करें भले ही वहां आपके टेस्ट की चीज न हो और टिप्पणी में वाहवाही भी करें। फिर आप देखिये, टिप्पणियों की टी. आर. पी. कैसे बढ़ती है! सपत्ती को जितनी टिप्पणी मिली है उतनी तो कोई नागार्जुन, त्रिलोचन और अभी जीवित बड़े कवियों की कविताओं पर भी मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है क्योकि वे आयेगे नहीं टिपियाने। पर अगर आप विजय कुमार सपत्ति की अदा अपना लेंगे तो आपके ब्लॉग पर भी टिप्पणियों की बरसात हो जायेगी।
अब मैं एक सवाल नेट पर हिंदी के गंभीर पाठक-लेखक-कवियों से करना चाहूंगा कि क्या इससे नेट पर हिंदी का भविष्य उज्जवल रह पायेगा, जब तक अच्छी चीजें उपेक्षित-तिरस्कृत होती रहेंगी और खराब चीजों पर वाहवाही लुटायी जाती रहेंगी? निश्चय ही यह हिंदी के अपरिपक्व पाठकीयता की ओर इंगित करती है जिससे नेट पर बचने का सार्थक प्रयास होना चाहिये।
दूसरे , मैं सपत्ति जी को परामर्श देना चाहूँगा कि आप हिंदी के बड़े कवियों जो दिवंगत हो चुके या अभी जीवित हैं और वरिष्ठ हैं यथा चन्द्र्कांत देवताले, भगवत रावत,विजेन्द्र, एकांत श्रीवास्तव,कुमार अम्बुज, कूँवर नारायण, अरुणकमल जैसे कई- कई कवि हैं जिन्हें पढ़ें ताकि आपको कविता के स्वभाव और उसकी समकालीनता और उसके काव्यतत्व का भान हो सके। अगर विजय कुमार सपत्ति को अपनी कविताओं का नेट पर ही साहित्यिक मूल्य परखना है तो इस तरह की कवितायें वे हिन्द-युग्म (www.hindyugm.com), सृजनगाथा(srijangatha.com), लेखनी ( www.lekhani.in), कृत्या( www.kritya.in) इत्यादि वेब पत्रिकाओं में भेंजे तो उनको यह पता चल जायगा कि यहाँ भी रास्ता इत्ता आसां नहीं जित्ता सोच रक्खा है! हा हा हा। ***