अतिथि महाराज अभी तुमसे बिछुडे हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं. फिर भी आज मन किया कि तुम्हारे हाल-चाल ले लूँ. हालाँकि तुम्हारा मेरे घर आना आफत का आना ही है, किन्तु आफत या तुम्हें झेलते-झेलते अब तो आदत सी हो गई है. तुम्हारी जाने कब कुदृष्टि मेरे घर की ओर पड़ेगी और फिर से तुमसे मिलन हो पाएगा. तुम्हारा आना ही एक बला है, जिसे मुझ जैसा निर्बल मानव भला कैसे झेल पाता है, यह तो ईश्वर ही भली-भाँति जानता है. जब तुम आते हो, तो शुक्र-शनिचर, राहु-केतु इत्यादि अनेक ग्रह मेरे विपरीत हो जाते है. यहाँ आकर तुम्हारा पेट कुआ बन जाता है, जिसमें एक महीने का राशन एक हफ्ते में ही डूब जाता है. मेरे गरीबखाने में प्रवेश करते ही तुम कुंभकर्ण की बिरादरी में शामिल हो जाते हो.
व्यंग्य: अतिथि फिर कब आओगे?
Posted on by संगीता तोमर Sangeeta Tomar in