खबरों में बने रहने की इच्‍छा एक वासना है : सुरेंद्र प्रताप सिंह

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  • हिन्‍दी ब्‍लॉगर
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  • खबरों में बने रहने की इच्छा वैसी ही वासना है, जैसा कि राजनेता पाले रखते हैं।

    सुरेंद्र प्रताप सिंह से अजित राय की बातचीत

    ये एसपी सिंह का आखिरी इंटरव्‍यू है। जो 15 जून 1997 को जनसत्ता में छपा था। ठीक दस दिनों बाद उनका निधन हो गया था। इस बातचीत में उन्‍होंने कहा है कि खबरों में बने रहने की इच्‍छा वैसी ही वासना है, जैसा कि राजनेता पाले रखते हैं।

    आप प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्राँनिक मीडिया में आ गये हैं। अपनी उपस्थिति में कैसा अंतर पाते हैं?

    किसी माध्यम या संस्थान में निजी उपस्थिति का कायल मैं कभी नहीं रहा। मैंने जहां भी काम किया, टीम वर्क की तरह काम किया। अखबार में भी जब मैं था, तो पहले पन्ने पर दस्तखत करके कुछ भी लिखकर छपने की वासना मुझमें नहीं रही। हिंदी में तो इसकी परंपरा ही रही है। मैं भी चाहता तो ऐसा अक्सर कर सकता था। अब टेलीविजन के लिए काम करना मुझे रास आ रहा है। बतौर प्रोफेशन मैं यहां पहले से ज्यादा संतुष्ट हूं। क्योंकि यहां लफ्फाजी और छल की गुंजाइश नहीं है। आलस्य और मिथ्या पत्रकारिता यहां नहीं चल सकती। जैसा कि कुछ लोग अनजान सूत्रों के हवाले से कुछ भी लिखते रहते हैं। यहां तो आप जो कुछ भी टिप्पणी करते हैं, उसे दिखाना पड़ता है। ये बात अलग है कि यहां ग्लैमर ज्यादा है।

    आजकल हिंदी अखबारों पर संकट की हर जगह चर्चा हो रही है। आपको क्या लगता है?

    ये.उनके घोर अज्ञान की अभिव्यक्ति है। हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग चल रहा है। हिंदी और भाषाई अखबारों की पाठक संख्या, पूंजी, विज्ञापन और मुनाफा लगातार बढ़ रहा है। हां, इस वृद्धि के बरक्‍स उनके समाचार-विचार के स्तर को लेकर आप चिंतित हो सकते हैं। पर ये सब समय के साथ ठीक हो जाएगा। दूसरी ओर आज, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर सहित अनेक क्षेत्रीय अखबार अपना विकास कर रहे हैं। जयपुर में भास्कर और पत्रिका की प्रतियोगिता से कीमतें नियंत्रित हुई हैं। गुणवत्ता भी सुधर जाएगी। सच तो ये है कि हिंदी पत्रकारिता अपने पैरों पर खड़ी हो रही है। हालांकि पेशे के रूप में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण हिंदी पत्रकारिता में बड़ी मात्रा में खर-पतवार आ रहे हैं। लेकिन ये स्थिति स्‍थायी नहीं होगी।

    इसी संदर्भ में कहा जा रहा है कि हिंदी अखबारों की विश्वसनीयता घट रही है।

    भारतीय समाज में तुलसीदास के समय से ही त्राहि-त्राहि का भाव व्याप्त रहा है। पिछले 150 सालों से तो ये रोना और तेज हुआ है। हर आदमी बताता फिर रहा है कि संकट काल है। कम से कम मैं इस सामूहिक विलाप में शामिल नहीं हूं। भारतीय संस्कृति मूलत: विलाप की संस्कृति रही है। नरेंद्र मोहन अखबार की बदौलत राज्यसभा पहुंच गये तो बड़ा शोर हो रहा है। 1952 से ही ये सब हो रहा है।

    पत्रकारिता के मिशन बनाम प्रोफेशन होने पर भी बहस हो रही है। आप क्या सोचते हैं?

    रकारी सुविधाएं और पैसे लेकर निकलनेवाले अखबारों की सामाजिक प्रतिबद्धता क्या है? ये एक फरेब है, जो हिंदी में ज्यादा चल रहा है। पत्रकारिता कस्बे से लेकर राजधानी तक दलाली और ठेकेदारी का लाइसेंस देती है। मैंने किसी मिशन के तहत पत्रकारिता नहीं की। मेरी प्रतिबद्धिता अपने पेशे यानी पत्रकारिता के प्रति है। आजादी की लड़ाई के दौरान पत्रकारिता मिशन थी। इसलिए वस्तुपरक भी नहीं थी। मिशन की पत्रकारिता हमेशा सब्जेक्टिव होती है। यदि कोई पार्टी, संस्थान, आंदोलन मिशन की पत्रकारिता करे तो समझ में आती है। लेकिन नवभारत टाइम्स, जनसत्ता या हिंदुस्तान क्यों मिशन की पत्रकारिता करे?

    मीडिया में वर्चस्व की संस्कृति को लेकर कुछ राजनेताओं ने अच्छा-खासा विवाद खड़ा कर दिया है। कांशीराम द्वारा पत्रकारों की पिटाई का मामला ताजा उदाहरण है। आपने इससे अपने आपको अलग क्यों कर लिया?

    समें जातिवादी ओवरटोन ज्यादा था, इसलिए मैं अलग हो गया। यदि आप इस पेशे में आये हैं, तो इसकी पेशागत परेशानियों का सामना करें। वरना कोई अतिसुरक्षित पेशा चुन लें। कल्पना कीजिए यही काम किसी सवर्ण ने किया होता, तो क्या ऐसा ही विरोध होता? सवर्ण पत्रकारों ने इस घटना को दलित नेता को जलील करने के एक अवसर के रूप में इस्तेमाल किया। मीडिया में प्रच्छन्न सवर्ण जातिवादी वर्चस्व है। उत्तर भारत में तो अधिकतर अखबारों में सांप्रदायिक शक्तियां ही हावी हैं। पिछड़ों को सबक सिखाने का भाव आज भी ज्यादातर महान किस्म के पत्रकारों की प्रेरणा बना हुआ है। ये वर्चस्व चूंकि समस्त भारतीय समाज में है, इसलिए मीडिया में भी है।

    साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों पर आपकी टिप्पणियां खासा विवाद पैदा करती रही हैं। क्या आप अब भी ऐसा मानते हैं कि साहित्यकारों ने पत्रकारिता में घालमेल कर रखा है?

    भाषा की बात छोड़ दें तो विषयवस्तु या विचार के स्तर पर किसी भी साहित्यकार संपादक ने हिंदी पत्रकारिता को कोई ज्यादा मजबूत किया, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन ये भी सच है कि आज हिंदी पत्रकारिता की अपनी भाषा बन रही है। सारी दुनिया में पत्रकारिता की भाषा को साहित्य ने अपनाया है। हमारे यहां उलटी गंगा बहाने की कोशिश होती रही। इसे दुराग्रह नहीं तो क्या कहेंगे कि पत्रकारिता की भाषा को साहित्यिक बना दिया जाए। आप बेशक जैसी मर्जी वैसी साहित्यिक पत्रकारिता करें। लेकिन बजट और विदेश नीति पर पत्रकारीय लेखन में आपकी दखलअंदाजी क्यों? प्रिंट मीडिया के लिए भाषा और शैली की जरूरत है। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि किसी बड़े विद्वान पंडित या साहित्यकार को संपादक बना दें। हिंदी में अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि पत्रकारिता में साहित्य को तरजीह नहीं दी जाती। आप बताइए कि संसार की किस भाषा की पत्रकारिता में साहित्यिक खबरें प्रमुख रहती हैं। खबरों में बने रहने की इच्छा वैसी ही वासना है, जैसा कि राजनेता पाले रखते हैं।

    ऐसा कह कर आप पत्रकारिता के लिए साहित्य के महत्व को रद्द तो नहीं कर रहे हैं? क्या आप रघुवीर सहाय, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और अन्य अनेक साहित्यकारों के पत्रकारीय योगदानों को स्वीकार नहीं करते?

    देखिए, एक बात साफ कर दूं कि मैं इन लोगों के प्रति बहुत श्रद्धा रखता हूं। साहित्य पढ़ना मेरी आदत है। जो लोग कविता लिखते हैं, वो बहुत कठिन और बड़ा काम करते हैं। मुझे खुद इस बात का अफसोस रहता है कि मैं कविताएं नहीं लिख पाता। ये मेरी असमर्थता है। लेकिन ये लोग सिर्फ अच्छे साहित्यकार होने की वजह से संपादक नहीं बने। ये लोग अपने समय के श्रेष्ठ पत्रकार थे। ये उस दौर में सामने आये, जब हिंदी पत्रकारिता दोयम दर्जे के पत्रकारों के हाथों में था। इन लोगों ने इसे नया चमकदार चेहरा दिया। साहित्य सृजन की एक श्रेष्ठ विद्या है। जैसे चित्रकला, अभिनय, गायन, नृत्य आदि। फिर आप बहुत बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, नेता, वकील या कुछ भी हों पर इसका मतलब ये नहीं कि आपको संपादक बना दिया जाए। महज इसलिए कि आप उस भाषा में लिखते हैं, जिसमें अखबार निकलता है।

    2 टिप्‍पणियां:

    आपके आने के लिए धन्यवाद
    लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद

     
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