बदलती घटनाओं से
कभी चमत्कृत होती
तो कभी संशय में आजाती हूँ|
दरअसल घटनाएँ जिस रूप में
मोड लेरही हैं आजकल
उसे क्या नाम दूं |
बरसों के भटके रिश्ते
बड़ी आत्मीयता जता रहे हैं
और वे नाते जिन्हें
इतने यत्नों से पाला पोषा
आज नज़रों से ओझल
होते जा रहे है|
मानो अब उनका टर्म
समाप्त होरहा हो |
आदतन सहज विशवास
कर ही लेती हूँ
बड़ी से बड़ी घटना पर|
पर रिश्तों का ये प्रत्यावर्तन
मुझे उलझन में
उलझा रहा है |
और मै अवश सी सब कुछ
ऐसे स्वीकारती हूँ
मानो ये सब नियति का हिस्सा है |
औरमुझे अब ये ही रोल अदा
करना है |
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बहुत गहन रचना...
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