एक जान की कीमत एक रुपए, क्या यही न्याय है?

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  • उपदेश सक्सेना
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  •                                                                           (उपदेश सक्सेना)
    भोपाल में 25 साल पहले हुई गैस त्रासदी को विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी बताया जाता है, मगर यूनियन कार्बाइड के उस संयंत्र से रिसी गैस के पीड़ितों को लगातार प्रयोगशाला के चूहों की मानिंद ही समझा गया. मैं 2 दिसंबर 1984 (गैस हादसे) के पहले से भोपाल का निवासी हूँ, मैंने देखा है कि त्रासदी वाली रात और अगले कई दिनों तक भोपाल का नज़ारा ठीक वैसा था, जैसे “लाशों के शहर में गिद्धों का अभाव” हो गया हो. उन दिनों को याद कर आज भी सिहरन दौड जाती है. इन 25 सालों में विश्व के तमाम देशों में भोपाल की पहचान गैस कांड को लेकर बनी और यहाँ के लोगों को प्रयोगों की दृष्टि से ‘एलियन’ जैसा समझा गया.गैस पीड़ितों को केवल इस विभीषिका का ही दंश नहीं झेलना पड़ा, उन्हें अदालत की चौखट पर मुआवजे की भी मशक्कत करना पड़ी. मुआवजे के लिए बनाई गईं दावा अदालतों में किस कदर खुलेआम रिश्वतखोरी के दौर चले हैं, यह किसी से पर्दा करने वाली बात नहीं है.बीमारों को दवाएं मयस्सर नहीं हुईं, उनके पुनर्वास की जगह अफसरशाही ने अपना इंतज़ाम किया ऐसे ही कई अन्य कारणों से भी मृतकों की संख्या लगातार बढती गई.जानकार लोग जानते हैं कि, इस गैस प्लांट के आसपास बसी कालोनियों में भू-जल खतरनाक स्तर तक ज़हरीला हो चुका है, मिट्टी बंज़र हो गई है, बावज़ूद 25 साल में रही सरकारों ने इस पर ज़्यादा गौर नहीं किया, नतीजा आज भी वहाँ के बाशिंदे गैसजन्य बीमारियों से मुक्त नहीं हो पाए हैं, समय पूर्व, अविकसित और बीमार-अपंग बच्चे अब भी वहाँ पैदा होते रहते हैं.

    14-15 फरवरी1989 को उच्चतम न्यायालय में हुए एक समझौते के अनुसार 1.73 लाख गैस पीड़ितों को अस्थाई, 80 को स्थाई विकृति तथा 3 हज़ार लोगों की मौत के मामले में 750 करोड़ रुपए का मुआवजा तय किया गया था.वैसे मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकार भी गैस पीड़ित वार्डों को चुनने में गफलत में रही, कई जगह ऐसा हुआ कि सड़क के एक ओर का वार्ड गैस पीड़ित है तो सामने की लाइन को अप्रभावित माना गया. बीसियों जोड़ी बूढी आँखों ने अदालतों की चौखटों पर तैनात सिपाहियों की घुड़कियाँ, बाबुओं की लताड और बाद में केवल अगली तारीख को भोगा है.

    भोपाल की अदालत द्वारा इस मामले में दिये गए फैसले के कई वर्ष पहले ही यह तय हो गया था कि, आरोपियों को ज़्यादा सज़ा नहीं मिलेगी. दरअसल 13 सितम्बर1996 को सुप्रीमकोर्ट ने इस मामले के आरोपी केशव महिन्द्रा तथा अन्य की याचिका पर यह फैसला दिया था कि, इन अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 304(भाग-2) की जगह 304(ए) के तहत मुकदमा चलाया जाए, 304(भाग-2) में जहां 10 साल की सज़ा का प्रावधान है वहीँ 304(ए) में अदालत केवल 2 साल की ही सज़ा दे सकती है.इधर इस मामले के मुख्य आरोपी बनाए गए वारेन एंडरसन को भारत सरकार लाने का कोई प्रयास नहीं कर पायी है इसके पीछे कूटनीतिक कारण हैं. एंडरसन का अमरीका के फ्लोरिडा में 111, कैटलिना सर्किट वेरो बीच का पता है मगर जब बात अमरीका की आती है तो हिन्दुस्तानी सरकार के हाथ-पैर फूल जाते हैं. यदि यही न्याय है तो इससे अराजकता बढ़ सकती है, महज़ एक रुपए के जुर्माने की सज़ा पर तो हत्याओं का सिलसिला बढ़ जाएगा.

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