आसमान से गिरा
holi
***राजीव तनेजा***
'हाँ आ जाओ बाहर... कोई डर नहीं है अब...चले गए हैं सब के सब।'
मैं कंपकंपाता हुआ आहिस्ता से जीने के नीचे बनी पुरानी कोठरी से बाहर निकला। एक तो कम जगह ऊपर से सीलन और बदबू भरा माहौल, रही-सही कसर इन कमबख़्तमारे चूहों ने पूरी कर दी थी। जीना दूभर हो गया था मेरा। पूरे दो दिन तक वहीं बंद रहा मैं। ना खाना, ना पीना, ना ही कुछ और। डर के मारे बुरा हाल था। सब ज्यों का त्यों मेरी आँखों के सामने सीन-दर-सीन आता जा रहा था। मानों किसी फ़िल्म का फ्लैशबैक चल रहा हो। बीवी बिना रुके चिल्लाती चली जा रही थी...
नोट:इस बार आलस्य या फिर व्यस्त्तता के चलते कुछ नया नहीं लिख पाया तो सोचा कि होली के मौके पर अपनी एक पुरानी कहानी को आप लोगों के साथ बांटू,इसे मैँने दो साल पहले होली के मौके पर लिखा था।उम्मीद है कि यह आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी।
'अजी सुनते हो? या आप भी बहरे हो चुके हो इन नालायकों की तरह? सँभालो अपने लाडलों को, हर वक़्त मेरी ही जान पे बने रहते हैं। तंग आ चुकी हूँ मैं तो इनसे ...काबू में ही नहीं आते। हर वक़्त बस उछल कूद और...बस उछल कूद और कुछ नहीं। ये नहीं होता कि टिक के बैठ जाएँ घड़ी दो घड़ी आराम से... ना पढ़ाई की चिंता ना ही किसी और चीज़ का फिक्र...हर वक़्त सिर्फ़ और सिर्फ़ शरारत...बस और कुछ नहीं। ऊपर से ये मुआ होली का त्योहार क्या आने वाला है, मेरी तो जान ही आफ़त में फँसा डाली है इन कमबख़्तों ने। उफ!...बच्चे तो बच्चे..... बाप रे बाप, जिसे देखो रंग से सराबोर| कपड़े कौन धोएगा?.... तुम्हारा बाप?
भगवान बचाए ऐसे त्योहार से।रोज़ कोई ना कोई शिकायत लिए चली आती है।
''इसने मेरी खिड़की का काँच तोड़ दिया और इसने मेरी नई शिफॉन की साड़ी की ऐसी-तैसी कर दी"...
''अरे!...डाक्टर ने कहा था कि काँच लगवाओ खिड़की में? प्लाई या फिर लकड़ी का कोई मज़बूत सा फट्टा नहीं लगवा सकती थी क्या उसमें?''
"और ये साडी-साडी क्या लगा रखा है?"...
"कोई ज़रूरी नहीं है कि हर वक़्त अपना पेट दिखाती फिरो"...
"कोई ज़रूरी नहीं कि सामने वाले मनोज बाबू को यूँ छुप-छुप के ताकती फिरो खिडकी से हर दम" ....
"ज़्यादा ही आग लगी हुई है तो भाग क्यों नहीं खडी होती उनके साथ?" "शरीफ़ों का मोहल्ला है ये। लटके-झटके दिखाने हैं तो कहीं और जा के मुँह काला करो अपना" बीवी ने तो अपनी नौटंकी दिखा सबको चलता कर दिया पर 'शर्मा जी' वहीं खडे रहे....टस से मस ना हुए...बोल्रे..
"मेरे चश्मे का हाल तो देखो...अभी-अभी ही तो नया बनवाया था".....
"दो दिन भी टिकने नहीं दिया इन कम्भखतो ने"
"बस मारा गुब्बारा खींच के 'झपाक' और कर डाला काम-तमाम"
"टुकडे-टुकडे कर के रख दिया"
"अब पैसे कौन भरेगा?"शर्मा जी गुस्से से बिफरते हुए बोले
बीवी ने आवाज़ सुन ली थी शायद, लौटे चली आई तुरंत..बोली...
"अब शर्मा जी... बुढ़ापे में काहे अपनी मिट्टी पलीद करवाते हो? और मेरा मुँह खुलवाते हो। राम कटोरी बता रही थी कि चश्मा लगा है आँखे खराब होने से और आँखे ख़राब हुई हैं दिन-रात कंप्यूटर पे उलटी-पुलटी चीज़ें देखने से। इसीलिए तो काम छोड़ चली आई ना आपके यहाँ से?"
शर्मा जी बेचारे सर झुकाए पानी-पानी हो लौट गए। उनकी हालत देख मेरी मन ही मन हँसी छूट रही थी। अभी दो दिन बचे थे होली में, लेकिन अपनी होली तो जैसे कब की शुरू हो चुकी थी। बस छत पर चढ़े और लगे गुब्बारे पे गुब्बारा मारने हर आती-जाती लड़की पर....ले दनादन और...दे दनादन...
"पापा!... पापा!...सामने वालों की हिम्मत तो देखो...अपुन के मुकाबले पर उतर आए हैं।" अपना चुन्नू बोल पड़ा।
"हूँ...अच्छा! तो पैसे का रौब दिखा रहे हैं स्साले!....चॉयनीज़ पिचकारियाँ क्या उठा लाए सदर बाज़ार से, सोचते हैं कि पूरी दिल्ली को भिगो डालेंगे? अरे!...बाप का राज समझ रखा है क्या?...अपुन अभी ज़िंदा है, मरा नहीं। क्या मजाल जो हमसे कोई हमारे ही मोहल्ले में बाज़ी मार ले जाए। दाँत खट्टे ना कर दिए तो अपुन भी एक बाप की औलाद नहीं।"
यह सामने वाले के प्रति मेरे मन की ईर्ष्या थी या होली का उन्माद मैं खुद भी नहीं समझ सका पर जोश सातवें आसमान पर था तो हो गया मुकाबला शुरू।
कभी वो हम पे भारी पड़ते तो, कभी हम उन पे। कभी वो बाज़ी मार ले जाते तो कभी हम, कभी हमारा निशाना सही बैठता तो, कभी उनका। गली मानो तालाब बन चुकी थी लेकिन...कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था। कभी अपने चुन्नू को गुब्बारा पड़ता तो कभी उनके पप्पू का। धीरे-धीरे वो हम पे भारी पड़ने लगे। वजह?
"सुबह से कुछ खाया-पिया जो नहीं था, बीवी जो तिलमिलाई बैठी थी और वो स्साले! बीच-बीच में ही चाय-नाश्ता पाड़ते हुए वार पे वार किए चले जा रहे थे। बिना रुके उनका हमला जारी था। और इधर अपनी श्रीमती नाराज़ क्या हुई चाय-नाश्ता तो छोड़ो हम तो पानी तक को तरस गए।
हिम्मत टूटने लगी थी कुछ-कुछ...थक चुके थे हम और इधर ये पेट के नामुराद चूहे स्साले!...नाक में दम किए हुए बैठे थे। भूख के मारे दम निकले जा रहा था और बदन मानो हड़ताल किए बैठा था कि "माल बंद तो काम बंद"। ठीक कहा है किसी बंदे ने कि खुद मरे बिना जन्नत नसीब नहीं होती सो!...अपने मन को मार, खुद ही बनानी पड़ी चाय।
"ये देखो!...स्सालों, हम खुद ही बनाना और पीना जानते हैं...मोहताज नहीं हैं किसी औरत के।चूड़ियाँ पहन लो चूड़ियाँ ....हुँह!...जिगर में दम नहीं कहते हैँ "हम किसी से कम नहीं"। तुम्हारी तरह नहीं है हम, हम में है दम। ये नहीं कि चुपचाप हुकुम बजाया और कर डाली फरमाईश।अरे!...तुम्हें क्या पता कि अपने हाथ की में क्या मज़ा है? बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद?
अभी पहली चुस्की ही भरी थी कि फटाक से आवाज़ आई और सारे के सारे कप-प्लेट हवा में उड़ते नज़र आए, चाय बिखर चुकी थी और कप-प्लेट मानों अपने आखिरी सफ़र के कूच की तैयारी में जुटे थे। ऐसा लगा जैसे मानों, समय थम-सा गया हो। खून भरा घूंट पी के रह गया मैँ लेकिन एक मौका ज़रूर मिलेगा और सारे हिसाब-किताब पूरे हो जाएँगे। बस यही सोच मै खुद को तसल्ली दिए जा रहा था कि सौ सुनार की सही लेकिन जब एक लोहार की एक पड़ेगी ना बच्चू....तो सारी की सारी हेकड़ी खुद-ब-खुद बाहर निकल जाएगी। मैं चुपचाप बाहर आकर बालकनी में बैठ गया।
"देखो...देखो...पापा! कैसे बाहर खड़ा-खड़ा...गोलगप्पे पे गोलगप्पा खाए चला जा रहा है" अपना चुन्नू बोल पड़ा,
"निर्लज्ज कहीं का...ना तो सेहत की चिंता और ना ही किसी और चीज़ का फिक्र। पहले अपनी सेहत देख, फिर उस गरीब बेचारे गोलगप्पे की सेहत देख...कोई मेल भी है?
कुछ तो रहम कर। स्साला! चटोरा कहीं का। देख बेटा!... देख, अभी मज़ा चखाता हूँ। ले स्साले!... ले और खा गोलगप्पे...
"चिढाता है मेरे 'चुन्नू' को?"मैँने निशाना साध खींच के फेंक मारा गुब्बारा... ये गया....और....वो गया...
"फचाक्क".... आवाज़ आई और कुछ उछलता सा दिखाई दिया।
"मगर ये क्या? जो देखा, देख के विश्वास ही नहीं हुआ। पसीने छूट गए मेरे। थर-थर काँपने लगा, हाथ-पाँव ने काम करना बंद कर दिया। दिमाग जैसे सुन्न-सा हुए जा रहा था...
"पकड़ो साले को, "भागने ना पाए" जैसी आवाज़ों से मेरा माथा ठनका। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ध्यान से आँखे मिचमिचाते हुए फिर से देखा तो अपना पड़ोसी सही सलामत भला चंगा, पूरा का पूरा, जस का तस खड़ा था और बगल में शम्भू गोलगप्पे वाला सोंठ से सना चेहरा और बदन लिए गालियों पे गालियाँ बके चला जा रहा था। उसका नया कुर्ता झख सफ़ेद से अचानक नामालूम कैसे चॉकलेटी सा हो चुका था।
"दरअसल!...हुआ क्या कि बस पता नहीं कैसे एक छोटी-सी बहुत बड़ी गल्ती हो गई और मुझ जैसे तुर्रमखाँ निशानची का निशाना ना जाने कैसे चूक गया और गुब्बारा सीधा दनदनाता हुआ गोलगप्पे वाले के चटनी भरे डिब्बे में जा गिरा धड़ाम और....बस्स!...हो गया काम।
"पापा!...भागो....सीधा ऊपर ही चला आ रहा है लट्ठ लिए।" चुन्नू की मिमियाती सी आवाज़ सुनाई दी।
मैंने आव देखा ना ताव कूदता-फांदता जहाँ रास्ता मिला भाग लिया। कुछ होश नहीं कि कहाँ-कहाँ से गुज़रता हुआ कहाँ का कहाँ जा पहुँचा। हाय री मेरी फूटी किस्मत!... इसी समय निशाना चूकना था? जैसे ही छुपता-छुपाता किसी के घर में घुसा ही था कि वो लट्ठ बरसे बस... वो लट्ठ बरसे कि बस पूछो मत....कोई गिनती नहीं।
उफ़!...कहाँ-कहाँ नहीं बजा लट्ठ? स्सालों! कोई जगह तो बख्श देते कम से कम, सुजा के रख दिया पूरा का पूरा बदन। कहीं ऐसे खेली जाती है होली? अरे!..रंग डालो और बेशक भंग(भाँग) डालो लेकिन ज़रा सलीके से, स्टाईल से, नज़ाकत से, ये क्या कि आव देखा ना ताव और बस सीधे-सीधे भाँज दिया लट्ठ? ठीक है!...माना कि रिवाज़ है आपका ये लेकिन पहले देखो तो सही कि सामने कौन है?... कैसा है?.... कहाँ का है?... कुछ जान-वान भी है कि नही? स्टैमिना तो देखो कि सह भी सकेगा या नहीँ?
स्सालों!...खेलना है तो टैस्ट मैच खेलो... आराम से खेलो मज़े से, मज़े-मज़े में खेलो। ये क्या कि फिफटी-फिफ्टी भी नहीं...सीधे-सीधे ही टवैंटी-टवैंटी? ये बल्ला घुमाया...वो बल्ला घुमाया और कर डाली सीधा चौकों-छक्कों की बरसात। ठीक है!... माना कि इसमें जोश है...जुनून है... एक्साईट्मैंट है....दिवानापन है... खालिस...विशुद्ध एंटरटेनमैंट है लेकिन वो भी दिन थे जब सामने वाले को भी मौका दिया जाता था कि ले बेटा!...हो जाएँ दो-दो हाथ। कमर कस तू भी और कमर कसें हम भी...फिर देखते हैँ कि कौन?...कैसे? ...और किस पे ...कितने हाथ साफ करता है?....ये क्या कि सामने वाले को न तो सफ़ाई का मौका दो और ना ही दम लेने का वक्त?बस!...सीधे-सीधे बरसा दिए ताबड़-तोड़ लट्ठ। इंसान है वो भी, मानवाधिकारों के चलते कुछ तो हक बनता है उसका भी।
कई बार समझा के देख लिया कि भईय्या...अभी तो होली आने में दो दिन बाकि हैँ लेकिन कोई मेरी सुने...तब ना।कहने लगे...अभी तो रिहर्सल ही कर रहे हैँ....फाईनल तो होली वाले दिन ही खेला जाएगा।उफ्फ!...स्सालों ने अपनी प्रैक्टिस-प्रैक्टिस के चक्कर में अपुन पर ही हाथ साफ़ कर डाला"
"जानी!...होली खेलने का शौक तो हम भी रखते है और खेल भी सकते हैं होली लेकिन तुम छक्कों के साथ होली खेलना हमारी शान के खिलाफ़ है।" इस डायलॉग से खुद को समझाता, बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा जैसे ही बाहर निकला तो जैसे आसमान से गिरा और खजूर पे अटका। बाहर लट्ठ लिए नत्थू गोलगप्पे वाला पहले से ही मौजूद था, मेरा ही इंतज़ार था उसे। दौड़ फिर शुरू हो चुकी थी मैं आगे-आगे और वो पीछे-पीछे। ये तो शुक्र है उस कुत्ते का जिसे मैंने कुछ ख़ास नहीं बस तीन या चार गुब्बारे ही मारे थे कुछ दिन पहले और निरे खालिस सफ़ेद से बैंगनी बना डाला था पल भर में, वही मिल गया रास्ते में, मुझे देख ऐसे उछला जैसे बम्पर लाटरी लग गई हो, पीछे पड़ गया मेरे। पैरों में जैसे पर लग गए हों मेरे। किसी के हाथ कहाँ आने वाला था मैं?...ये गया और वो गया।
"नत्थू क्या उसका बाप भी नहीं पकड़ पाया। हाँफते-हाँफते सीधे जीने के नीचे बनी कोठरी में डेरा जमाया। और आखिर चारा भी क्या था? वो स्साला!....नत्थू का बच्चा जो दस-बीस को साथ लिए चक्कर पे चक्कर काटे जा रहा था बार-बार। ये तो बीवी ने समझदारी से काम लिया और कोई ना कोई बात बना उन्हें चलता कर दिया तो कहीं जा के जान में जान आई।
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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आसमान से गिरा
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नया नौ दिन पुराना सौ दिन
जवाब देंहटाएंसौ सुनार की और एक लुहार की
चोट चाहे हथौड़ी की सोने पर हो
या हो लोहे पर
चोट तो चोट है
वोट की राजनीति नहीं
कि
गुब्बारे पर कर दो चोट
होली खेलो पर
गुब्बारे पर लगा दो रोक
ऐसी कि गुब्बारे फूटते भी रहें
और रोक भी लगी रहे
मतलब होली के दिन भी
कानून का मजाक
दे दनादन दे दनादन दनन दन।
अच्छी कहानी है। पुरानी है तो क्या हुआ। हमने तो पहलीबार पढ़ी है।
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