होली के बहाने यादें बचपन की

Posted on
  • by
  • Unknown
  • in





  • आज होली के इस मौके पर जब मैं ब्लॉग लेखक के रूप में धीमी लेकिन सक्रिय शुरुआत कर चुका हूँ, मुझे अपने बचपन की होली याद आती है। याद आती है अपने कस्बे की और वहाँ की होली, जिसकी चर्चा दूर दूर तक थी और आस पास के गाँव के लोग चलकर होली के दिन भी धमाल देखने आते थे।मैं बात कर रहा हूँ हिंडौन की जहाँ होली १-२ दिन नही बल्कि १ महीने चलने बला त्यौहार हुआ करता था। महिलाए जहाँ १ महीने पहले से ही होली के गीत गाया करती थीं तो पुरूष हुरियारे बने मंदिरों मैं ढोलक और ढप की थाप पर होली गीतों पर गाते और नाचते थे।


    होलिका दहन के लिए लड़कों की टोलियाँ घर घर से लकडियाँ और उपले मांग के लाती और उसे अपने गुप्त स्थान पर सुरक्षित रखती साम दाम दंड भेद इस संग्रह को और बढ़ाने के लिए मीटिंग होती योजनाये बनाई जाती। पडौस के होली के सामान की रिपोर्ट ली जाती और अपने लक्ष्य संसोधित किए जाते। होलिका दहन बाले दिन ऐसे कंजूस लोग जो मांगने पर लकडी उपले नही देते उनके घर मौका देखकर सेंध लगाई जाती और जो मिले पलंग, कुर्सी, किवाड़ या कोई लकडी का सामान जो मिला वो होली के हवाले फिर पता चलने पर कंजूस का शोर मचाना और गालिया देना होलिका महोत्सव का चिर परिचित रंग होता था।


    मेरे पिताजी की मित्र मंडळी पोंगा मंडल कहलाती थी और इसकी सदस्यता को लोग लालायित रहते थे। इसके सभी सदस्य कस्बे में पढ़े लिखे विचारक माने जाते थे यह पोंगा शब्द मुझे लगता है पोंगा पंडित फ़िल्म से लिया गया था लेकिन ये तय है वे सभी सच्चे पोंगा थे।


    पोंगा मंडल प्रति वर्ष होली के मौके पर भभक पत्रिका का प्रकाशन करता था और इसमे मस्त गीत, मस्त विज्ञापन और मस्त टाइटल दिए जाते थे। टाइटल अंतररास्ट्रीय हस्तियों से शुरू होकर स्थानीय लोगो तक होते थे। पोंगा मंडल के सक्रिय सस्दास्यो के नाम अंत में होते थे। भभक में जिनके नाम छपते थे वो ख़ुद को औरो से बड़ा और प्रसिद्द मानते थे और जिनके नही छपते वो अगले साल होली से पहले पोंगाओं से मिलना जुलना बढ़ा देते। कुछ लोग अपने टाइटल को पसंद नहीं करते पर इस डर से की कहने पर अगले साल नाम गायब नही हो जाए चुप रहते। कुछ लोग शिकायत करते, आपने क्या सोचकर हमारे लिए ऐसा टाइटल दिया तो उन्हें तत्काल कोई सकारात्मक तर्क देकर खुश किया जाता।
    बाकी तो होली के दिन सवेरे मोहल्लों के मंदिरों के अहातों में लोग इकट्ठे होते और होली के श्लील, अश्लील गाने गाये जाते, खुलेआम नाम ले लेकर गालियाँ दी जातीं। औरतें घर से वहार झांक भी नही सकती थीं। और लड़कों की टोलियाँ अपनी यार दोस्तों के साथ गली गली चक्कर काट रही होती थी लोग अपने मिलने बालो के यहाँ समूग बनाकर खूब घर घर जाकर होली खेलते और भानग ठंडाई और गुजिया - नमकीन खाते रहते। कुछ लोग शराब भी पीते पर उस समय ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम थी। १ बजे तक ये क्रम चलता। सवेरे लोग घर से निकलते तो कपड़े पहनकर ही वापसी पर जो पहनकर आते उन्हें भी कहते तो कपडा ही हैं लेकिन उनमे वो आधुनिक मल्लिका शेरावत या उस समय की हेलन के रूप लगते थे।


    फिर लोग नहा धोकर अच्छे कपड़े पहनकर दोपहर को घर से निकलते गुलाल की होली और धमाल देखने के लिए। शहर के बीचों बीच सभी मोहल्लों की टोलियों के प्रतिनिधि इस धमाल में शामिल होते थे और इस धमाल की चर्चा दूर दूर होती थी। इसमे भी कुछ हद तक गालीबाजी होती थी लेकिन सांस्कृतिक होली के कुछ गीत भी होते थे जिन्हें सुनना रुचिकर लगता था। इस तरह शाम को करीब ७ बजे तक होली की धूम रहती थी।


    आप सभी को होली के इस शुभ अबसर पर रंगारंग शुभकामनाये।
    पोंगा हरि शर्मा

    6 टिप्‍पणियां:

    1. यादों की पिटारी ऐसी ही होती है। अति सुन्दर लिखा है।

      जवाब देंहटाएं
    2. यादों की पिटारी ऐसी ही होती है। अति सुन्दर लिखा है।

      जवाब देंहटाएं
    3. यादों की पिटारी ऐसी ही होती है। अति सुन्दर लिखा है।

      जवाब देंहटाएं
    4. यादों की पिटारी ऐसी ही होती है। अति सुन्दर लिखा है।

      जवाब देंहटाएं
    5. आपने तो गाँव की याद दिला दी.

      जवाब देंहटाएं

    आपके आने के लिए धन्यवाद
    लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद

     
    Copyright (c) 2009-2012. नुक्कड़ All Rights Reserved | Managed by: Shah Nawaz