पेड़ (कविता) - अशोक सिंह
पेड़
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एक
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पेड़ के बारे में कुछ जानना हो तो पेड़ से नहीं
उसपर घोंसला लगाये बैठे पक्षियों से पूछो
पूछो उस थके-हारे मुसाफिर से
जो उसकी छाया में बैठा सुसता रहा है
उसकी शाखाओं से झूला बाँध झूलती
लड़कियों से पूछो
उन लड़को से भी जो उसकी फुनगी पर बैठ
चाभ रहे हैं फल
लकड़ी बिनती लकड़हारन से भी पूछो
पहाड़ तोड़ती पहाड़न से पूछो
यहाँ बैठ पगुराती गाय-बकड़ियों से पूछो
और पूछना हो तो
अभी-अभी चालिस कोस पालकी ढोकर ला रहे
चारो कहारों से पूछो
सबसे पूछो मगर
पेड़ के बारे में पेड़ से मत पूछो
क्योंकि याद रखो, पेड़
आदमी की तरह खुद कभी
अपना बखान नहीं करते।
दो
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पेड़ कहाँ नहीं है
जंगल नदी पहाड़ से लेकर
घर के आगे-पीछे और
सड़कों के किनारे-किनारे तक
जहाँ जाओ वहाँ
दिख ही जाता है कोई न कोई पेड़
क्योंकि पेड़ जानता है
कि आदमी को हर कहीं उसकी जरुरत पड़ती है
इसलिये हर जगह उपस्थित होता है वह उसके लिये
तीन
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पहाड़ पर रहने से
पेड़ का दिल पत्थर नहीं हो जाता
और न ही विषधर के लिपटे रहने से विषैला
बभनटोली में हो या चमरटोली में
पेड़, पेड़ ही रहता है
वह पंडिताई का दंभ नहीं भरता
और न ही चमरौंधी की हीनता आती है उसमें
पेड़ कभी जाति नहीं पूछते
और न ही किसी का धर्म जानने की
होती है उसमें जिज्ञासा
चाहे मुसलमानों के मुहल्ले में रहे या हिन्दूओं के !
चार
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यह सच है कि
आदमी की तरह उसकी आँखे नहीं होती
पर इसका मतलब यह तो नहीं कि
पेड़ अन्धे होते हैं, कुछ देख नहीं सकते
सुन नहीं सकते, बोल नहीं सकते
हँस-गा नहीं सकते, रो नहीं सकते पेड़ ?
अगर तुम ऐसा मानते हो
तो क्षमा करना
पेड़ों का मानना है कि तुम आदमी नहीं हो !
पाँच
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पेड़ों का कहीं कोई घर नहीं होता
बल्कि पेड़ स्वयं होते हैं एक घर
पशु-पक्षी से लेकर आदमी तक के लिये
आँधी-पानी हो या बरसात
पेड़ रक्षा करते हैं सबकी
पर अफ़सोस
पेड़ सुरक्षित नहीं हैं अपने-आप में !
वे आग से नहीं डरते, आँधी-पानी से नहीं डरते
चोर-बदमाशों से नहीं डरते
खतरनाक़ आतंकवादियों से भी नही लगता उन्हें डर
वे डरते हैं -
आदमी के भीतर पनप रहे सैकड़ों कुल्हाड़ियों से !
छ:
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पेडों ने सबको सब कुछ दिया
चिरैयाँ को घोंसला
पशुओं को चारा
मुसाफ़िर को छाया
भूखों को फल
पुजारी को फूल
वैद्य को दवा
बच्चों को बाँहों का झूला
चुल्हों को लकड़ी, घर को दरवाजा, छत, खिड़कियाँ
नेताओं, अफसरों को कुर्सियाँ
बदले में इन सबने पेड़ो को
अब तक क्या दिया ?
नहीं चाहकर भी आज
इसका हिसाब माँगते हैं पेड़ !
( कविता:: अशोक सिंह, प्रस्तुतकर्त्ता- सुशील कुमार)
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bahut hi acchi kavita likhi hai aapne.
जवाब देंहटाएंहिन्दी साहित्य .....प्रयोग की दृष्टि से
पेड धीरे धीरे हमारी दुनिया से गायब हो रहे हैं। कविता के बहाने आपने इनके महत्व का एहसास कराया है। आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिखा है। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना लिखी है....
जवाब देंहटाएंसाधुवाद !
जवाब देंहटाएंसुन्दर विचारो वाली कविता प्रस्तुत करर्न के लिये 1