हिंदी कविता का भाग़्य(फल)

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  • सुभाष नीरव
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    “नुक्कड़” पर भाई सुशील कुमार जी का लेख- “कविता में छंद वापसी पर बहसें- कितनी समकालीन और उपयोगी होंगी ? पढ़ा। और उस पर आईं छह टिप्पणियाँ भी।

    मैं भाई रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ। उन्होंने बहुत सही कहा है कि "छन्द कहीं नहीं गया था ,जो वापस आ गया हो ।" छंद में आज भी अच्छे गीत/नवगीत लिखे जा रहे हैं। हाँ, छंदमुक्त कविता की बहुतायत में और प्रायोजित शोर-शराबे में वे दब –से गये हैं। दूसरी ओर मेरा यह कहना है कि छंदमुक्त कविता भले ही छंद से परहेज करती है पर उसमें भी एक लय प्रवहमान होती है। निराला जी की कविता "वह तोड़ती पत्थर" इसका उदाहरण है। पर क्या करें आज कविता अगर हास्य कवियों तक सिमटी है तो इसके पीछे हमारी पत्र पत्रिकाओं के संपादकों का भी बहुत बड़ा हाथ है जो कविता के नाम पर कुछ भी छापते रहे हैं और छाप रहे हैं। इसके सैकाड़ों उदाहरण दिये जा सकते है, पर यहाँ एक उदाहरण ही प्रासंगिक होगा। अभी हाल में ही "कथादेश" के दिसंबर 08 के अंक में हिंदी के चर्चित एवं स्थापित कवि अरुण कमल की कविता "भाग्य -फल" को देखा जा सकता है, जो विचार और संवेदना के स्तर पर पाठकों को कुछ नहीं देती, लय की तो बात ही छोड़िये। जब मैंने "कथादेश" के संपादक हरिनारायण जी से फोन पर बात की और पूछा कि आपने इस कविता में ऐसा क्या विलक्षण देखा कि आपने इसे प्रकाशित कर दिया? क्या यह कविता यदि किसी नये अथवा अल्पज्ञात कवि ने उन्हें भेजी होती तो क्या वह उसे छापते? इस पर हरिनारायण जी का उत्तर था कि क्या करूँ, अरूण कमल हिंदी कविता का एक स्थापित और बड़ा नाम है, इसलिए छापना पड़ा। तो जनाब, अगर इस तरह का रवैया होगा तो कविता से पाठक क्यों नहीं कटेंगे और वे क्योंकर कविता को पढ़ेंगे ?
    यदि आपने “कथादेश” में छ्पी अरूण कमल वह कविता अभी तक न पढ़ी हो तो उसे यहाँ बानगी के तौर पर दे रहा हूँ और आप ही बताएं कि क्या यह कविता है? -
    भाग्य फल
    -अरुण कमल

    चू चे चो ला ली लू ले लो अ
    व उ ओ बा वी वि वु वे वो
    क की कु घ ङ छ के को हा
    ही हू हे हो डा डी डू डे डो
    मा मी मू मे मो टा टी टू टे
    टो पी पा ष ठ पे पो पू ण
    तू ती ता ते रे रू रा री रो
    तो ना नी नू ने नो धा यी यू
    ये यो भा भी भू धा फा ढ़ा मे
    भो ज जी खी खू खे खो गा गी
    गू गे गो सा सी सू सो दा दी
    दू थ झ दे दो चा ची ञ डः
    00

    कविता के प्रेमी कृपया बताएंगे कि उक्त कविता क्या कविता है ? क्या इसमें पाठक की संवेदना को स्पर्श करने वाली कोई बात है? इसमें कौन सी ऐसी अभिव्यंजना, विचार, संवेदना निहित है जो इसे एक कविता बनाती है? क्या इस कविता के माध्यम से कवि आने वाली कविता का भाग्य (फल) बता रहा है कि देखों, भविष्य में कविता का यही हश्र होने वाला है !

    10 टिप्‍पणियां:

    1. अगर यह कविता है तो हमारे पास कहने को कुछ नहीं बचा1 यह हिन्दी का दुर्भाग्य है कि हम विकास के स्थान पर भाषा और साहित्य को कन्धा देने पर तुले हैं ।

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    2. ख़ैर मै कुछ ज़्यादा नही कहुन्गा…पहले सुशील भाई के लेख पर लिख चुका हू
      हाँ यह कविता बस यह बता रही है कि भाग्यफल उतना ही निरर्थक है जितना इन शब्दो का बेतुका सन्ग्रह्।
      पत्रिका से आप ने अपने मन की चीज़ निकाल ली…सार्थक भी छप रहा है बहुत कुछ तब क्यो चुप रहते है सब लोग (मै इस कविता को निरर्थक नही कह रहा)

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    3. ज़्यादा नही कहना है…यह कविता बस यह कह रही है कि भाग्यफल उतना ही निरर्थक होता है जितना यह शब्द युग्म्।
      वैसे जितना कचरा और दुहराव छ्न्द मे है उस पर भी कहिये या हम ही कहेन्गे कभी

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    4. मैं कविता का जानकार नहीं हूँ , पर कविताएं पढ़ना अच्छा लगता है. यदि कविता आम व्यक्ति की समझ में नहीं आती है तो उसका भाग्य कोई भी समझ सकता है , क्योंकि आम आदमी दुनिया की तकदीर बदल देता है.......

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    5. अगर कविता को जीवन देने वाले भी कुछ जीवित हॉ तो ही शब्द कविता-रूप मॅ ढलते है. पर आज का कवि इतना काव्य-विहीन हो गया है कि कविता की क्लोनिंग करने के चक्कर मॅ शब्द मर से जाते है.कवि ह्र्दय एक कल-कारखाने से अधिक कुछ नही रह गया है. संवेदना के स्पंदन का स्थान ना जाने किस मातम ने ले लिया है. कविता तो गद्य के मुखड़े की नथ है जो उसे और सुन्दर बनाती है. जिसका स्वयं ही अस्तित्व ना हो क्या वो कविता हो सकती है भला...??

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    6. न तो अरुण कमल जी ने फालतु चीज लिखी है कविता के नाम पर और कथादेश के संपादक ने कोई गलती की इसे छापकर।अशोक कुमार पाण्डेय जी ठीक कह रहे हैं कि “यह कविता बस यह कह रही है कि भाग्यफल उतना ही निरर्थक होता है जितना यह शब्द युग्म।” यह नया प्रयोग हो सकता है हो। या समझाने का नया तरीका पर यह छंद मुक्त कविता का सामान्य ट्रेन्ड नहीं है जिस पर चिंता करनी पड़े। हां, लय के अभाव में समकालीन कविता का अधिकांश पटरी से उतरा जान पड़ता है।
      जहाँ लय है वहाँ भावप्रवणता और आत्मीयता होगी ही। सुभाष नीरव जी के इस एक उदाहरण को ब्रह्मलकीर मानकर छंदमुक्त कविता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि समय के अंतर्द्वंद्व और संघर्ष को वह अभिव्यक्त करने में जितनी सक्षम है उतनी छंदोबद्ध कविता नहीं। कविता के शिल्पगत मूल्यों के उपर ज्ञानपीठ सम्मानित बड़े कवि स्व. रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जिनकी छंद-युक्त कवितायें आज भी पढ़ी जा रही है और अपने समय के युग-धर्मी कवि हैं , ने कहा था कि “मुझे अपने ही कृत प्रयोग से यह भासित हो गया है कि कविता की प्रचलित शैली अपूर्ण होने लगी और यहाँ से काव्य का मार्ग वे प्रशस्त करेंगे जिन पर परम्परा का बंधन उतना कड़ा नहीं जितना हमलोगों पर है।” अत: छंद की वापसी एक तरह से अब पैंट-शर्ट उतारकर फिर से धोती-कुर्ता पहनने जैसा होगी। मेरे लेख में इस बात को ज्यादा स्पष्ट किया गया है।- सुशील कुमार।

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    7. बहुत ख़ूब साहब


      ---आपका हार्दिक स्वागत है
      चाँद, बादल और शाम

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    8. श्री सुशील कुमार का आलेख पढ़ा और उस पर टिप्पणियां भी. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि छंदमुक्त कविता में अभिव्यक्ति की संभावना अधिक है और कम शब्दों मे, लेकिन छंद कविता या गीतों को खारिज करके केवल छंदमुक्त कविता की पैरवी करना उचित नहीं. अनेक कवियों के उदाहरण दिये जा सकते हैं जिन्होने छंद कविता के साथ ही छंदमुक्त कविताएं भी लिखी और दोनों की ही बोधगम्यता क खयाल रखकर . छंदमुक्त/छंदयुक्त कविता हो या गीत, महत्वपूर्ण है उसकी संप्रेषणीयता. यदि कविता (कविता ही नहीं - कोई भी रचना) पाठकों तक अपने को संप्रेषित नहीं कर पाती तो वह निरर्थक है. रचना केवल शब्द-विलास / शब्द-क्रीड़ा भर नहीं है. एक जिज्ञासु पाठक के रूप में मैं जानना चाहता हूं कि कथादेश में प्रकाशित अरुण कमल की ऊपर उद्धृत कविता में आखिर है क्या . रचनाकार को पाठक का समय नष्ट करने का कोई हक नहीं. अशोक कुमार पाण्डेय की बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि सुभाष नीरव ने अरुण कमल की इस कविता का उदाहरण ही क्यों दिया जबकि सम्पादक ने पाठकों पर कृपा करते हुए सुस्थापित कवि की अन्य कविताएं भी छापी हैं. भाई जो कूड़ा है उल्लेख तो उसीका किया जायेगा. जब अंदर कुछ नहीं बचता तब 'चू चे -- ओ बा ' ही लिखा जाता है और अपने स्थापित होने को भुना लिया जाता है -- खासकर तब जब आदरणीय हरिनारायण जैसे सम्पादक छापने के लिए उद्यत हों. मैं नीरव जी से सहमत हूं कि यही कविता यदि कोई नया कवि लिख भेजता तो कथादेश उसे छापना तो दूर अपने स्वभाव के अनुसार उसे उत्तर भी न देता भले ही उसने उत्तर के लिए लिफाफा संलग्न किया होता.
      हिन्दी में यदि ऎसी कविताओं को प्रमाण-पत्र दिया जाने लगेगा तो दिन्दी कविता के भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है. सार्थक प्रयोगों को ही पाठक ग्रहण करता है शेष को कूड़े में फेंक देता है.
      रूपसिंह चन्देल

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    9. मैने इस कविता का अर्थात स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है।
      उस पर रूप सिन्ह जी चुप क्यो है।
      ये चयनित ख़ामोशिया कई इशारे करती हैं ।

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    10. न ये कविता है न कविता जैसी कोई चीज है
      हां ये तो सच है कि ये कविता के बीज हैं
      जो बिखरे पड़े हैं यहां वहां
      और न जाने कहां कहां
      समेट दो इनको किसी लय में
      प्‍यार में या भय में
      पीने वाले मय में
      न पीने वाले पी सकेंगे स्‍वाद
      इन सभी बीजों का
      फिर बनेंगे पौधे और तरूवर
      हर चीज में कविता तलाशो मित्रवर

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