ग्रामसेवक: धन है इनका सेवक मोलतोल पर व्‍यंग्‍य

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  • अविनाश वाचस्पति
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  • ग्रामसेवक: धन है इनका सेवक
    ग्रामसेवक सुनने पर ग्रामदेवता का भ्रम होता है। चाहे सुनने अथवा पढ़ने में भ्रम हो पर सच्‍चाई यही है कि पंचायत समिति में बतौर सचिव ग्रामसेवक वास्‍तव में ग्रामदेवता ही होता है और देवता की तरह ही पूजा जाता है। वो पूजा कैसी जिसमें चढ़ावा न चढ़े। इसी चढ़ावे की बदौलत दौलत से मालामाल होकर सेवक से देवता का सफर तय होता है। इनकी कृपा दृष्टि से ही सफर कब नामे में तब्‍दील हो जाता है। सफर आगे चला जाता है और नामा यहीं रह जाता है। आप किसी भी ग्रामीण से इसके कारनामों को जान सकते हैं। इसकी महिमा धन से पार नहीं है यानी धन अपरंपार है और धनशाली को देवता मानने से तो देवताओं को भी गुरेज नहीं होगा।

    यह सही है कि आजकल वो ग्राम नहीं हैं और न ही वो ग्रामसेवक हैं जो पहले हुआ करते थे। आजकल गांव में राम के सेवक कम मिलेंगे बनिस्‍वत ग्रामसेवक के । ग्रामसेवक के सेवकों की भरमार है। उनसे गांव के गांव अटे पड़े हैं। ऐसे बहुत हैं जो रहते तो शहर में हैं और ग्रामसेवक की सेवा करना कभी नहीं भूलते। इसीलिए ग्रामसेवकों की पौ बारह नहीं, चौबीस और पौ छत्‍तीस है। किसी किसी गांव में तो उनकी पौ अड़तालीस और छियानवै भी पाई गई हैं , अचरज मत कीजिए उन गांवों के वासी एनआरआई जो हैं। उनके सम्‍मोहन से भला कौन बच सका है।

    सब भागते दौड़ते तो विदेशों की ओर ही हैं पर अपने गांव की मिट्टी को नहीं छोड़ते। अब भला यह कोई कैसे जान पाएगा कि मिट्टी से अधिक ग्रामसेवकों की सेवा करने का पुण्‍य कोई एनआरआई क्‍यों खोना चाहेगा। फिर तो उसे सब कुछ खोया खोया सा ही लगेगा। परदेस में दिल तभी लगेगा जब अपने ग्राम की मिट्टी अपनी रहेगी। वो किसी और के पास जाना मतलब अपनी आंखों में समाने के समान होगी। कोई नहीं चाहेगा कि अपनी क्‍या किसी की भी मिट्टीअपनी आंखों में झोंक ली जाए। आंखों में मिट्टी कोई नहीं झुंकवाना चाहता , चाहे इसके लिए ग्रामसेवक के आगे ही क्‍यों न झुकना पडे़।

    ग्राम विकास के लिए बजट बनाना, स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा, खेती, विकास की जानकारी, पंचायत समिति का लेखा जोखा रखना, सरकार को देना - इस सेवक की सेवकाई के दायरे में आते हैं। इसलिए इससे सभी भय खाते हैं और इनकी जेबों को लबालब भर जाते हैं। इन्‍हीं के दम पर ग्रामदेवता नोटों के खाना खजाना बने हुए हैं। इनकी सेवा करने का सौभाग्‍य जिसको मिल गया वो तो जीते जी तर गया। जैसे भगवान की भक्ति करने में भक्‍त अपना सौभाग्‍य समझता है। उसी प्रकार इनकी सेवा करके मेवा की प्राप्ति न हो, ऐसा इस कलियुग में तो संभव नहीं है। इसकी कृपा से वंचित रहने पर आया हुआ हलुवा, हलुवा नहीं मेवा भी आंखों के सामने ओझल होता है और इतने नसीब फूटते हैं कि कलेवा भी नहीं मिलता । इनकी टेढ़ी नजर का हल किसी चिकित्‍सा विधा में उपलब्‍ध नहीं हो सका है और तो और मेडीटेशन और एक्‍यूपंचर विशेषज्ञ भी इसका कोई तोड़ नहीं निकाल सके हैं। जो मेवा ग्राम सेवक (देवता) की कृपा से ही संभव है, वो और किसी उपाय से संभव नहीं है।

    सरकारी योजनाओं पर अपना आसन जमाए सांप की तरह मुस्‍तैद रहता है ग्रामसेवक। बिल्‍कुल सांप की तरह कुंडली मारे और फन उठाए। जिस तरह सपेरे की बीन में उसकी कुंडली और फन का तोड़ होता है उसी तरह इनकी सेवा को तत्‍पर अनेक होते हैं, तभी उनके सपने फलीभूत होते हैं और वे इनके प्रति नेक होते हैं।

    मैं एक ऐसे ग्रामसेवक को भी जानता हूं जो एनआरआई है, जब मैंने यह सुना तो मैं हक्‍का रह गया पर जब जिसने मुझे यह बतलाया था उसने यह भी कहा कि अब बक्‍का मत हो जाना क्‍योंकि मैंने यह वाक्‍या एक रात सपने में देखा था और उसने मुझे बक्‍का होने से ऐनवक्‍त पर बचा लिया। जब मैंने आपको पूरी घटना सुना दी तो आप भी हक्‍का बक्‍का होने से बच गए। उसको यह ख्‍याल इसलिए आया होगा क्‍योंकि ग्रामसेवक की सेवा एनआरआई करते हैं तो सपने जो न कर दिखाएं वही थोड़ा है, तो उसके सपने ने वही कर दिखाया जो दिमाग पर हथौड़े की तरह बजता प्रतीत होता है। जब सपने का इतना असर है तो सच कितना खौफनाक होगा। यह तो कोई नाक वाला ही ब्‍यान कर पाएगा।

    वैसे इतना सब होने पर भी अंतर्जाल पर ऐसी खबरें भी मिलती हैं कि फलां जगह पर ग्रामसेवक ने आत्‍महत्‍या कर ली क्‍योंकि वो लिया गया कर्ज न चुका पाया। यह खबर हमारे गले से नहीं उतर रही है इसलिए इस पर रिसर्च जारी है। हो सकता है कि बाद में पता चले कि ग्रामसेवक को अपना दिया गया कर्ज डूबता नजर आया इसलिए उसने आत्‍महत्‍या कर ली। या इसमें भी कोई और पेंच निकल आए। यह किए जाने वाले शोध की गुणवत्ता पर निर्भर है। शोध के परिणाम वैसे भी भौंचक करने वाले होते हैं। सरकारी योजनाओं का समस्‍त लाभ इन सेवकों की ही झोली में गिरता है। अब अगर लक्ष्‍मी स्‍वयं आ रही है तो सेवक इतना बोदा नहीं होता कि वो उसे मना करके उसके रूठने का जोखिम मोल लेगा क्‍योंकि एक बार लक्ष्‍मी जी रूठ गईं तो क्‍या पता बाकी जिंदगी मनाने से भी वे न मानें। इसलिए धन से भरपूर लदे फदे रहते हैं ग्रामसेवक । बरस दर बरस इनके खातों में धुंआधार धन बरसता रहता है , फिर भी न धन और न धुंआ ही नजर आता है।

    वैसे भी आगत का तिरस्‍कार भारतीय संस्‍कृति का हिस्‍सा नहीं है। हमारे देश में तो चोरों के खटखटाने पर भी द्वार खोल दिए जाते हैं। आप देख नहीं रहे हैं कि छोटे छोटे दुकानदार अपनी कुर्बानी देकर मॉल वालों को पनपाने में तहेदिल से जुटे हुए हैं। भारतीय संस्‍कृति में मिस काल तक का जवाब बहुत ही तहजीब के साथ दिया जाता है। मिस काल की संस्‍कृति को जो गौरव भारत की संस्‍कृति से मिला है, वो गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड में दर्ज करने लायक है। सरकार गिराने के लिए चंद लोग वो सब कर गुजरे जो उन्‍हें नहीं करना चाहिए था और जिसे गुजारने के लिए उन्‍होंने किया , वे इतने मनमोहना थे, सोहने थे कि गुजारने से भी न गुजरे। नोटों का जलजला संसद में आया और चला गया पर सरकार इतनी गई गुजरी नहीं थी कि यों ही गुजर जाती। हां जल्‍दी ही यह सब गुजरे जमाने की बातें हो जरूर गुजर जाएंगी।

    ग्रामसेवक तो ऐसा रुतबा रखते हैं कि शहरों में आलीशान भवनों में रहते हैं और रोजाना गांवों में पहुंचाए जाते हैं। पहुंचाए जाते हैं इसलिए कहना पड़ रहा है कि कारों में जाते हैं और कारें इनकी अपनी नहीं, इनके सेवकों की होती हैं। जिस सेवक का सेवक कारवाला होगा वो सेवक तो सरकार वाला ही होगा। इसीलिए कहा जाता है कि भारत की असली तस्‍वीर गांवों में बसती है। प्रगति का जो सुहाना सफर गांव से शुरू होता है तो विदेश पहुंचकर भी थमता नहीं है बल्कि मजबूती से जमता है, मजबूती भी दही की नहीं, स्‍टील की। जो हिलाए न हिले , चाहे हिलाने वाला समूचा ही खिल खिल जाए।

    खंड विकास अधिकारी, पटवारी और ग्रामसेवक की ये चंद दास्‍ताने हैं। जिससे पता चलता है कि प्रगति का भारत गांवों में ही बसता है। क्‍या हुआ गर विद्यार्थियों का हुआ भारी बस्‍ता है। एक गांव की नहीं यह है हर गांव के अधिकारी की, पटवारी की और सेवक की कहानी बल्कि यह कहना चाहिए कि गांव गांव की सच्‍ची कहानी। जिनसे देश में बह रही है तरक्‍की की गंगा सुहानी । फलत: देश को चढ़ रही है भरपूर जवानी।

    1 टिप्पणी:

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