रिश्तों की बरसी - 2

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  • तरूण जोशी " नारद"
  • पहला भाग पढें (रिश्तों की बरसी - 1) 

    दोस्तों ये भी अजीब बात हैं ना, कि आप इस लेख को/ कहानी को पढकर जो सोच रहे हैं जिसके बारे मंे सोच रहा है वो अगर इस कहानी को पढ रहा होगा तो वो या तो किसी और के बारे मंे सोच रहा होगा और अगर वो आपके बारे मंे भी सोच रहा होगा तो उसके जज्बात आपकी बातोें से बिल्कुल इतर होंगे।

    दोस्तों इसको आप पढ लीजिए, कहानी समझकर, लेख समझकर, जज्बात समझकर। इसके बाद आप थोडा उल्टी प्रक्रिया में सोचना, ये नही कि आप किसके बारे में ऐसा सोच रहे हैं। आप उसके बारे मंे ख्याल करने की कोशिश कीजिए जो ये कहानी पढकर आपके बारे मंे ऐसे ख्याल रखे। उस इंसान की जिंदगी मंे अपने द्वारा किये गये कामों के लिए दिल से मन ही मन मंे माफी मांगने का मौका मत चूकना। 

    लेकिन इसमें भी एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि जो भी आप सोचो वो तार्किक हों सामान्यतः तो आप जिसके बारे मंे ऐसा सोचते हो कि उसने कुछ गलत किया वो भी ऐसा ही सोचता होगा कि आपने उसके साथ गलत किया है। ये ठीक वैसा ही है कि एक मैदान मंें अंग्रेजी में  6 लिखा और  उसके दोनो ओर दो लोग खडे हैं  तो एक को 6 दिखेगा और एक को 9 दिखेगा। दोनो को लगता  है कि वे सही हैं। लोग कहते हैं दोनो सही है। पर  दोनो एक बात मंे सही कैसे हो सकते है। दोस्तों गलत तो वो है ना जो उपर की तरफ उल्टी तरफ खडा है। जो जहां से देख रहा है, जैसा उसको दिख रहा है वो उसके नजरिये से सही भले ही हो वास्तविकता मंे सही नही हो सकता है।


    खैर अब इन दार्शनिक बातों को छोडते है और मुद्दे पर आते हैं। 

    हां तो आपको भी पहला पेज पढते पढते किसी ऐसे नाम के रिश्तें और दिखावे के अपनेपन की याद आने लगी होगी। जिनकी आपको भी बरसी मनानी होगी। तो आज हम उस रिश्ते की बरसी मनाने से पहले, जरा सा उसके बारे मंे सोचते हैं।

    हम सोचें कि ऐसे रिश्तों की बरसी मनाकर उनका हमेशा हमेशा के लिए तर्पण श्राद्धकर्म करना और उन भद्दे मोटे यादों के पुलिंदों को हमेशा हमेशा के लिए बहा देना चाहिए और खुद को मुक्त कर देना चाहिए।

    हालांकि कुछ हालातों मे देखा जा सकता है अगर सुधार की गुंजाइश है और पहले का विनाश हल्का सा है तो चाहो तो एक मौका और देकर देख लो। वर्ना बरसी के साथ ही तर्पण भी करलो।

    दोस्त बुरा मत सोचो उन लम्हों के बारे में, उन लोगों के बारे मंे। कर्म का फल होता है जो हम सब भोगते है। हमारे कर्माे का ही फल होगा जो हमने उसदिन भोगा था। 

    दुख भी हुआ था, तकलीफ भी हुई थी और अब तो धीरे धीरे बस केवल मुस्कुराना ही तो आता है उन लम्हों को याद करके।

    जैसे हमने उस दिन वो कर्माें का फल भोगा था। हमारा फल किसी और का कर्म था जो उन्होंने उस दिन कर दिया। तो अब उन कर्माें के फल कोे वो भोग रहे होंगे या भोगेंगे।

    चुंकि वो अब दूर जा चुके हैं हमसे तभी तो उन रिश्तों की हम बरसी मना रहे हैं। जैसे बरसी और श्राद्ध हम साल मंे दो बार मनाते है। वैसे ही कभी कभार जब लगे, जरूरत  के वक्त उनके लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से खडे रहें।

    अरे जैसे किसी अपने के मर जाने के बाद हमंे पता नही होता वो कंहा और क्या कर रहे हैं, और वास्तविकता में हमारे हर लम्हे से वो लोग हमेशा हमेशा के लिए दूर हो जाते हैं, वैसे ही बीते एक बरस मंे उन्हें हमारे बारे में क्या ही पता है।

    कितना बदल गई हमारी जिंदगी, उन्हे क्या पता। 

    इक किसान मर गया बुआई के बाद, उसे क्या पता कि उसके खेत की फसल कैसी उग रही है।  उसने खो दिया मौका देखने का अपने खेत के पेड़ो को बढते देखने का। उसको खबर नही कि कब खाद दी गई, कब सहारा दिया गया। कब और कैसे पहली कोंपल उगी उस पौधे की, कैसे उसकी डालियां खिली। कैसे उस पौधे ने पहली हवा मे अपने आपको छटकाया और मस्त बेफिक्री के साथ खिलखिलाके नाच गाने का मजा लिया।

    खैर मरने के बाद ऐसा सब होना तो लाजमी है, मगर जीते जी, ऐसे हालात बन जाएं कि हमें हमारे अपनों की जिंदगी का एक भी लम्हा पता ना हो तो वो भी एक बडी त्रासदी क्या होगी, और इससे बडा अभागापन क्या होगा कि आप अपनों के हाल ना जान पाओ, एक नन्हे से बच्चे को बढते ना देख पाओ, अपने बाग केे फलों को ना छू पाओ, फूलों की खुश्बु ना सूंघ पाओ और पत्तांे की सरसराहट को खिलखिलाहट को ना सुन पाओ।

    खैर अब इन सब बातों में क्या रखा है। अब हम आगे बढते हैं ऐसे ही कुछ अभागे रिश्तों की बरसी मनाने की ओर, इनकी छोटी बडी घटनाओं को समझने मंे।


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    रिश्तों की बरसी - 1

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  • तरूण जोशी " नारद"
  •  बरसी

    बरसी- इस नाम से क्या ख्याल जेहन में उपजता है, हां मैं भी उसी की बात कर रहा हूं, हां वही बरसी जो किसी अपने के हमेशा हमेशा के लिए रूखसत हो जाने, दूर हो जाने या मर जाने की सालगिरह के तौर पर मनाया जाता है। 

    वैसे तो बरसी अपनों की मनाई जाती हैं, रिश्तेदारों की मनाई जाती है। उनके साथ के लम्हों को याद किया जाता है, उनकी शांति की प्रार्थना की जाती है, उनकी मुक्ति की दुआ की जाती है।

    लेकिन हर बार बरसी अपनों की नही कई बार अपनेपन की भी मनाई जाती है, रिश्तेदारों की ही नहीं रिश्तों की भी मनाई जाती है।

    तो आज हम भी ऐसे ही एक बरसी मनाने जा रहे हैं. रिश्तों की बरसी।

    सुनने मंे भले ही अजीब सा लगे, लेकिन हां ये सच है, आप भी याद करिये, जीवन की किताब के किसी एक कोने मंे आपने भी दफन किये होंगे कुछ पन्ने कहीं किसी छोर पर।

    अरे वैसे ही जैसे बचपन में किसी विषय की कॉपी मंे कुछ गलतियां हो जाने पर उन्हें छिपाने, और दूसरे छोर के पृष्ठों को फटकर गिरने से बचाने के लिए हम स्टेपल कर लेते थे। ठीक उसी तरह से कुछ पेज आपको भी मिल जाएंगें अपनी जिंदगी की किताब में। हो सकता है आपकी किताब मंे ऐसे स्टेपलर लगे पेजों का पुलिंदा एक हो या हो सकता है वो एक से अधिक हो।

    हो सकता है कि स्टेपलर की पिन चमक रही हो और बयां कर रही है अपना दर्द और जता रही है कि जख्म अभी हरा है, या फिर यूं भी हो सकता है कि वो पुलिदों पर लगी पिन जंग खा चुकी हो और उन अपनो को भी भुला चुकी हो।

    लेकिन जैसे हमारी संस्कृति में रिवाज है बरसी मनाने का, लम्हों को याद करने का और शांति या मुक्ति की प्रार्थना करने का तो हम अब एक अनूठी बरसी मनाते है। उन लम्हों और वो दर्द देने वाले की मुर्खता और उनकी बचकानी हरकतों को याद करते हैं और मुस्कुराते है उनकी नादानी पर। हम प्रार्थना नही भगवान का खुदा का, रब का शुक्रिया करते हैं कि हमें मुक्त कर दिया ऐसे दर्दनाक अपनों से और कसैले विषैले रिश्तों से। इस बार ये बरसी अपनो की नही अपनेपन की है, और रिश्तेदारों की नही बल्कि इस बार ये रिश्तों की बरसी है।


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    प्रेमचंद की 145 वीं जयंती पर आयोजित विचार गोष्ठी

  • by
  • रवीन्द्र प्रभात

  • बाराबंकी। गरीब, निर्धन एवं महिलाएं ही देश की संस्कृति के संवाहक रहे हैं। प्रेमचंद के साहित्य में ऐसे ही पात्रों के माध्यम से संस्कृति को जीवित और संवर्धित करने का प्रयास है। उक्त उद्गार राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित डा. रामबहादुर मिश्र अध्यक्ष अवध भारती संस्थान ने वीणा सुधाकर ओझा महाविद्यालय में प्रेमचंद की 145 वीं जयंती पर आयोजित विचार गोष्ठी में अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए।

    मुख्य वक्ता साहित्य समीक्षक डॉ. विनयदास  अध्यक्ष साहित्यकार समिति ने कहा साहित्य व्यापार का नहीं बल्कि समाज शोधन का माध्यम है। साहित्य मशाल की तरह उजाला देते हुए मार्गदर्शन करने वाला होना चाहिए। 

    विचार गोष्ठी में विषय प्रवर्तन करते हुए डा.कुमार पुष्पेंद्र ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद के पात्र यथार्थ जीवन जीते नजर आते हैं। इनका साहित्य मानवीय संवेदनाओं को उकेरते हुए पाखंडवाद पर करारी चोट करता है। 

    कार्यक्रम की विशिष्ट अतिथि सेवा निवृत्त उप पुलिस अधीक्षक,साहित्यकार डा. सत्या सिंह ने कहा कि अपने समय,समाज में प्रचलित संस्कृतनिष्ठ हिंदी की साहित्य धारा के विपरीत आम जन की समझ में आने वाली  सरल हिंदी का प्रयोग करके प्रेमचंद ने अभावग्रस्त व पाखंडवाद से जनित समस्याओं पर समाधान प्रस्तुत किए हैं।  

    प्राचार्य डॉ. बलराम वर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि अपने विपुल साहित्य में उठाए गए मानवीय जीवन के संवेदनशील विमर्शों के कारण प्रेमचंद प्रत्येक कालखंड में प्रासंगिक रहेंगे।

     विचार गोष्ठी में महाविद्यालय की छात्राओं में अंशिका राजपूत ने मंत्र कहानी का पाठ किया तो संजना गुप्ता ने कहानी के तत्वों के आधार पर मंत्र कहानी की समीक्षा प्रस्तुत की। अंशिका राज ने प्रेम चंद की एक कविता का सस्वर पाठ किया तथा अंजली रावत ने कहानी ईदगाह पर समीक्षात्मक परिचर्चा प्रस्तुत की।

    अवध भारती संस्थान के सचिव प्रदीप सारंग के संयोजन व संचालन में संपन्न विचार गोष्ठी का शुभारंभ डा.अंबरीष अम्बर की वाणी वंदना से हुआ। विचार गोष्ठी में संतकवि बैजनाथ के वंशज प्रताप सिंह वर्मा,सेवानिवृत्त जिला पंचायत राज अधिकारी अनिल कुमार श्रीवास्तव, महाविद्यालय के चीफ प्राक्टर डा.राम सुरेश, शैक्षिक क्वार्डिनेटर डा. दिनेश सिंह, डा.अर्चना यादव ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए।

    विचार गोष्ठी में रमेश चंद्र रावत, रामकिशुन यादव, रत्नेश कुमार, मंजू लता शर्मा, विष्णु नारायण मिश्रा,गुलाम नबी,जितेंद्र कुमार,राकेश कुमार, डा.सुरेंद्र कुमार आदि उपस्थित रहे।

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    जिंदगी एक धागे का बंडल है।

  • by
  • तरूण जोशी " नारद"
  • Started Writing after years 

    जिंदगी एक धागे का बंडल है।

    इस बंडल मंे लिपटे हैं लम्हें कई।

    परत दर परत खुलते जाते हैं। 

    इक छोर से दूजे छोर तक फिसलते हुए।

    फिर एक चक्क्र पूरा होता है,

    जैसे हुआ एक अध्याय पूरा।

    अगले ही लम्हें मंे परत बदल जाती हैं, 

    जैसे कलेंडर में हो साल नया।

    बस अनवरत चलता रहता है,

    डोर की माला बढती जाती है।

    और इक पल में जिंदगी की राह

    ये गुजर जाती है।

    मैं सोच रहा हुं  कि ये क्या हुआ,

    समझ ना सका ये तू था मेरे खुदा।

    हर पल तुने ये क्या करिश्मा दिखाया

    इस अदने पुतले का भी इक हस्ती बनाया ।।

    सोच में में अपनी मगरूर था,

    ना जाने किस बात का गुरूर था ।

    मगर तू तो मुझमें बसा रहा,

    पर मुझे ना कोई इल्म ना सुबुर रहा।।

    रब मेरे, मेरे जीवन के खेवन

    तेरा बचपन, तेरा यौवन

    तेरा हर पल, तेरी खुशियां

    हंसते हंसते लेंगे ये गम।

    तुमने जो कुछ दिया स्वीकारा

    देखो चरखी अब भी घूम रही हैं, 

    धीरे धीरे  आगे को बढ़ रही है, 

    हर पल लम्हें को लील रही हैं

    तुम इस तरह से हमें बदल रहें

    पल पल हम जीना सीख रहे।

    और उस इक लम्हे के इंतजार में

    ये आखिरी कतरे तक पंहुच रहे।।

    अब ए खुदा बस छोड दे इस चकरी को

    उड जाने से पतंग को आजादी से

    अब ये रूह मेरी तेरी हो गई हमेशा के लिए

    मुक्त हो गया इन लम्हों की उलझन से।

    चलो अब सोचते हैं, कि क्या किया,

    किससे क्या लिया औ क्या दिया।

    जीवन का पूरा चक्र अब फिर से दोहराना है,

    इस जन्म मंे भी मुझको अपनों को अपनाना है।

    कुछ अपने जो रूठ गए है,

    कुछ पीछे छूट गए हैं।

    कुछ के पीछे जाते जाते 

    हम कबके ही टूट गए हैं।।

    इस जीवन को क्या हम समझें

    समझना चाहें हम तुमकों ईश्वर।

    जिस दिन समझ लिया तुझको

    नही भाएगी ये दुनिया नश्वर।।


    इस कृति को यहीं अधूरी छोडकर हम बढते हैं।

    ईश्वर तुम सब लिखते हो हम तो केवल पढते हैं


    Tarun Joshi "NARAD"



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    बाकू (अजरबैजान) में परिकल्पना की रजत जयंती यात्रा के सम्मान में विशेष आयोजन

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  • parikalpnaa

  • बाकू (अजरबैजान) में परिकल्पना की रजत जयंती यात्रा के सम्मान में एक विशेष आयोजन किया गया, जिसमें परिकल्पना से जुड़े सम्मानित सदस्यों को विशेष सम्मान प्रदान किए गए। इस अवसर पर परिकल्पना परिवार के 17 सदस्यों को रजत पदक प्रदान किया गया। 


    परिवार के आठ सदस्यों क्रमश: श्री निर्भय नारायण गुप्ता, डॉ सत्या सिंह, श्री मती निशा मिश्रा, डॉ प्रतिमा वर्मा, डॉ बालकृष्ण पांडेय, श्री मती नम्रता मिश्रा, डॉ प्रमिला उपाध्याय और श्री मती सरोज सिंह को अंगवस्त्र, रजत पदक, मोमेंटो एवं मानपत्र के साथ परिकल्पना रजत जयंती सम्मान प्रदान किया गया। इस अवसर पर पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए पच्चीस हजार नकद सम्मान राशि एवं अंगवस्त्र, रजत पदक, मोमेंटो एवं मानपत्र के साथ परिकल्पना सम्मान प्रदान किया गया। 


    साथ हीं हिंदी पत्रिका रेवांत की ओर से परिकल्पना परिवार को विशेष रूप से इस उपलब्धि के लिए प्रशंसित किया गया।

    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ रवीन्द्र प्रभात ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
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    ब्रसेल्स में 13 वां अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव संपन्न

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  • दिनांक 20.05.2023 को बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स के गोस्सित सभागार में 13 वां अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव संपन्न हुआ। मुख्य अतिथि रहे बेल्जियम में हिन्दी के चर्चित ग़ज़लकार श्री कपिल कुमार। इस अवसर पर प्रमुख साहित्यकार डॉ मिथिलेश दीक्षित, डॉ क्षमा सिसोदिया, डॉ सुभासिनी शर्मा, सचिंद्र नाथ मिश्र, डॉ. रवींद्र प्रभात आदि की एक दर्जन से ज्यादा पुस्तकें लोकार्पित हुई। इस अवसर पर अवधी की लोक गायिका श्रीमती कुसुम वर्मा और प्रसिद्ध पत्रकार डॉ आर बी श्रीवास्तव विशेष अतिथि थे। साथ ही विशिष्ट अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे ब्रसेल्स के श्री संजय बाली और रेणु बाली। इस अवसर पर हिन्दी की चर्चित कवियित्री डॉ चम्पा श्रीवास्तव को 25 हजार रुपए नकद,शॉल,स्मृति चिन्ह के साथ परिकल्पना शिखर सम्मान से नवाजा गया। साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका श्रीमती कुसुम वर्मा और श्री बिमल बहुगुणा को परिकल्पना हिन्दी उत्सव सम्मान प्रदान किया गया। वहीं 5100/- रुपए नकद, अंगवस्त्र, स्मृति चिन्ह के साथ डॉ क्षमा सिसोदिया, सचिंद्रनाथ मिश्र और डॉ सुभाषिणी शर्मा को परिकल्पना सम्मान प्रदान किया गया। लगभग दो दर्जन विद्वतजनों क्रमश: डॉ अनिता श्रीवास्तव, कल्पना अग्रवाल, कविता सक्सेना, डॉ सुकेश शर्मा, डॉ पूनम सिंह, प्रिया मिश्रा, बृज किशोर अग्रवाल, अनिल सक्सेना, शुभम शर्मा, आयुषी सिंह, नंदिनी रावत, माला चौबे, शुभ चतुर्वेदी, उर्विजा प्रभात आदि को परिकल्पना हिन्दी उत्सव यात्रा सम्मान प्रदान किया गया।
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    Corona काल में Rahul Gandhi ने जारी किया Modi सरकार का कैलेंडर |

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    प्रकृति के अनुपम सौंदर्य की ऑन लाइन कव्यमय प्रस्तुति

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  • रवीन्द्र प्रभात
  • भारत ऋतुओं का देश है, जहां प्रकृति का वैविध्यपूर्ण सौंदर्य बिखरा पड़ा है। यही कारण है, कि फूलों का देश जापान को छोड़कर आने की दु: खद स्मृति हाइकु काव्य को कभी अक्रांत नहीं कर पाई। वह इस देश को भी  अपने घर की मानिंद महसूस करती रही। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य जगत के समस्त हाइकु प्रेमी और हाइकु सेवी यही शुभेच्छा करते हैं कि हाइकु काव्य को प्रकृति के क्रीड़ांगन में खेलने -  फलने - फूलने का पूरा पूरा अवसर मिलता रहे। डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी ने भारत में इस हाइकु काव्य को एक क्रांति की प्रस्तावना के रूप में देखा है और इस काव्य को एक अभियान के माध्यम से गति प्रदान की है। डॉ. मिथिलेश जी ने हाइकु गंगा पटल के माध्यम से नए व पुराने सृजन धर्मियों का एक ऐसा मंच तैयार किया है जो हिन्दी पट्टी में हाइकु काव्य हेतु एक वृहद वातावरण तैयार करने का काम कर रहा है, जो अपने आप में अविस्मरणीय है और स्तुत्य भी।

    हाइकु का मूलाधार प्रकृति होने के कारण कुछ विद्वानों ने इसे "प्रकृति काव्य" कहा, किन्तु हाइकु में प्रकृति का पर्यवेक्षण उसके गतिमान रूप पर केंद्रित रहता है। हाइकु कवि जीवन की क्षण - भंगुरता को प्रकृति के गतिमान, निरंतर परिवर्तनशील रूप में देखता है।

    हाइगा हाइकु का हीं एक अलग रूप है, जिसमें चित्र को केंद्र में रखकर हाइकु काव्य का सृजन किया जाता है। इस काव्य को सबसे ज्यादा प्रश्रय देने का महत्वपूर्ण कार्य किया है सरस्वती की परम साधिका डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी ने। प्रकृति के प्रति अपना आंतरिक सहज लगाव प्रमाणित करते हुए उन्होंने हाईकु गंगा पटल पर हाइगा की कई कार्यशालाओं का आयोजन कर इस काव्य शैली को हिन्दी के पटल पर प्रतिष्ठापित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है, जो उनकी इस काव्य शैली के प्रति आकर्षण को दर्शाता है।  इस पटल से कई दिग्गज व नए सृजन धर्मी जुड़े हैं जो हाइकु जगत के परिदृश्य को बदल कर रखने की पूरी क्षमता रखते हैं। यही इस पटल की बड़ी विशेषता है।

    दिनांक 10. 05. 2020 को सुबह आठ बजे हाइकु गंगा पटल पर धरती के सौंदर्य के विविध रूप और प्रकृति के अनुपम सौंदर्य की ऑन लाइन कव्यमय प्रस्तुति से पूरा वातावरण प्रकंपित हो गया। अर्थवान, गुण समृद्ध हाइगा कार्यशाला तृतीय की शुरुआत आकाशवाणी बरेली की निर्देशिका सुश्री मीनू खरे जी के उद्बोधन, सरस्वती वंदना और खूबसूरत हाइगा की बेहतरीन प्रस्तुति से हुई। सबसे सारगर्भित बात तो यह रही कि उनकी सरस्वती बंदना भी कतिपय हाइकु श्रृखंला की मोतियों से सुसज्जित थीं।

    भारत एक ऐसा देश है, जहां प्रकृति के विविध रूपों की पूजा होती है। उगते हुए सूर्य के साथ डूबते हुए सूर्य की भी पूजा होती है। इसे छठ पूजा कहा जाता है यह भारत का सबसे बड़ा लोक पर्व भी है, जिसे रुपायित करते हुए मीनू खरे जी ने बहुत ही सारगर्भित हाइगा प्रस्तुत किया है, जैसे "सूर्य को अर्घ्य/आस्था के कलश की/अटूट धार"

    डॉ. मधु चतुर्वेदी जी की पंक्तियां "ऊर्जा के तार/प्रकृति समन्वित/शक्ति संचार"  प्रकृति की उपयोगिता और शक्ति समन्वय का एक अनोखा अनुभव है। वहीं प्रकृति के अनिवर्चनीय सौंदर्य को रेखांकित करते हुए लवलेश दत्त जी*कहते हैं कि " यादों के गांव/खेत, नहर, बाग/ठंडी सी छांव।"

    यह मेरी भी खुशकिस्मती थी कि इस  हाइगा कार्यशाला में प्रकृति पर आधारित कुछ हाइगा मुझे भी प्रस्तुत करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिसके लिए मैं मंच की अध्यक्षा के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करता हूं।

    निवेदिता श्री जी की पंक्तियां "बहती नदी/कल कल करती/बदली सदी" और पुष्पा सिंघी जी की पंक्तियां "बिखरी पांखे/सूखती महानदी/ भीगती आंखें" हाईगा के सुखद भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है।

    विष्णुकांता के ताजे फूलों की तरह, कुंद सी सुगंधित कुछ बेहतरीन पंक्तियां प्रस्तुत करने में सफल रहीं डॉ. सुरांगमा यादव जी की "विज्ञप्ति लेके/आया है पतझड़/ नई भर्ती की।" , सरस दरवारी जी की पंक्तियां "नन्हा दीपक/डूबते सूरज का/ संवल बने।", अंजु निगम जी की पंक्तियां " उगला धुआं/प्रदूषित है हवा/ मौत का कुआं।" और डॉ सुभाषिनी शर्मा जी की पंक्तियां  "धूप ने खोली/ कोहरे की गिरह/फैला उजाला ।" आदि।

    ऐसी बात नहीं है, कि हाइकु या हाइगा की निंदा नहीं हो रही है या इसका विरोध नहीं हो रहा है। खूब हो रहा है। मेरे पास विरोध तथा भर्त्सना के बहुत सारे लिखित परिपत्र है। किन्तु विरोध से कोई सत्य कभी रुक नहीं जाता, बल्कि दुगुने वेग से आगे बढ़ता है। हाइकु या हाइगा का सत्य वैसे हीं एक ओजस्वी, तेजस्वी दुर्निवार वाग्धारा है। इसी वाग्धारा की एक कड़ी है सत्या सिंह जी  कीपंक्तियां "फूलों के झूले/मस्त पवन संग/आसमां छूले।"

    इस पटल पर तीन ऐसे रचनाकारों का मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा जिन्होंने अपने कुछ टटके हाइगा चित्रों से हाइकु जगत को श्री वृद्धि किया है। प्रकृति के प्रति अपना आंतरिक सहज लगाव प्रमाणित करते हुए मनोरम छवि चित्र उकेरे है। पहला नाम है कल्पना दुबे जी का जिनकी पंक्तियां "अमृत रस/झरते झर झर/शान्त निर्झर।", डॉ आनंद प्रकाश शाक्य जी का जिनकी पंक्तियां "वन संपदा/ जीवन मूल स्त्रोत/ हो संरक्षित" और इंदिरा किसलय जी जिनकी पंक्तियां "अहा जिंदगी/ चट्टानों से जूझती/ पहाड़ी नदी ।" मन मुग्ध कर गई।

    इस पटल पर कुछ रचनाकार हाइकु काव्य की शालीनता व गरिमा बनाए रखने की दिशा में कृत संकल्प दिखे, जिनमें प्रमुखता के साथ  डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' जी के  हाइगा को स्थान दिया जा सकता है। जैसे -"जब बचेंगे/जंगल जलाशय/ बचेंगे हम।" वस्तु एवं शिल्प दोनों दृष्टि से उनके हाइगा प्रस्तुत हुए। इस पटल पर पेंडों से छनकर आती धूप का स्पर्शविंब साफ दिखाई देता है, जो इस कार्यशाला की उपादेयता को प्रदर्शित करता है।

    वर्षाअग्रवाल जी की पंक्तियां यहां विशेष रूप से उल्लिखित करना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने अपनी पंक्तियों "मलिन नित्य/संजीवनी व्यक्ति/ मनुज कृत्य।" गहरे भाव छोड़ने में सफल रही।

    इस अवसर पर डॉ. सुषमा सिंह जी और डॉ सुकेश शर्मा जी के हा इगा को भी काफी पसंद किया गया। डॉ सुषमा सिंह जी ने अपनी पंक्तियों में कहा कि  "नव कोंपले/ बुलाती पंछियों को/कलरव को"  तथा  डॉ सुकेश शर्मा जी अपनी पंक्तियों में कहा कि "वसुंधरा मां/देती शष्य संपदा/आशीष सम।" में प्रकृति के कोमल छवि को स्पर्श किया है।"

    प्रकृति मानव की चिर सहचरी है जो ऋतुओं के द्वारा उसका पालन, अनुरंजन और प्रसाधन करती है। परस्पर एकनिष्ठ रहते हुए दोनों अपने अपने क्रिया - कलाप से एक - दूसरे को प्रभावित करते हैं। उनका यह भाव इस पटल पर परिलक्षित होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि साहित्य समाज से पृथक नहीं। इस कार्यशाला में प्रकृति के अद्भुत रूप को आयामित किया गया है कार्यशाला की अध्यक्षा डॉ मिथिलेश दीक्षित जी के द्वारा, जिन्होंने अपनी पंक्तियों क्रमश: "तुलसी चौरा/जलाती दिया - बाती/ मां याद आती।" और "धूप बीनती/ मृदुल फूल पर/बिखरे मोती।" के माध्यम से प्रकृति के कोमल सौंदर्य को रेखांकित किया है।

    कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है, कि यह कार्यशाला अपने आप में अनुपम व अद्वितीय है। कहा गया है, कि प्रकृति के दृश्य हाइगा की पहचान है और ये कुदरत के नजारों को देखने का झरोखा भी माना जाता है। ऐसे लगता है जैसे अम्बर, तारे, चांद, सूर्य, वृक्ष, फूल, टहनियां, घास, ओस की बूंदें, वर्षा तथा हवाओं ने इस पटल पर कोई जादू भरा राग छेड़ रखा हो। 
    प्रस्तुति: रवीन्द्र प्रभात
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