हमारा अपना वजूद इतना छोटा हो गया है कि हमने सारी खुशियों का आधार दूसरो को मान लिया है |कल हम इसलिए दुखी थे कि सामने वाले ने हमें तरजीह नहीं दी और आज इसलिए दुखी है कि मिस्टर क हमसे खुश नहीं है ,आने वाले दिनों में हम इसलिए परेशान रहेंगे कि हमें हमारा मनाचाहा नहीं मिला |क्यों भाई ,क्या हम स्वयं में खुश रहने की आदत नहीं डाल सकते | हमेशा अपने दुःख के लिए सामने वाले को दोषी ठहराना जरूरी है क्या?हम स्वयं में झाकने की कोशिश क्यों नहीं करते ?क्या हमारे साथ जो भी घटा ,उसके लिए हमेशा तीसरा व्यक्ति ही जिम्मेदार होता है / हम उसी काम को ही तो करते है जिसमे सुख मिलता है |यदि हम दबाव में काम कर रहे है तो हमें सोचना होगा आखिर हम उस दबाव में क्यो है ?कही ऐसा तो नहीं हम स्वयं भी उस कार्य में रुचि रखते है और ठीकरा दूसरों ........................................... जारी रखने के लिए क्लिक कीजिएगा
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आगरा ब्लॉगर मिलन : प्रयास - घर के भीतर देश बदलने का विश्वास

7 मई 2010 की रात में लिखचीत (चैट) पर माननीया बीना शर्मा जी ने जानना चाहा था कि मैं आगरा कब पहुंच रहा हूं। मैंने बतलाया कि सुबह 5 बजे चलने की योजना है। उन्होंने कहा कि आप यदि 10 बजे तक पहुंच सकें तो मैं चाहूंगी कि आप प्रयास में बच्चों से मिलें और संवाद स्थापित करें। परंतु 8 मई की सुबह जब 7.30 बजे मैंने फोन करके बतलाया कि चलने में देरी हो गई है और अब किसी भी तरह से दोपहर 12 या एक बजे से पहले पहुंचना संभव नहीं है। इस पर बीना जी ने कहा कि आप चाहें तो मैं बच्चों को रविवार को सुबह बुला लेती हूं। मैंने कहा कि बच्चों की एक दिन की छुट्टी को छु्ट्टी ही रहने दीजिए। अगली बार जब भी आगरा आना होगा तो मैं अवश्य ही आपके प्रयास को और गहरे उतर कर जानूंगा।
आप मिलने तो आयेंगे। मैंने कहा - आप निश्चित रहिये, जैसे ही मुझे समय मिलेगा। मैं मुलाकात के लिए निकल लूंगा। इसी कड़ी में मैं पहले 4 बजे के बाद डीएलए के डॉ. सुभाष राय जी से मिला और उनके साथ ही डॉ. एम एल परिहार जी से भी मुलाकात का सौभाग्य मिल गया। इसकी चर्चा आप ब्लॉगर से ब्लॉगर मिले : आगरा ब्लॉगर मिलन : चित्र और चर्चा में पढ़-देख चुके हैं।
10 मिनिट में पहुंचने की कहकर 30 मिनिट लगने का कारण मेरा रास्ते में भटकना रहा। डॉ. परिहार जी ने सही बतलाया था पर मैं ही समझ नहीं पाया और पहले चौक से मुड़ने के बजाय ट्रांसपोर्ट नगर तक चला गया। पूछने पर वापिस लौटा तो फ्लाई ओवर पर चढ़ गया और आगे साइड वे से लौटा, फिर डीएलए के नजदीक से निकला। मुझे अहसास हुआ कि वास्तव में पृथ्वी भी हिन्दी ब्लॉगिंग के माफिक गोल है। फिर सतर्कता से एक एक मोड़ पर पूछता हुआ न्यू सुभाषनगर के गेट से प्रवेश पा गया और इस सब में अतिरिक्त बीस मिनिट लग गए। खैर ...
बीना जी के घर के बाहर ही उनकी माताजी दिखलाई दीं| मैंने उन्हें नमस्ते किया और बीना जी के बारे में पूछा| तभी देखता हूँ कि साइड के कॉरीडोर में कुछ बच्चे अपनी पढ़ाई में व्यस्त थे। उनसे पूछा तो उन्होंने घर का रास्ता दिखलाया और मैं घर के ड्राइंग रूम में पहुंच गया। बीना जी ने मेरा स्वागत खूब खुशमिजाजी से किया और अपने पतिदेव श्री शर्मा जी से भी मिलवाया। मेरे बारे में बीना जी, शर्मा जी से पहले से ही जिक्र कर चुकी थीं क्योंकि मेरा नाम बतलाने पर उन्होंने आगे बढ़कर मेरा हाथ थाम लिया और अपनी प्रसन्नता जाहिर की। वे अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर हैं और रोजाना बस से अप डाउन करते हैं। उनका पूरा सहयोग बीना जी को मिल रहा है तभी तो यह बगिया फल-फूल रही है| शर्मा जी एक सह्रदय कवि हैं|अब तक वे लगभग ५५ कविताओं की रचना कर चुके हैं पर कहीं प्रकाशित नहीं करवाई हैं| बीना जी का इन कविताओं को ब्लॉग पर डालने का विचार है और उन्होंने अपने इस कार्य को अंजाम देना शुरू कर दिया है| मुझे लगा यह पूरा परिवार ही इस नेक कार्य में लगा हुआ है| इनके बेटे वरुण चिकित्सक हैं और जब भी वे आगरा में होते हैं, इन बच्चों के स्वास्थ्य की जांच, कभी संतुलित भोजन पर अपने विचार - इसी से ज्ञान का परिमार्जन भी होता रहता है।

घर के बाहर प्रयास का बोर्ड लगा हुआ था। यह वो एन.जी.ओ.है जो वे और उनके पति मिलकर चलाते हैं बल्कि कहना चाहिये कि दौड़ा रहे हैं और इस धारणा के उलट कि एन.जी.ओ. खूब कमाई का जरिया होते हैं। इस संबंध में बाद में उन्होंने एक किस्सा भी सुनाया। चलिए उन्हीं के शब्दों में सुनिए-"अविनाश भाई, अक्टूबर में प्रयास के सौजन्य से स्थानीय आर.के.विद्यालय में निशुल्क चिकित्सा शिविर लगाया गया था| शर्माजी आगंतुकों का स्वागत करने के लिए मुख्य द्वार पर थे | मैं चिकित्सकों के साथ प्रथम तल पर व्यस्त थी| शर्माजी से वहाँ बैठे एक सज्जन ने जानना चाहा, क्यों साहब, मैडम ने इस चिकित्सा शिविर में कितना कमा लिया ? शर्माजी भौंचक्के से रह गए और बोले कितना पैसा मतलब ? यह संस्था तो हम लोग अपने निजी प्रयासों से चला रहे हैं| अपनी तनख्वाह का दसवां भाग हम बच्चों की शिक्षा-दीक्षा पर व्यय करते हैं| ये सभी चिकित्सक प्रयास के लिए अपनी निशुल्क सेवायें दे रहे हैं| जब बाद में मुझे इस घटनाक्रम की जानकारी हुई तो मन बहुत दुखी हुआ कि क्या सेवा-भाव से चलाये गए एन.जी.ओ. भी भ्रष्टाचार के गढ़ बनते जा रहे हैं|" मैंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि जो कार्य वे कर रही हैं, ऐसे कार्य प्रत्येक नहीं कर सकता। अगर ऐसा होता तो समाज कब का बदल गया होता।
प्रयास के माध्यम से वे कामगारों के उन बच्चों का चहुमुखी विकास करने के लिए व्यावहारिक ज्ञान बांट रही हैं जो पैसा खर्च करके पढ़ने में समर्थ नहीं हैं। ज्ञान भी वो जो सबके दैनिक जीवन में रोज काम आता है। इसे सिर्फ मोटी -मोटी प्रचलित शिक्षा पुस्तकें पढ़कर हासिल नहीं किया जा सकता। उनसे तो केवल डिग्रियां बटोरी जाती हैं। बच्चों को बोलने की कला भी सिखलाई जाती है। उन्हें लिखना भी सिखाया जाता है। वे कविताएं भी रचते हैं और भावों को बुनते हैं। बीना शर्मा जी की वेबसाइट प्रयास और ब्लॉग अपनी बात है | अपनी बात में प्रयास के नन्हें अंकुरों की रचनाएं स्थान पाती हैं|

बीना जी केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा में प्रोफ़ेसर ,शिक्षाशास्त्र के पद पर कार्यरत हैं।

बीना जी से मिलकर मुझे बार -बार अनीता कुमार जी की याद आ रही थी जिनसे पिछले वर्ष मुंबई में मुलाकात हुई थी। ब्लॉग जगत में शायद ही कोई होगा जो अनीता कुमार जी के ब्लॉग कुछ हम कहें से परिचित नहीं होगा।
मुझे तो हैरानी होती है कि जब समाज को बदल डालने के धुनी ऐसे-ऐसे जाबांज मौजूद हैं तो समाज क्यों नहीं बदल रहा है या बदल रहा है तो उसके बदलने की गति धीमी है। वैसे कहा भी गया है कि सहज पके सो मीठा होय सम्भवत: यह सहज पकने की प्रक्रिया ही दिखलाई दे रही है।
सुधीर कुमार जी की कोशिशों से बीना शर्मा हिन्दी ब्लॉग जगत में वर्ष 2009 से सक्रिय हैं। उन्होंने हिन्दी ब्लॉग बनाने में पूरी मदद की है। अपना पूरा समय हिन्दी ब्लॉगिंग और प्रयास को इसलिए दे पा रही हैं क्योंकि अभी वह मेडिकल पर चल रही हैं |दर असल उनका ट्रांसफर भुवनेश्वर हो चुका है,पर घुटनों की तकलीफ के कारण वह चल-फिर नहीं सकतीं, अत: अवकाश पर हैं| हम सभी उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हैं|
एक दिन में चार मुलाकातें पुष्ट कर रही हैं कि हिन्दी ब्लॉगिंग और इंटरनेट इंसान को इंसान से जोड़ने का जरिया बन चुके हैं। बस आपके मन में मिलने का भाव होना चाहिए, इंसानों का अभाव यहां पर नहीं है। बस इस माध्यम की इस खूबी को अपनाने और अपना बनाने की जरूरत है।
बीना जी को देखकर फख्र होता है और विश्वास होता है कि जब समाज में और विशेषकर भारत में ऐसी प्रतिभाएं मौजूद हैं तो भारत को फिर से सिरमौर बनने से कोई नहीं रोक सकता। बच्चों की पढ़ाई की शुरूआत स्वर, व्यंजन, वर्ण से कर सबसे पहले आधार मजबूत किया जाता है। जो अध्यापक पढ़ाते हैं उन्हें पहले बीना जी स्वयं अपनी शिक्षा पद्धति से परिचित करवाती हैं और फिर उसका लाभ बच्चों को मिलता है। ऐसे शिक्षा प्रयासों की समाज में बेहद जरूरत है।
हर संस्था का कार्य करने का अपना तरीका होता है यहाँ अपनी सेवायें देने वालों के प्रति बहुत जागरूक रहने की आवश्यकता है क्योंकि बच्चों का पूरा भविष्य इसी शिक्षा पर आधारित होता है| अध्यापकों के द्वारा बोर्ड पर लिखे गए वाक्यों में कोई गलती ना हो,इस बात का बीना जी विशेष ध्यान रखती हैं। फिर भी कभी –कभी कुछ छूट ही जाता है|

सिलाई का किस्सा
एक मास्टर कपड़े की कटाई करके बच्चों को सिलाई करने के लिए देता था और जब बच्चों की परीक्षा ली गई तो एक दो बच्चों के अतिरिक्त बच्चे कपड़े की कटाई नहीं कर पाये जबकि काटे बिना कपड़ों का सिलाई का नंबर नहीं आता है तो इस प्रकार की सावधानियां बरतनी पड़ती हैं। जरा सा ध्यान चूका तो कहीं न कहीं लापरवाही हो जाती है। सीखने वाले से अधिक दायित्व सिखाने वाले का हो जाता है |हम सभी एक सी शिक्षा पद्धति के शिकार हैं, जहां आधार मजबूत करने पर तो द्रष्टि ही नहीं जाती |
पिछली रात को प्रयास की बेवसाइट देखी थी तभी मेरे मन में ख्याल आया था कि मेरे पास बच्चों की पत्रिका हंसती दुनिया की जो प्रतियां मौजूद हैं, उन्हें मैं उन बच्चों के लिए ले जाऊंगा और जब मैंने लगभग 18 प्रतियां बीना जी को दीं तो उन्होंने कहा कि, अविनाश जी, आप नहीं जानते कि आपने हमारे बच्चों को कितना बड़ा खजाना दे दिया है। बच्चे इसमें से कविताएं और कहानियां याद करेंगे। बच्चों में पढ़ने की आदत का विकास करने के लिए एक पुस्तकालय भी है। भारतीय संस्कृति को ध्यान में रख कर अच्छी पुस्तकों का चयन किया गया है|
बातचीत में काफी विषयों पर विस्तार से चर्चा हुई। जितना याद भर रह गया है उतना लिख दिया है। पर आपमें से भी कभी किसी का आगरा जाना हो तो प्रयास का अवलोकन करना मत भूलिएगा। इस प्रकार के कार्य मन को एक सुकून देते हैं। समाज के विकास का एक सर्वोत्तम मार्ग प्रशस्त करते हैं।
बीना जी का कहना है कि इनके एन.जी.ओ. प्रयास पर डाक्यूमेंट्री बनाने का विचार चल रहा है और मेरे मन में कि इन पर ही डाक्यूमेंट्री बननी चाहिए, का विचार पल रहा है। मेरी अपील है डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माताओं से कि वे बीना शर्मा जी से मिलें और इस कार्य को अंजाम दें।
बीच में चाय नाश्ता भी हुआ। पर कैमरे की गैर-हाजिरी के कारण इस अवसर के चित्र न संजो पाने का मुझे बेहद अफसोस है। आपको भी है न ?
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