पी के सिर्फ एक फिल्म का नाम भर नहीं है बल्कि समाज में फैली हुई कुरीतियों पर तीखी और गहरी चोट करती है और चोट ऐसी जो समाज के खोट को उजागर करता चलता है। धर्मगुरूओं के तथाकथित भगवानों और उन्हें अपने शिंकजे में कसे हुए उनके मैनेजरों के आम भोली पब्लिक से धन वसूलने के धंधे को देखने और उनसे बचने को मजबूर करती है पर बच नहीं पाती है, जितना बचने की कोशिश करती है, उतना अधिक उसमें उलझती जाती है।
जिस प्रकार धर्म के ठेकेदार विभिन्न लुभावने प्रतीकों के माध्यम से अपनी जड़ों को मजबूती से जमाए बैठे हैं, उसी के सदृश पी के नाम एक ऐसा प्रतीक है जिसकी अन्य मिसाल न समाज में और न दुनियाभर में मिलती है। एलियन फिल्म का आधार है जिसकी धुरी पर पूरी फिल्म घूमती है पर जितना जनता जानती है उससे अधिक न तो बताती है और न निर्देशक, पटकथा कहानी लेखक कल्पना के धागों में कुशलता से पिरोकर परदे पर पेश कर पाते हैं। एलियन की अब तक परदे की सभी फिल्मों से रोचक और कॉमेडी से भरपूर फिल्म बनी है।
पृथ्वी और अंतरिक्ष के अन्य सितारों की साम्यताओं को अनजाने ही फिल्म में दिखा दिया गया है कि गोल का मतलब गोल होता है। भाषा और बोली भी कुछ अहमियत रखती है जो कि जमीन पर इशारों के जरिए अपने अलग अर्थ देती है। रिमोट, टेपरिकार्डर, ट्रांजिस्टर, कपडे, नंगेपन का स्थाई भाव अपने में समेटे हुए है। झूठ का कोई वजूद उपर नहीं है, उपर मतलब अच्छाईयों का भंडार और नीचे झूठ, कुरीतियों, काले धन और भगवान को बेचने का व्यापार। उपर कोई भगवान नहीं और नीचे कोई ऐसा नहीं जो परेशान नहीं। उपर वाले तकनीकी तौर पर हमसे बहुत आगे और हम उनके पासंग भी नहीं ठहरते हैं। वहां वह सर्वज्ञ है और आत्मा का मौजूदा स्वरूप परमात्मा से साम्यता रखता है।
धरती पर भगवान धन कमाने भर का औजार भर है, कोई मिट्टी के छोटे से लेकर विशालकाय भगवान और तपस्विी जैसे उनके विचारों का ढोल पीटकर घर और तिजोरी भरता है। फिल्म में सीन दर सीन पब्लिक के ठहाके गूंजते रहते हैं। आनंद पब्लिक का जनभाव बन गया है। फिल्म की सफलता के लिए जरूरी सभी मसाले भरे हुए हैं। फिल्म सफल है और करोडों का धंधा कर रही है। निर्माता से लेकर कलाकारों तक की झोली नोटों से लबालब भर रही है। फिल्म की सफलता ने सफल होने के सारे पैमाने बदल दिए हैं। सफल होना हरेक फिल्म और घटना के लिए अलग है।
अलगाव का सूत्र इस फिल्म में लगाव का वायस बना है। आत्मा से परमात्मा और शिव से शंकर की यात्रा यूं तो सच लगती है परंतु सच है क्या इसे कौन भला आदमी जानता है। लगने को तो इंसान को हरेक भगवान सच स्वरूप ही नजर आता है पर सच का नाता किससे कितना गहरा है, इसे कौन समझ पाता है या समझा पाता है। जो जिससे जितना जुड़ जाए उसके लिए वही सच है। जिस प्रकार आत्मा अजर अमर और सत्य है उसी प्रकार एक सच्चाई परमात्मा है। जबकि ईमानदारी से बढ़कर भला कौन है, ईमानदार सदा सनातन सत्य है, इसे जान समझ लेना चाहिए।
- अविनाश वाचस्पति
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