व्यंग्य
की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वो व्यंग्य ही होता है। इधर अधिकांश व्यंग्य लेखन
व्यंग्य नहीं है। उसमें हास्य की मिलावट की जाती है या उसे ललित निबन्ध बनने को
मजबूर कर दिया जाता है। विशुद्ध व्यंग्य बहुत कम नज़र आता है। और ऐसा हो भी क्यों
न, जब विशुद्ध दूध, पानी और पाठक तक नहीं हैं फिर व्यंग्य की क्या बिसात कि
बाजार के अनुरूप अपना रंग, रूप और क्लेवर न बदले। पाठक को भी उस कलेवे में मजा
आता है, जो फ्री में मिलता है। जबकि यहां पर फ्री में तो नहीं, हां, रियायती दरों
पर जरूर मिल रहा है। लेकिन रवीन्द्र प्रभात के व्यंग्यों से गुजरते हुए महसूस होता
है कि हम विशुद्ध व्यंग्य
ही पढ़ रहे हैं, कुछ और नहीं। वैसे तो रवीन्द्र प्रभात के सधे
हुये व्यंग्य मैंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में खूब पढे हैं, किन्तु उसे पुस्तक की शक्ल में
पढ़ने का एक अलग आनंद मिला। मतलब मुझे तो पुस्तक मिल ही
गई है, इतना अधिकार तो मेरा रवीन्द्र भाई पर बनता है। पर जब छपी पुस्तक आएगी, तब
भी उसे मैं अवश्य खरीद कर एक बार इसलिए पढूंगा ताकि प्रेस के प्रेतों से मुकाबिल हो
सकूं। और आप इसलिए खरीदिएगा ताकि व्यंग्य के भूतों का दीदार कर सकें।
हिंद युग्म ने रवीन्द्र प्रभात की व्यंग्य-पुस्तक 'धरती पकड़ निर्दलीय' की प्री-बुकिंग शुरू कर दी है। प्रकाशक शैलेश भारतवासी के मुताबिक इस किताब में गाँव की एक चौपाल को केंद्र में रखते हुए देश की
सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक
स्थितियों पर करारा व्यंग्य किया गया है। इसका यह मतलब भी है कि इससे यह मिथक भी
टूटता है कि प्रकाशक छापने से पहले पुस्तक पढ़ते नहीं हैं। जिनसे नोट मिल जाते
हैं, उनकी पुस्तकें छाप देते हैं। जबकि इस बारे में इसलिए भ्रम होता है। अब जब
शैलेश भारतवासी ने पुस्तक पढ़ी है तो इसे पढ़ने का हर उस भारतवासी की जिम्मेदारी
है जो भात खाता है। अब भात खाने और व्यंग्य पुस्तक पढ़ने में क्या संबंध है यह
या तो भात खाने वाला ही बतला सकता है या भात नहीं खाने वाला। अब देखते हैं कि कौन
इस व्यंग्य उपन्यास के बारे में क्या क्या बतलाता है। बतलाने के लिए पुस्तक
खरीदना अनिवार्य इसलिए है क्योंकि इस पुस्तक की ई-प्रति अथवा पीडीएफ प्रति उपलब्ध
नहीं है। फिर आपको एक सौ रुपये भी तो खर्च नहीं करने हैं, हां एडवांस में खर्च
जरूर करने हैं और इतना दायित्व तो आपका बनता ही है क्योंकि आप रवीन्द्र प्रभात
से और उनके लेखन से प्यार करते हैं। वैसे लिखे रवीन्द्र प्रभात ने व्यंग्य ही
हैं पर उन्हें पिरो ऐसे दिया है कि उपन्यास में शुमार किए जाएंगे। ऐसी मेरी
कामना भी है और चाहना भी। किताब में सम्मिलित व्यंग्य आलेखों को इस तरह से पिरोया
गया है कि वे व्यंग्य-उपन्यास पढ़ने का एहसास कराते हैं।
शैलेश का कहना है, कि इसको पढ़ने के बाद राग दरबारी की याद ताज़ा
हो जाएगी । अगर ऐसा है तो चलिये इस पुस्तक को खरीदकर पढ़ते हैं, क्योंकि पुस्तक खरीद कर पढ़ने का अपना एक अलग आनंद है। अब शैलेश इसे पढ़कर राग दरबारी की याद ताजा करने की बात कर रहे हैं तो उस
भरोसे का भी आकलन कर लिया जाए।
किताब सभी प्रमुख ऑनलाइन स्टोरों पर प्री-बुकिंग के लिए उपलब्ध है।
इसके कुछ महत्वपूर्ण अंश मैं अपने उन पाठकों के लिए चुरा लाया हूं जो पुस्तक
खरीदने से पहले उसकी अंदरुनी जानकारी चाहते हैं। तब ही 76 या 90 रुपये खर्च
करेंगे। पर मुझे पूरा भरोसा है कि करेंगे जरूर। आज जरूरत भी यही है कि किताबों की
खरीद को बढ़ावा दिया जाए।
ईबे पर मात्र रु 76 में (बिना किसी शिपिंग के खर्च के) उपलब्ध हैः
इंफीबीम
पर भी यह किताब मात्र रु 76 में कैश ऑन डिलीवरी की सुविधा के साथ उपलब्ध
हैः
बुकअड्डा
प्रेमियों के लिए यह किताब मात्र रु 90 में उपलब्ध हैः
(एक)
पिछले विधान सभा चुनाव में निर्दलीय जी ने टिकट के लिए खूब ज़ोर
आजमाइश की मगर हाय री किस्मत, ना तो बहिनी हाथी पर बैठने को कही और न नेता जी अपने
समाजवादी साइकिल पर । युवराज अगले इलेक्सन में देखेंगे कहिके गुड बाई टाटा करके
निकल गए तो कम्युनिष्टों ने यह कहकर टाल दिया कि इस बार टिकट की बड़ी मारामारी है ।
हाँ अगले परधानी के इलेक्सन में सोचेंगे कहकर भाजपायियों ने आश्वासन के फूल जरूर
सूंघा गए उन्हें । निर्दलीय जी ऐसे आश्वासनों की असलियत जानते थे, सो
आव देखा न ताव खड़े हो गए निर्दलीय। ढ़ोल-ताशा बजा-बजाके लगे चुनाव प्रचार करने ।
सारी पार्टियों के साथ नगद नारायण को साक्षी मानकर अलग-अलग गुप्त मंत्रणा हुयी और
निर्दलीय जी अचानक इलेक्सन के ठीक दुई दिन पहिले बैठ गए डकारते हुए। सारी
पार्टियों का भ्रम भी रह गया कि निर्दलीय जी उन्हीं की पार्टी के हैं और अगले
चुनाव तक का खर्चा-पानी भी निकल गया । निर्दलीय जी कहते हैं कि भाई अपना क्या, यहौ पार्टी हमारी वहौ पार्टी हमारी । राज को राज
रखने में हरज हीं का है ?
(दो)
वो तो ठीक है रमजानी मियाँ की चांदी के जूते में बहुत पावर है मगर
जब ओवरडोज हो जाता है तो फाक्काकसी निकल जाती है झटके में.....! अब देखो न sss चांदी के जूते खाने के
चक्कर में मधु कोड़ा की हालत अपने खलील मियाँ की तरह हो गयी है, वो ज़माना लद गया जब खलील मियाँ
फ़ाक्ता उड़ाया करते थे ...!
(तीन)
जांगड़ चौक वाला मंगरुआ नेता का हो गया, पेट्रोलियम मंत्री की
तरह हरबखत गुमान में रहता है ससुरा । काल्ह पेट्रोल पंप पर मिल गया, कहने लगा कि ईमानदारी
मा का रक्खा है निर्दलीय जी, हमें देखो, हमरे पास का नाही है- मोटर है, बंगला है, गाड़ी है ......आपके
पास का है निर्दलीय जी? हम्म भी ना आव देखे ना ताव सीना ठोक के कह दिये कि मंगरुआ हमरे पास
मंहगाई है । कुछ गलत तो नहीं कह दिया ?
(चार)
मियां, भाव हैं तो बढ़ेंगे ही । बढ़ना भी चाहिए । प्रोग्रेस हर चीजों में होनी
चाहिए चाहे वह भाव ही क्यों न हो । पेट्रोल के भाव बढ़ेंगे तो आम आदमी का लाइफ
स्टाइल बढ़ेगा। जब आम आदमी का लाइफ स्टाइल बढ़ेगा तो देश आत्म निर्भर होगा । यूं
समझो बरखुरदार कि सरकार आम आदमी के
सम्मान को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। मियां, दुष्यंत साहब ठीक ही कहते थे कि - आज सड़कों पर
लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घर अंधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख ।
(पाँच)
यहाँ एक कामवाली आयी थी जो एक कोने में बैठकर बीडी पी रही थी और
प्रदुमन का सबसे छोटा बेटा जो महज सात साल का है , उससे गपिया रहा था , उसे हिदायतें दे रहा था
कि- " ये चाची! अपनी बीडी को जिगर से क्यों नहीं जलाती हो, माचिस के पैसे बचेंगे ?"यह सुनकर वह कामवाली पहले तो शरमाई फिर अपने कथई दातों को निपोरती
हुई बोली- " धत्त , कइसन बात करत हौ बबुआ!
जिगर से कहीं बीडी जलिहें ?"
(छ:)
ई बताओ राम भरोसे भईया, राजा ने करपसन का इत्ता बड़ा बाजा बजाया , किसी ने जिम्मेदारी ली , नहीं न ?......कलमाडी ने कॉमन वेल्थ की आग में भ्रष्टाचार की हांडी चढ़ाई , किसी को बदबू आई, नहीं न ? निरा राडिया की खटिया में बरहन- बरहन लोग अंडस गए, किसी ने अंडसने की
जिम्मेदारी ली, नहीं न? हमरे देश के नेताओं ने अमरीकी पाखण्ड को अपने बिस्तर पर सुलाकर खुबई रासलीला रचाई , सही-सही बताओ कितने
लोगों को शरम आई ? लगातार मोनमोहनी
मुस्कान छाई रही दूरदर्शन पर और सोनिया मैडम अंचरवा दांत में दबा के देहरी के भीतर से देखती रही विष कन्याओं के पतीत खेल...
(सात)
कलयुग के भगवान तुम्हारी जय हो ! तुम्हारे पास चमचमाती कार है, आलीशान बंगला है ढेर सारा रूपया है ... लजीज
व्यंजन खाते हो ... विदेशी शराब और अर्द्धनगन सुन्दरियां तुम्हारी शाम को हसीन
बनाती है।तुम्हारी कावलियत तुम्हारे पुरषार्थ की पृष्ठभूमि है ....कौन है इस जग
में भूप जो तुम्हारी नंगई को नगा कर दे , जो तुम्हें नंगा करने की सोचेगा खुद नंगा हो
जाएगा । आदमी सादा जीवन की विचारधारा का पैरोकार होता है इसलिए तुम्हें जी खोलकर
लूटने का अधिकार होता है ,तुम्हारी महिमा अपरंपार है नेताओं ।इतना कहकर
निर्दलीय जीने हवन कुंड में दुबारा फिर घी डालते हुए कहा -
ओम श्री मुद्राय नमः।।
(आठ)
सबकी अपनी-अपनी प्रॉब्लम है , भारत की गरीबी को सबसे बड़ी प्रॉब्लम बताने वाला
एक डाकू टाईप बन्दा कल बता रहा था कि मैं और मेरे साथियों ने बड़ी मुश्किल से एक
बस को लूटा , मगर हाय री हिन्दुस्तान की गरीबी पूरी बस से केवल अड़तीस हजार ही
जुट पाए, अब थानेदार को लूटने के
एवज में पचास हजार कौन दे इसलिए मैंने सारे पैसे यात्रियों को लौटा दिए ...
(नौ)
चावल में कंकर की मिलावट , लाल मिर्च में ईंट - गारे का चूरन, दूध में यूरिया , खोया में सिंथेटिक सामग्रियाँ , सब्जियों में विषैले
रसायन की मिलावट और तो और देशी घी में चर्वी, मानव खोपडी, हड्डियों की मिलावट क्या आपकी किश्तों में
खुदकुशी के लिए काफी नहीं ?भाई साहब, क्या मुल्ला क्या पंडित
इस मिलावट ने सबको मांसाहारी बना दिया , अब अपने देश में कोई शाकाहारी नहीं , यानी कि मिलावट खोरो ने
समाजवाद ला दिया हमारे देश में , जो काम सरकार साठ वर्षों में नहीं कर पाई वह
व्यापारियों ने चुटकी बजाकर कर दिया , जय बोलो बईमान की ।
(दस)
का करोगे राम भरोसे, राजनीति मथुरा का पेंडा है, आगरा का पेठा, लखनऊ की रबडी है, मनेर का खाजा । राजनीति है हीं ससुरी ऐसी मिठाई कि जो चख लेता है ऊ ससुरा
चोर हो जाता है । अऊर त अऊर राजनीति में
चोरी-चमारी करने से इज्जत बढ़ती है न कि घटती है । बोले निर्दलीय जी
- अविनाश वाचस्पति
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