झाडू-जूता चिंतन : दैनिक राष्‍ट्रीय सहारा 19 जुलाई 2013 के 'कटाक्ष' स्‍तंभ में प्रकाशित


झाड़ू मारने की काबलियत होना भी बुरा है और न होना भी बुरा। बुरे को बुरे में बदलने के लिए जानना जरूरी है कि कौन सी बुराई ज्यादा बुरी है। जी हां, झाडू मारी नहीं, लगाई ही जाती है। आपने कभी झाडू और कूड़े का झगड़ा नहीं सुना न! सुनेंगे भी कैसे? क्योंकि झाडू बहुत धीरे-धीरे स्नेहिल भाव से लगाई जाती है, जिससे कूड़े और झाडू में सद्भाव बना रहता है। झाडू लगाना किसी कला से कमतर नहीं है। यह सभी विधाओं में मौजूद मिलती है। झाडू को मारने या बेतरतीबी से लगाने पर कूड़ा आंख की किरकिरी बन कर दुख देता है। किसी भी नर के लिए नारी रूपी झाडू को बिना हुनर संभालना आसान नहीं रहा है। सत्ता मिलते ही सरकारी योजनाओं में घपले-घोटाले करने के लिए झाडू लपकी जाती है जिसे बेदर्दी से सरकारी धन को हथियाने के लिए हथियार बना लिया गया है। वहां झाडू समेटती है, बुहार कर बाहर नहीं फेंकती। सब काला-काला सहेजने से धन और मन स्याह हो उठते हैं। झाडू का नाम लेकर बयानदेयक का आशय झाड़ पिलाने की मंशायुक्त था, इसलिए उसकी इच्छापूर्ति तो हो गई। सच्चाइयां तीखी ही होती हैं और जो चीज तीखी होगी, वह जरूर सच्चाई सरीखी होगी। झाडू की तीलियां इतनी तीखी-नुकीली होती हैं कि लहूलुहान कर देती हैं। यह तल्खी भरी सचाई है। इससे मान लें कि लहूलुहान न कर पाए पर सच्चाई चुभती जरूर है। कुछ ही दिन हुए, बोधगया में बुद्ध के आंगन में आतंक ने पैर पसार लिए। जबकि भगवान बुद्ध ने सदा दुनिया को शांति और अहिंसा का संदेश दिया है, पर जिनके मन मैले हों, वहां पर किसी तरह की झाड़-पोंछ कारगर नहीं रहती। इसलिए राह में बिखरी गंदगी से बचने के लिए जूते पहने जाते हैं। झाडू फूलों की भी होती है जो हर घर में पाई जाती है। उससे कूड़े को बुहारा जाता है। इससे मारने के लिए उठाने पर फूल नहीं बरसेंगे, यह सच्चाई सब जानते हैं जबकि तीलों वाली झाडू निर्मम हो जाती है। तीलों वाली झाडू प्यार से लगाने पर भी चुभती है और चीखें निकलती हैं, गुदगुदी नहीं होती। व्यंग्य जब लिखा जाता है अथवा नेताओं का अनर्गल बयान आता है, कहने वाले उसे भी झाडू मारना कह देते हैं। व्यंग्य के तीर झाडू के तीले को ध्यान में रखकर बनते हैं। इससे कटाक्षों में तंज सधता है। इसे साधने के लिए शब्द साधना बहुत जरूरी है। इसमें दिल या तिल नहीं मिलते, नुकीले तीले चुभते हैं। उसी प्रकार नेताओं के बयान संवेदनशीलता की हत्या कर देते हैं। व्यंग्य के तंज से आहत अंत तक यही सोचता-विचारता रहता है कि इसके निहितार्थ क्या हैं? ऐसे अनर्गल बयानों से सार्थक अर्थ इसलिए नहीं निकलते हैं क्योंकि एक तो वे अनर्गल होते हैं, दूसरा कोई राजनेता कभी अपने विरोधियों की शान में इजाफा करने के लिए कशीदाकारी करने से रहा। कायदे से झाडू लगाने से समाज हित होता है। जबकि यहां खुद को फायदा पहुंचाने वाले कायदे गढ़ लिए गए हैं। अगर फायदा हो रहा हो तो झाडू मारने वाला फिनायल मिला पानी का पोंछा लगाने को भी तत्पर मिलता है। सिर्फ झाडू लगाने से वह नतीजा नहीं निकल कर आता है जो पोंछा लगाने से चमक आती है। इससे बीमारियां और कीटाणु दूर रहते हैं। जबकि मन से सफाई का मन हो तो खालिस फिनायल का पोंछा लगाना अच्छी बात है। आप सोचिए, जिस देश में झाडू पोंछे के काम में भी मिलावट होती हो, श्रेय लेने से सब बचना चाहते हों, उस देश में यह काम इलेक्ट्रॉनिक तकनीक के भरोसे किया जाए और उस तकनीक को विदेश से मंगवाने के नाम पर पब्लिक के पैसे में कितनी खयानत करनी पड़ेगी, यह हमारे नेताओं का स्वभाव बन गया है इसलिए यह अमानत में खयानत का मामला बन गया है। जबकि मौजूदा बयानबाजी में झाडू खुश पाई गई है। कयास लगाए जा रहे हैं कि वह उस नेता की शुक्रगुजार है, जिसने उसे सुर्खियों में जगह दी है। वरना आज तक उसकी र्चचा हुई ही कब थी। उसे तो जूते से भी गया गुजरा मान लिया गया था। इसका कारण यह भी समझ आता है कि झाडू गंदगी को साफ करती है और जूता गंदगी से बचाता है। वैसे भी मारने वाले से बचाने वाले को महान माना गया है।

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