दिल्ली की जीवन रेखा बन चुकी नए जमाने
की मेट्रो ट्रेन में चढ़ते ही एक सन्देश सुनाई देता है इस सन्देश में यात्रियों को
सलाह दी जाती है कि “ किसी भी अनजान व्यक्ति से दोस्ती न करे”. जब जब भी मैं यह लाइन सुनता हूँ
मेरे दिमाग में यही एक ख्याल आता है कि
क्या नए जमाने की मेट्रो ट्रेन हमें दोस्ती का दायरा सीमित रखने का ज्ञान
दे रही है? सीधी और सामान्य समझ तो यही कहती है कि यदि हम अपने साथ यात्रा करने
वाले सह यात्रियों या अनजान लोगों से जान-पहचान नहीं बढ़ाएंगे तो फिर परिचय का
दायरा कैसे बढ़ेगा और जब परिचय का विस्तार नहीं होगा तो दोस्ती होने का तो सवाल ही
नहीं है. तो क्या हमें कूप-मंडूक होकर रह जाना चाहिए? या जितने भी दो-चार दोस्त
हैं अपनी दुनिया उन्हीं के इर्द-गिर्द समेट लेनी चाहिए. वैसे भी आभाषी (वर्चुअल)
रिश्तों के मौजूदा दौर में मेट्रो क्या, किसी से भी यही अपेक्षा की जा सकती है कि
वह आपको यही सलाह दे कि आप कम से कम लोगों से भावनात्मक सम्बन्ध बनाओ और आभाषी
दुनिया में अधिक से अधिक समय बिताओ.इससे भले ही घर-परिवार टूट रहे हों परन्तु
वेबसाइटों.इंटरनेट और इनके सहारे धंधा करने वालों की तो मौज है.
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इंटरनेट की जानपहचान वाला आपका मॉनीटर लेकर प्लेटफ़ार्म से नहीं उतर सकता ...
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