मेरे पास मजदूर मां है : बॉलीवुड सिने रिपोर्टर 15 - 21 मई 2013 अंक में प्रकाशित


मेरे पास मजदूर मां है



-    अविनाश वाचस्पति



‘’तुझको नहीं देखा हमने कभी/पर इसकी जरूरत क्या होगी

ऐ मां तेरी सूरत से अलग/भगवान की सूरत क्या  होगी ‘’



वर्ष 1968 में प्रदर्शित ‘दादी मां’ फिल्म का यह गीत मां की महिमा बखान देता है पर आज हालात खतरनाक हो चुके हैं। मां की महिमा लिए हुए मई महीने के पहले दिन की शुरूआत मजदूर दिवस से हो गई है। हर बार होती है इसमें नया क्या है,  ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है।  इस बार कुछ नया घटने के नाम पर बढ़ा ही है। उस बढ़ोतरी में इस बार चर्चा में मां का मजदूरीय स्वरूप भी है।  जो महीने के दूसरे रविवार को मां दिवस के साथ मौजूद है। इस बार मां है, मजदूरी है और इनके साथ जुड़ी मजबूरी है। ‘मेरे पास मां है’ से कहना अधिक सटीक यह बनता है कि ‘मेरे पास मजदूर मां है’। देश में शोषण का शिकार हो रहे करोड़ों मजदूर हैं। हर जगह परोक्ष तौर पर मजदूरी की मजबूरी का ही यशोगान हो रहा है। सिनेमा हो या वास्तविकता, हालात जुदा नहीं हैं। कहीं दिखाई दे जाते हैं, कहीं दिखाए नहीं जाते। जो पेश किया जाता है, वह लुभाता है। इतना लुभाता है कि सुपरहिट संवाद बन जाता है।

मां प्रथमतः एक नारी है, वही नारी जो पत्नी रूप में भी पुरुष के पास मौजूद है, कहा जाता है कि वह कंधे के साथ कंधा मिलाकर डटी है। फिर उस जुझारू नारी को इतना सम्मान क्योंा नहीं मिल रहा है।  वह सम्मान उसे क्यों अपने पुत्र से मिल रहा है जबकि पत्नी के रूप में नारी अधिक सम्मान की अधिकारिणी है। ससुराल में जिम्मेदारियां संभालते समय उसके पास अनुभव का बड़ा संसार भी नहीं था, जूझने का वह माद्दा भी नहीं था जिसके बल पर वह सबसे जूझती रही। पत्नी के रूप में उसके हिस्से एक से बढ़कर एक जिम्मेदारी आई और पूरी न किए जाने पर या उनमें प्रौढ़ता न पाए जाने पर उसे बुरा-बुरा ही कहा गया। किसी ने उसे नहीं बख्शा। उसकी हालत मजदूरों वाली बनी रही। आप यह सब सिनेमा के परदे पर देखते रहे हैं। पर आपको अगर लगता है कि उसमें रत्ती भर भी फर्क पड़ा है, तो अपने भ्रम से बाहर निकल आइए, राजस्थान की प्रथम महिला कुली मंजू देवी का उदाहरण पेश है। मंजू के जयपुर रेलवे स्टेथशन पर कार्यरत् कुली पति महादेव की बीमारी से मृत्यु होने पर मंजू ने बच्चों और अपना जीवन चलाने के लिए कुली का पेशा अपना लिया है। रेलवे से उन्हें सहयोग मिला और उनके स्वर्गीय पति का कुली लाइसेंस उनके नाम ट्रांसफर करके बैज नंबर 15 जारी किया गया। मंजू अपने इस निर्णय से गर्वित हैं। उनकी मनोकामना है कि अब अपने बच्चों  को गांव से जयपुर लाकर अपनी मेहनत की कमाई से पढ़ा लिखाकर अच्छा इंसान बनाएंगी। मां की मजदूरी के इस जज्बे को सलाम है। उनकी मनोकामना पूरी हो, ऐसी सच्ची कामना दिल कर रहा है। पर यह कामना क्या एक अच्छी भावना है, क्यांे यही इंसानियत है कि नारी कुली बने, यह मजदूरी ही मजबूरी है, जो कि शर्मनाक है। मंजू के लिए यह गर्व का विषय हो सकता है पर पुरुष वर्ग को इस पर शर्म से डूब मरना चाहिए। मैं कहने के लिए मजबूर हैं कि ‘‘पहले आती थी हर बात पर शर्म, पर अब किसी बात पर नहीं आती।‘‘

इस मुद्दे पर विचार करने के लिए सिनेमा से बड़ा, व्यापक, उपयोगी और कोई मंच नहीं हो सकता। सारे देश की नारियां एक मंच पर आ जाएं, तब भी फिल्मों  से बड़ा मंच मिलने की कल्पना नहीं की जा सकती। विडंबना यह है कि इन पर उथले रूप में ही विचार किया गया है।  जिससे फिल्में बनाने और उसमें काम करने वालों का भला हुआ पर उस नारी का कतई हित नहीं सध सका, जिसकी उसको जरूरत थी, जरूरत है और भविष्य में भी बनी रहेगी। मां का यह भव्य  रूप फिल्मों में जितने आकर्षक और लुभावने रूप में परिलक्षित होता है उसकी दिव्यता का अहसास और कहीं नहीं हो सकता। समाज में हालत इससे बहुत बदतर हैं। समझ लीजिए कि नारी फिर से बंधुआ होने की ओर अग्रसर हो चुकी है। एक तरफ विकास और दूसरी तरफ घोर सत्यानाश। कहीं बिक रही है, कहीं जिस्म बेच रही है, कहीं नचाई जा रही है और कहीं पर वस्तुओं को बेचने के लिए सजाई जा रही है। अब कोई क्या करे, जब नारी की फितरत ही ऐसी हो गई पर इसके लिए जिम्मेदार हम ही हैं। यह सब नारी के लिए सजा ही है। वह बात दीगर है कि इसमें भी मजा लेने की मानसिकता बन चुकी है और उसी से नैतिकता और मानवीय मूल्यों  का बेड़ा गर्क हुआ जा रहा है।

नारी की स्थिति वैसे फिल्मों और समाज में जितने पतन की ओर जा रही है, उस पर सिर्फ विचार करने और लिखने-छपने से कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है। पुरुषों के मुकाबले गिरता-बिगड़ता संतुलन बहुत भयावह स्थिति में पहुंच चुका है। आज देश के कई भागों से नारी के बिकने की खबरें आ रही हैं। नारी के बदतर हालात रोंगटे खड़े करने के लिए काफी हैं। मीडिया और फिल्में  नारी का जो रूप प्रचारित-प्रसारित कर रहा है, वह बाजार से प्रभावित है। इस बहाने ‘धन दे मातरम्’ को सफलता का पैमाना बना कर अमल में लाया जा रहा है।

नारी वस्तुतः करुणा की प्रतिमूर्ति है, ममता की ठंडी छांव है और छांव में आंच लगाने की खबरें जब-तब दिल को बेचैन करती रहती हैं। ऐसी कितनी उपमाएं विसंगतियों से बच नहीं पाई हैं। असली स्थिति से बहुत डर लगता है। उपमाएं मिथ्या  नहीं हैं किंतु उनके बिगड़ते स्वरूप के लिए मूल रूप से पुरुष वर्ग ही अपराधी है, यह भी सच नहीं है। हम सब रोजाना बढ़ती कड़वाहट से रूबरू हो रहे हैं। समाज की रक्षा के सन्नद्ध पुलिस नारी पर डंडे चलाने से, थप्पड़ मारने से बाज नहीं आ रही है।

नारी की बेहतरी के लिए बहुत कुछ करने का जज्बा जब-जब जनमानस में सुलगता है तो यूं प्रतीत होता है कि सारी कायनात इसकी बेहतरी के लिए जुटी हुई है क्योंकि चारों ओर मोमबत्तियों का उजाला चमकने लगता है। सच कहूं कि नारी की सारी दुनिया ही लुटी हुई है। वास्तुविक रूप में फिल्मों में खामी है। अब वह कहां है उसे सब पहचानते भी हैं, पर सब इसके आगे मजबूर हो जाते हैं। वस्तुतः खामी मन में है, मन पर हम विजय प्राप्त नहीं कर सके हैं। भीतर और बाहर का मन इसके लिए जिम्मेदार है। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं, नारी के मन में ऐसा नहीं है, कुछ नारी मन भी विकृति के इस संजाल से ग्रसित हो चुके हैं। नारी के मन में भी बतौर मां अपनी संतानों के प्रति भेदभाव पनपता है, कायम रहता है और वे चाहकर भी इससे मुक्त नहीं रह पाती हैं। इनके कारणों में उनका भोगा हुआ यथार्थ अतीत बनकर सामने खड़ा है, जिसका शमन किया जाना जरूरी है। पर समाज की अन्य बुराइयों की तरह यह बुराई भी समाज से समूचे तौर पर दूर नहीं की जा सकी है। फिल्मों  में इसे विलेनत्व कहा गया है। विलेनत्व सिर्फ पुरुष मन में ही होगा, ऐसा नहीं है वह नारी, किशोर और बालकों के मन पर गंदा गहरा असर डालकर उसे जहरीला बना रहा है। ईर्ष्या, जलन, कुढ़न, प्रतिद्वंद्विता जैसी बुराइयां नारी मन को विद्वेष से भरती जा रही हैं। फिल्मों में इसका चित्रण इस आशय से किया जाता है कि इसे देख, जान और समझ कर समाज में जागरूकता आए जिससे इस प्रकार की बुराइयों का समूल नाश हो सके। पर जिस प्रकार समाज में बुराइयां रच-बस गई हैं, उसी प्रकार अच्छाइयां भी प्रभावी रहती हैं। यह अपनाने वाले पर है कि वह इसे किस नीयत के साथ अपना रहा है या उसके तौर तरीकों और चित्रण के कारण समाज में अच्छाइयों का बढ़ना सपना ही बना रहेगा। सपना जो सच होना चाहिए, पर हर बार नींद टूटने पर फिर वैसी ही वीभत्स सच्चाई के साथ मौजूद मिलता है। 

प्रयास जारी हैं, दूसरी मिसाल सनूजा राजन की है। वे बस कंडक्टवरी से पहले नरेगा में मजदूरी कर चुकी हैं, केरल राज्य राजस्व विभाग में चौथे दर्जे की कर्मचारी होने के बावजूद 30 अप्रैल 13 को प्रसारित बिग सिनर्जी के फिल्मी स्टार सुरेश गोपी द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में एक करोड़ की विजेता के तौर पर कीर्तिमान कायम कर चुकी हैं। इससे आशा बंधती है पर फिर दिल दहलाने वाली खबरें आने लगती हैं और सभी आशाओं के बंध टूट-टूट जाते हैं।

फिल्म एक सशक्त माध्यम है। यह जन को भीतर तक आंदोलित करने में सक्षम है। इसका उपयोग बुराइयों के विनाश में किया जाना चाहिए। नारी की परंपरागत छवि को बेहतर बनाने और समाज में उसे अमली जामा पहनाने के लिए फिल्म माध्यम का जहां भी उपयोग किया गया है, वहां पर बेहतर नतीजे सामने आए हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस अभी दो महीने पहले ही गुजरा है और कई सालों से गुजर रहा है पर उसके सामने नारी बेबस होकर गुजर जाने को मजबूर है।

मां को भगवान का दूसरा रूप माना गया है। मुझे इस पर भी आपत्ति है, पहला रूप मां का होना चाहिए। जो ईश्वर को तलाशना चाहते हैं, वे मां से मिल तो लें। फिल्मों में निरूपा राय और ललिता पवार के अभिनय दो किनारे हैं। इनके मध्य राखी, दुर्गा खोटे, नर्गिस, निरुपमा राय, वहीदा रहमान, रीमा लागू जैसी बेमिसाल अदाकाराएं हैं। फिल्मों की सफलताओं में इन मांओं कायोगदान उल्लेखनीय है, जिन पर विमर्श किया जाता रहा है। दोनों की जरूरत है, बाजार के लिए इनकी अनिवार्यता से गुरेज नहीं किया जा सकता।  पर आज ऐसे किरदार धारावाहिकों में भी अपनी प्रशंसनीय सराहनीय आमद दर्ज करा रहे हैं क्योंकि छोटे परदे पर बुराइयों से कमाई का एक बहुत बड़ा बाजार विकसित हो चुका है। इसके चंगुल से निकलना ‘फिल्म और धारावाहिक बनाने वाले सौदेबाजों’ के लिए संभव नहीं है। बुरा पक्ष दिखाई दे पर उससे निकलने का कोई रास्ता न दिखलाए, वह तो बुराई को अपनाने की ओर ही ढकेलेगा। मन को संतुष्टि तो मिलती है लेकिन शायद ही कोई नारी स्वीेकार करती होगी कि उसमें ऐसे दुर्गुणों का समावेश है क्योंकि अपनी बुराइयां और दूसरों की अच्छाइयां कभी न समझ आती हैं और न दिखाई देती हैं। निरूपा राय के ममतामयी मां स्वरूप को प्रदर्शित करके यह उनकी जगह खुद को महसूस करने लगती है। यह तादात्मय फिल्म माध्यम को मजबूती देने वाला एक लोकप्रिय तत्व है। मानकर चलना चाहिए कि इस प्रकार के सार्थक चिंतन उस आग को जीवंत बनाए रखेंगे जो समाज से कुरुपताओं के समूल नाश के लिए सदा से समाज के लिए जरूरी रहे हैं।



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