विसंगतियों पर प्रहार करते मनमौजी व्यंग्य - व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल की बालेन्‍दु शर्मा दाधीच लिखित समीक्षा प्रभासाक्षी के 22 मई 2013 में

हिन्‍दी ब्‍लॉगरों को फेसबुक की कसम है
अगर वे बिना पढ़े या कमेंट करे बिना खिसक गए ।



पूरी समीक्षा पढ़ने के लिए प्रभासाक्षी  में तथा सुनने के लिए यू ट्यूब में क्लिक करके सुन सकते हैं।

बिना क्लिक किए पढ़ना चाहें तो नीचे पढ़ लीजिए ।


अविनाश वाचस्पति का संकलन 'व्यंग्य का शून्यकाल' दैनिक जीवन की विसंगतियों, विद्रूपताओं और घटनाक्रम पर मनमौजी किस्म की किंतु गहरे अर्थ रखने वाली टिप्पणियों का संग्रह है जो अपनी सरलता और सहजता से प्रभावित करता है। कैसे वे एक रचनाकर्मी की भूमिका से एक सामान्य पाठक की मनःस्थिति में पहुँच जाते हैं और फिर उसी के अंदाज़ में अपने आसपास की दुनिया को 'ऑब्जर्व' करते हैं, इसे देखना-समझना एक दिलचस्प अनुभव है। यह एक अद्भुत प्रयोग है, जिसमें एक से दूसरी बात निकलती चली जाती है और देखते ही देखते पाठक मुद्दे के आगे, पीछे और भीतर तक हो आता है। रचनाकार एक घुमक्कड़ की तरह है जिसे बंधे-बंधाए मार्ग में चलना नीरस लगता है। नवीनता की तलाश में, थोड़ा इधर-उधर अन्वेषण करना उसे अच्छा लगता है और इस प्रक्रिया में वह ऐसे पहलुओं को खोज लाता है, ऐसी अभिव्यक्तियों को जन्म दे देता है जो लीक से हटकर ही संभव है।
इस रचनात्मक 'घुमक्कड़ी' का एक उदाहरण देखिए- "आपको हँसी नहीं आ रही है। वैसे भी व्यंग्य में हँसना मना है। जो हँस गया, समझ लो फँस गया। उसका हास्यास्पद कवियों से भी बुरा हाल होने वाला है। चाल की मत पूछिए, वह तो पहले से ही रुकी हुई है। कोई कोमा नहीं, कोई अल्पविराम नहीं, पूर्ण विराम, मतलब फुल स्टॉप भी नहीं।" हालाँकि वे विनोद ही विनोद में वे कहते हैं कि व्यंग्य में हँसना मना है लेकिन 'व्यंग्य का शून्यकाल' में मौके-बेमौके आपको अर्थपूर्ण हँसी के लिए सहज भाव से प्रेरित अवश्य करते रहते हैं। जैसे, "अंग्रेजी में गाली देने में वो बात ही नहीं है जो हिंदी में सहज ही आती है। फिर भी आप हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर जाने क्यों चिंतित हैं! आपने पुरस्कार बाँटने हैं तो हिंदी में बातचीत करने वालों को एकदम मौके पर पकड़कर पुरस्कृत कर दीजिए, जैसे आप सिगरेट पीने अथवा ट्रैफिक नियम तोड़ने वालों का चालान करते हैं।"
अविनाश वाचस्पति के व्यंग्य एक थीम के साथ अवश्य शुरू होते हैं लेकिन विचारों की उड़ान जब शुरू होती है तो जैसे हवा के साथ बहने सी लगती है। वे अपनी विषय-वस्तु और भाषा दोनों में खास किस्म का प्रवाह बनाए रखने में सफल हुए हैं, जो किसी भी वैचारिक खेमे, साहित्यिक भाषा-शैली या कहने के किसी खास तौर-तरीके के साथ बंधी हुई नहीं है। व्यंग्यकार की प्रतिबद्धता यदि है तो नए दौर के पाठक के प्रति, जो युवा है, तकनीक व नवीनता के प्रति सहज अनुराग रखता है, अपनी बात को बिना लाग-लपेट के कहने में यकीन रखता है। हिंदी व्यंग्य में तकनीके से जुड़े मुद्दों को उठाने का साहस कम लोगों ने किया है। कारण? यह एक खास किस्म की विषय वस्तु है जो लेखक से खास किस्म की जानकारी रखने की अपेक्षा करती है। दूसरे, व्यंग्य जैसी विधा के लिए तकनीक एक 'नीरस' या 'बेजान' किस्म की चीज़ है, जिसमें व्यंग्य की विशेष गुंजाइश नहीं है। इस नीरसता के बावज़ूद उसे चुटीले अंदाज में देखना और पाठक तक अपना मंतव्य पहुँचा देना सिर्फ व्यंग्य विधा में महारत के बल पर संभव नहीं है। उसके लिए रचनाकर्म से इतर भी कुछ दक्षताओं की आवश्यकता है, जिसे 'व्यंग्य का शून्यकाल' सिद्ध करता है।
'कीबोर्ड पर कुत्ते', 'चूहों की बोली', 'खतरनाक खोज', 'कबाड़ से प्यार' जैसे व्यंग्य दिखाते हैं कि एक सफल और तजुर्बेकार ब्लॉगर होने के नाते अविनाश ने तकनीक के साथ तालमेल और अनुभवों का रचनात्मक लाभ उठाया है। यह व्यंग्य के साथ-साथ दूसरी विधाओं में भी रचनाकर्मियों को इस विषय पर लेखन के लिए प्रेरित करेगा। जिस अंदाज में प्रौद्योगिकी हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गई है, उसे देखते हुए साहित्य के लिए उससे दूरी बनाए रखना न तो उचित है और न अधिक समय तक संभव। हालाँकि तकनीक के प्रति अनुराग का यह अर्थ नहीं है कि अविनाश के लेखन में उसकी अधिकता है। संकलन में जीवन के विविध पहलुओं को शामिल किया गया है और तकनीक पर उनकी टिप्पणियाँ संतुलन को प्रभावित नहीं होने देतीं।
विषयों की नवीनता, अभिव्यक्ति की ताजगी और मनमौजी किस्म का साहसिक खुलापन अविनाश वाचस्पति को अन्य व्यंग्यकारों से अलग करता है। यहाँ एक ऐसा लेखक है, जिस पर अपने कहे को 'व्यंग्य' की स्थापित परिपाटियों के दायरे में रखने और अपने चुटीलेपन को सिद्ध करने का दबाव नहीं है। जिसके लेखन में चुटीलापन उसके सहज अनुभवों और स्वाभाविकता से आता है। वैसे ही, जैसे रोजमर्रा की ज़िंदगी में हम मौके-बेमौके बिना विशेष प्रयास किए ऐसी बातें कह जाते हैं जिन्हें सुनकर आसपास सहज ही मुस्कुराहट तैर जाती है। बेहद स्वाभाविक, सबके साथ तालमेल बिठाने वाली, अर्थपूर्ण बातें।
उनतालीस व्यंग्यों के इस संकलन में छोटे बड़े प्रयोग बिखरे पड़े हैं। 'दाल का अरहरापन' को देखिए। इस व्यंग्य में जहाँ महंगी होती दाल को महंगाई के सहज प्रतीक के रूप में देखा गया है, वहीं स्वयं शीर्षक भी कम रुचिकर नहीं। यहाँ भाषा के साथ प्रयोग भी है, विषय की सटीक अभिव्यक्ति भी है और जिज्ञासा पैदा करने की शक्ति भी। शब्दों के साथ इस तरह के रम्य-प्रयोग उन्होंने खूब किए हैं। जैसे, "शास्त्री में स्त्री जुड़ा देखकर इस भ्रम में न पड़ें कि शास्त्री महिला ही हो सकती है।" या फिर य़ह "घी या नहीं, घी हो रही है लौकी।" एक जगह वे लिखते हैं- "लार का काम टपकना होता है सो वो अपना टपकनधर्म निभा रही है।" एक कुख्यात शिक्षिका (खुराना) का जिक्र करती एक टिप्पणी यह देखिए- "एक लेडी खुरा (ना) फ़ाती टीचर ने छात्राओं को देह-व्यापार में ढकेलकर ब्लू फिल्म बनाकर अविस्मरणीय योगदान दिया है।" और लोटे जैसे बरतनों के लुप्तप्राय हो जाने पर यह टिप्पणी कि- "लोटे चाहे लौट गए हैं पर जल की जरूरत बनी हुई है और बनी रहेगी। वह न लौटी है और न कभी लौटेगी।"
अविनाश ने हिंदी के मुहावरों को भी व्यंग्य का खूब माध्यम बनाया है। इस संदर्भ में वे इब्ने इंशा की याद दिलाते हैं जिनके मशहूर व्यंग्य संकलन 'उर्दू की आखिरी क़िताब' में भाषा को लेकर अद्भुत खेल खेला गया है। अविनाश लिखते हैं, अब कोई दो बूंद से गुजारा नहीं कर सकता और न ही चुल्लू भर पानी मिलने पर डूब कर मर ही सकता है। 'यह मुँह और मसूर की दाल' की जगह पर अब 'यह मुँह और अरहर की दाल' लेने ही वाले हैं। 'खरबूजा और नेता जो रंग बदलते हैं उसके अनुमान लगाना जनता सीख गई है।' व्यंग्य का शून्यकाल अपनी टिप्पणियों से आपको अवश्य गुदगुदाएगी और कई सवाल भी उठाएगी। ऐसे सवाल, जो हमारे दैनिक जीवन में प्रकट होते रहते हैं लेकिन जिन पर गहराई से सोचने का उपक्रम प्रायः नहीं होता।
पुस्तकः व्यंग्य का शून्यकाल (व्यंग्य संकलन) (सजिल्द)।
लेखकः अविनाश वाचस्पति।
पृष्ठ: 111।
मूल्य: 180 रुपए।
प्रकाशकः अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली- 110 030।

समयः
 11:05 
  


6 टिप्‍पणियां:

  1. सारगर्भित समीक्षा .अविनाशजी को बधाई

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. व्‍यंग्‍य के शून्‍यकाल के अब नंबर बनना शुरू। धन्‍यवाद निर्मल भाई।

      हटाएं
  2. समीक्षा पढ़ कर ही 'व्यंग्य का शून्यकाल 'को पढ़ने की इच्छा तीव्र हो उठी है ! जब समीक्षा इतनी रोचक है तो पुस्तक कितना रोचक होगी इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है !..:)

    जवाब देंहटाएं
  3. यह समीक्षा आज हमारा मैट्रो राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अख़बार में भी छपी है
    निम्न लिंक पर जाकर अख़बार की वेब साईट के ईपपर पर पृष्ठ संख्या चार पर पढ़ी जा सकती है |
    http://hamarametro.com/epaper/pdf/23_5.pdf

    जवाब देंहटाएं
  4. बतलाने के लिए पुस्तक आपका आभार प्रकट कर रही हैरतन भाई

    जवाब देंहटाएं

आपके आने के लिए धन्यवाद
लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद

 
Copyright (c) 2009-2012. नुक्कड़ All Rights Reserved | Managed by: Shah Nawaz