नायक नहीं खलनायक हूं मैं




खल खलता तो बहुत है पर नकारात्‍मकता को सकारात्‍मकता से लबालब करने का प्रवाह कलाकारों में मिलता है। यह आज के तकनीकी युग में नहीं बल्कि बिना उन्‍नत तकनीक के मन को भला लग रहा है। खलनायकी की वह जंग जो दर्शक के मन में किरदार के प्रति गहरा आक्रोश भर दे, आपको गुस्‍से से भरपूर रंग दे। जब आपके सामने किरदार अभिनीत करने वाला कलाकार रूबरू हो और आप उस पर अपशब्‍दों की बौछार कर दें, मन में सुलग रही आंच भड़क उठे तो यह बुरा नहीं, अभिनेता को सुकून से भर देता है। ऐसे बेशकीमती पल अतीत में कई कलाकारों के नाम रहे हैं। फिल्‍मों में निभाए गए ललिता पवार के सास के किरदार को आप भूले नहीं होंगे, जब परदे पर उनके दिखाई देते ही मन में उनके मतलब उनकी अदाकारी के प्रति घृणा का भाव हिलोंरे लेने लगता था। इसमें घृणा ही सफलता है। खल ही दखल है। दखल ऐसा जो मन को रोमांचित कर दे। नाम सबको पसंद आते हैं पर जिनकी खलनायकी पसंद आए, मन तरंगित हो उठे। ऐसे अनेक कलाकार प्राण को दादा साहेब फाल्‍के पुरस्‍कार से सम्‍मानित करने के बाद जहन में उभरने लगे हैं। अमरीश पुरी, गुलशन ग्रोवर, मदन पुरी, जिनके देखे और शिद्दत से निभाए गए चरित्रों को भला कोई दर्शक भूल सकता है और यह न भूलना ही आज राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार के तौर पर सामने है। खलनायकी के लिए सम्‍मानित होना और फिर सबकी सहमति मिलना – दो विपरीत ध्रुव हैं और संभव तो नहीं दिखते पर आपके सामने जीवंत हो उठे हैं। फिर आज इससे हम हतप्रभ नहीं, पूरी तरह सहमत हैं।
नायक अच्‍छे कर्मों का साकार संसार, सब जिसमें रूपायित होते हुए परदे पर देखते हैं। खलनायक जिसे देखना तो दूर जिसकी उपस्थिति भी परेशानी का सबब बनने लगती है और फिर वही सर्वोत्‍तम कहलवाए, ऐसा ही हुआ है। आप जिसके अभिनीत किरदारों को अपशब्‍द कहते हैं, वह दरअसल सम्‍मान है, सफलता है और मालूम होता है कि उसके लिए सम्‍मान मिल रहा है और आप खुश हो उठते हैं, क्‍या नाम देंगे इसे आप मजबूर हो जाएंगे कहने के लिए कि ‘नायक नहीं खलनायक है तू, फिर भी फलदायक है तू’ और कर्म कभी निष्‍फल नहीं जाता। यह विधाता का रचा सनातन नियम है, इसे आज मन की खुशी के साथ महसूस किया जा रहा है।
प्राण यानी जीवंतता और वही साकार हुई है प्राण में, जिंदगी में, जिंदगी असल मायने में प्राण ही है। प्राण को जब पंख लग जाएं तो उन उड़ानों को भला कोई रोक सका है और रोकना चाहेगा भी नहीं। यही कलाकार की अद्भुत कारीगरी है जो कलाकार को पसंदीदा बनाती है। गुण अवगुण की सीमाओं से परे जाकर जब अवगुणों का परदे पर साकार होना भाने लगे, लुभाने लगे तब समझ लें कि इससे अधिक खुशी का क्षण सच्‍चे कलाकार के जीवन में कोई और हो ही नहीं सकता। ऐसे ही आनंददायक पलों के लिए कहा गया है  कि ‘न उम्र की सीमा हो, न प्‍यार का हो बंधन, जब प्‍यार करे कोई, झूम उठे पागलमन’। पागलमन को पागलपन पढ़ने में और भी अधिक मजा आने लगता है। प्राण साहब को दादा साहेब फाल्‍के सम्‍मान से सम्‍मानित किया जाना प्‍यार करे मन वाला ही दिलकश मामला है।
मन जो सोशल मीडिया के सर्वाधिक सक्रिय फेसबुक की आत्‍मा है, कह रहा है ‘जो मन में है उंडेल दो’। बुरा है, अच्‍छा है या झूठा है, सच्‍चा है – इस मंच पर सब लगता अच्‍छा है क्‍योंकि इसके साथ जुड़ी भावना पवित्र पावन है, गंगा मैया की सलिल जलधार है। सबकी भलाई की चाहना है, कहीं बुराई की शिकन तक नहीं, तनाव की लकीर नहीं, लकीर का फकीरपना नहीं, यह वह लकीरें हैं जो मन को वैचारिक तौर पर धनवान बना देती हैं, समृद्ध करती चलती हैं। शिखर पर पहुंचाती हैं जिससे खलने वाला भाव तिरोहित हो, रमने वाला भाव पूरी ताकत के साथ प्रभावी हो जाता है।
प्राण शरीर की वह ताकत है जो जीवन को सक्रिय रखती है। जो नायक में जिस जीवंतता के साथ नजर आती है, वह उससे कई गुनी अधिक ताकत के साथ खलनायक भी पहचानी गई है। प्राण जीवन का आधार है, वही जीने का, अदाकारी का मजबूत संबल है। फिर प्‍यार करे हर मन। आज हर मन प्राण को पहले से अधिक प्‍यार कर रहा है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्राण साहब को दादा साहेब फाल्‍के सम्‍मान से सम्‍मानित किया जाना प्‍यार करे मन वाला ही दिलकश मामला है....बहुत बढ़िया प्रस्तुति ...

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