फेसबुकिया 'जन्मदिन' से अविनाश वाचस्पति की लिखचीत (chat)

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  • फेसबुकिया ‘जन्‍मदिन’ से मुन्‍नाभाई की लिखचीत (चैटिंग)

    जन्‍मदिन’ मेरा ऑनलाईन था जबकि मैं स्‍वयं सदा की तरह ऑफलाईन। लेकिन वो जन्‍मदिन’ ही क्‍या जो तलाश’ न सके। मैं फेसबुक’ पर मौजूद था किंतु प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष रूप में। एकाएक मेरे संदेश बॉक्‍स में किसी की उपस्थिति दर्ज हुई। जन्‍मदिन है,चाहे समय रात के बारह बजे का ही था। मेरे जन्‍मदिन ने मुझे शुभकामनाएं दी थीमैंने तुरंत संदेश के प्रत्‍युत्‍तर में धन्‍यवाद’ लिखकर भेजा। अब उधर से संदेश आया हा हा हा lol’ 

    मैं : इस हंसने का कारण ?

    जन्‍मदिन : जिंदगी से प्‍यार करने वाले इंसान तेरी जिंदगी का प्रत्‍येक पल लगातार कम हो रहा है और तू शुभकामनाओं को शुभ की तरह ले रहा है। चल मरने के लिए तैयार हो जा।

    मैं : मतलबजन्‍मदिन है, आज शुभकामनाओं पर तो अधिकार है मेरा, 364 दिन की तपस्‍या के बाद शुभकामनाएं लिए यह दिन आता है इसलिए इसे खुशी की तरह ही लूंगासब लेते हैं। वैसे भी इसमें दुखी होने की कौन सी बात है, आज फेसबुक के कारण हजारों की संख्‍या में शुभकामनाएं मिल जाती हैं, लाखों में न सही और तुम मेरे मरने की कामनाएं कर रहे हो।

    जन्‍मदिन : क्‍या यह सच्‍ची शुभकामनाएं हैं, जिंदगी का साल रीत रहा है, सब कुछ पल पल बीत रहा है, तुझे लग रहा है तू जग को जीत रहा है।

    मैं : सच्‍ची ही हैं और क्‍या, यही तो जीवन का गीत है, इन्‍हीं शुभकामनाओं से तो मानव करता प्रीत है।

    जन्‍मदिन : सच्‍ची नहीं हैंसच्‍चाई तो कड़वी है और वह यह कि आज तेरी जिंदगी से एक बरस और कम हो गया है। तू मौत के और पास पहुंच गया है। वैसे एक बात बतला कि तू जिंदा रहना चाहता है या मरना ?

    मैं : मरना तो कोई नहीं चाहता हैएक चींटी या मच्‍छर को भी अपने प्राणों से मोह होता हैसो मुझे भी है।

    जन्मदिन : फिर जन्‍मदिन से खुश क्‍यों हो रहा हैअधेड़ प्राणी ( मेरे 54 बरस का होने पर मुझ पर तंज कसा गया था)

    मैं : (सोचने लगा, बात तो सोलह फीसदी सही है। सब जीना चाहते हैं फिर मौत के पास जाते हुए भी अनजाने में इतना खुश हो रहे हैं)

    जन्‍मदिन : क्‍या हुआक्‍या सोचने लगा ?

    मैं : (मरी हुई आवाज मेंमेरे शब्‍द गले में अटक रहे थेऊंगलियां कीबोर्ड पर चलने में विद्रोह करने के मूड में आ गई थींयह भी कह सकते हैं कि वह भी डर गई थीं क्‍योंकि मेरा मरना मेरी देह के प्रत्‍येक अंग-प्रत्‍यंग का मरना यानी निष्‍प्राण होना था। मेरी ऊंगलियों के हाथ-पांव फूल गए थे। मेरी दशा ऐसी हो गई कि काटो तो खून न निकलेदिसम्‍बर की कड़ाके की सर्दी में भी मैं पसीना-पसीना हो गया था। मेरी ऊंगलियों के माथे पर भी पसीने की बूंदे उभर आई थीं। मैं कुछ नहीं लिख पाया)

    जन्‍मदिन : खिलखिला रहा था क्‍यों डर गया ?

    मैं : (सचमुच डर गया थामुझे स्‍वीकारना ही पड़ा) यस।

    जन्‍मदिन : जब यह सनातन सच्‍चाई है तो फिर इंसान क्‍यों नोटों के लालच में दीवाना हुआ जा रहा है। हर तरह से नोट जमा कर रहा है। अपनी मौत की ओर बढ़ती गति को खुश होकर जी रहा है।

    मैं : लेकिन यह इंसान के हाथ में तो नहीं है ?

    जन्‍मदिन : फिर जन्‍मदिन न मनाना तो इंसान के हाथ में ही है। इसे मनाना तो तू छोड़ दे।

    मैं : लेकिन मेरे अकेले के छोड़ने से क्‍या होगा ?

    जन्‍मदिन : समाज में जितनी भी क्रांतियां आई हैं या आती हैंवे सिर्फ एक अकेले की सोच और संघर्ष का प्रतिफल होती हैं। तू शुरूआत तो कर।

    मैं : मुझे कौन जानता है और कोई मेरी बातों को क्‍यों मानेगामैं कोई बहुत बड़ा नेता नहीं हूंसत्‍ता में किसी शीर्ष पद पर विद्यमान नहीं हूं। मंत्री नहीं हूंराष्‍ट्रपति नहीं हूंसेलीब्रिटी नहीं हूंकोई बहुत बड़ा साहित्‍यकार नहीं हूंहांएक छोटा सा कवि, अदना सा व्‍यंग्‍य लेखक और कमजोर  हिंदी का मजबूत ब्‍लॉगर  जरूर हूं और जितना लिख लेता हूं उसमें से 15 या 20 परसेंट छप जाता है। मैं बाल ठाकरे नहीं हूंपोंटी चड्ढा नहीं हूं और तो और किसी मंत्री का निजी सचिव भी नहीं हूं। मैं असीम त्रिवेदी भी नहीं हूं और उन दो कन्‍याओं में से भी नहीं हूं जिन्‍हें फेसबुक पर टिप्‍पणी करने और लाइक करने के आरोप में हिरासत में ले लिया गया था। आखिर मेरी हैसियत है क्‍या ?

    जन्‍मदिन : इनमें से कोई न सहीकिंतु एक आम आदमी तो है ही तू।

    मैं : आम आदमी’ पर भी अब केजरीवाल का पेटेंट हो चुका है। क्‍या बचा हूं मैंसिर्फ एक वोटरजिसके बैंक खाते में अब सरकार सीधे सब्सिडी का पैसा डालेगी और वोट हथिया लेगी। जबकि मैं यह सच भी जानता हूं कि मेरा कोई बैंक खाता नहीं है और अब तो आसानी से खुलने वाला भी नहीं है। (मेरी बातों के जाल में जन्‍मदिन’ पूरी तरह उलझ गया था। मेरे संदेश बॉक्‍स में जन्‍मदिन की ओर से अब एक अंतिम संदेश आया कि मुझे अभी 14 दिसम्‍बर के दिन पैदा हुए बहुत सारे प्राणवानों को शुभकामनाएं देनी हैंमैं चलता हूं।)

    तभी मेरी नींद खुल गई।  मेरी धर्मपत्‍नी मुझे जगाकर बहुत प्‍यार से जन्‍मदिन के लिए विश’ कर रही थी क्‍योंकि मैं लैपटॉप को गोद में लिए लिए हुए झपकी ले रहा था। सामने घड़ी में समय देखा 12 बजकर 5 मिनिट हुए थे।  मैंने पत्‍नी को अपने आगोश में ले लिया और इस फेसबुकिया’ दु:स्‍वप्‍न को भूलने की चेष्‍टा करने लगा। अब तक मेरी टाइमलाईन पर शुभकामनाओं की लाईन लग चुकी थी। एकाएक अहसास हुआ मात्र 5 मिनिट में इतनी बड़ी कहानी।

    इस लिखचीत से यह सीख मिलती है कि सपने की गति काफी तीव्र होने का आधार सबसे पुख्‍ता है।  

    3 टिप्‍पणियां:

    1. खाता खोलबा लिजिए साहेब, सरकार भी शुभकामनाऐं देगी.....
      और आम आदमी पर केजरीबाल का कब्जा..करारा।

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    2. सच है अब तो आम आदमी भी अपने आपको नहीं कह सकते। लगता है जीवन ही व्‍यर्थ हुआ जा रहा है। दुनिया मं सभी का सम्‍मान पहले भी नहीं था लेकिन परिवार में तो था, अब तो परिवार भी समाप्‍त और सम्‍मान तो दूर की कौड़ी है। इसलिए जीकर क्‍या करें? यह प्रश्‍न शाश्‍वत सा लगने लगा है। फिर भी फेसबुक से निकलकर यहाँ ब्‍लाग पर भी जन्‍मदिन की शुभकामनाएं। हमने जन्‍म लिया था, बस इसीलिए जन्‍मदिन मना लेते हैं।

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