मंगलवार, 3 जुलाई 2012
विनम्र श्रद्धांजलि: दिनेश सिंह नहीं रहे
कल शाम (२ जुलाई) प्रबुद्ध नवगीतकार एवं नये-पुराने पत्रिका के यशश्वी सम्पादक दिनेश सिंह का निधन उनके पैतृक गाँव गौरारूपई में हो गया। जब यह दुखद समाचार कौशलेन्द्र जी ने दिया तो मेरा ह्रदय काँप उठा। यद्यपि वे लम्बे समय से अस्वस्थ चल रहे थे- वे न तो बोल सकते थे न ही ठीक से चल-फिर सकते थे, फिर भी अभी उनके जीवित रहने की उम्मीद हम सभी को थी। किन्तु होनी को कौन टाल सकता है... आज उनकी कमी उनके सभी चाहने वालों को खल रही है। १४ सितम्बर १९४७ को रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव गौरारुपई में जन्मे दिनेश सिंह का नाम हिंदी साहित्य जगत में बड़े अदब से लिया जाता है। सही मायने में कविता का जीवन जीने वाला यह गीत कवि अपनी निजी जिन्दगी में मिलनसार एवं सादगी पसंद रहा। गीत-नवगीत साहित्य में इनके योगदान को एतिहासिक माना जाता है । दिनेश जी ने न केवल तत्कालीन गाँव-समाज को देखा-समझा और जाना-पहचाना था उसमें हो रहे आमूल-चूल परिवर्तनों को, बल्कि इन्होने अपनी संस्कृति में रचे-बसे भारतीय समाज के लोगों की भिन्न-भिन्न मनःस्थिति को भी बखूबी परखा, जिसकी झलक इनके गीतों में पूरी लयात्मकता के साथ दिखाई पड़ती है। इनके प्रेम गीत प्रेम और प्रकृति को कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करते हैं । आपके प्रणयधर्मी गीत भावनात्मक जीवनबोध के साथ-साथ आधुनिक जीवनबोध को भी केंद्र में रखकर बदली हुईं प्रणयी भंगिमाओं को गीतायित करने का प्रयत्न करते हैं । अज्ञेय द्वारा संपादित 'नया प्रतीक' में आपकी पहली कविता प्रकाशित हुई थी। 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' तथा देश की लगभग सभी बड़ी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत तथा छन्दमुक्त कविताएं, रिपोर्ताज, ललित निबंध तथा समीक्षाएं प्रकाशित। 'नवगीत दशक' तथा 'नवगीत अर्द्धशती' के नवगीतकार तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत कविता संकलनों में गीत तथा कविताएं प्रकाशित। 'पूर्वाभास', 'समर करते हुए', 'टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर', 'मैं फिर से गाऊँगा' आदि आपके नवगीत संग्रह प्रकाशित। आपके द्वारा रचित 'गोपी शतक', 'नेत्र शतक' (सवैया छंद), 'परित्यक्ता' (शकुन्तला-दुष्यंत की पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ देकर मुक्तछंद की महान काव्य रचना) चार नवगीत-संग्रह तथा छंदमुक्त कविताओं के संग्रह तथा एक गीत और कविता से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह आदि प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। चर्चित व स्थापित कविता पत्रिका 'नये-पुराने'(अनियतकालीन) के माध्यम से गीत पर किये गये इनके कार्य को अकादमिक स्तर पर स्वीकार किया गया है । स्व. कन्हैया लाल नंदन जी लिखते हैं- " बीती शताब्दी के अंतिम दिनों में तिलोई (रायबरेली) से दिनेश सिंह के संपादन में निकलने वाले गीत संचयन 'नये-पुराने' ने गीत के सन्दर्भ में जो सामग्री अपने अब तक के छह अंकों में दी है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं रही . गीत के सर्वांगीण विवेचन का जितना संतुलित प्रयास 'नये-पुराने' में हुआ है, वह गीत के शोध को एक नई दिशा प्रदान करता है. गीत के अद्यतन रूप में हो रही रचनात्मकता की बानगी भी 'नये-पुराने' में है और गीत, खासकर नवगीत में फैलती जा रही असंयत दुरूहता की मलामत भी. दिनेश सिंह स्वयं न केवल एक समर्थ नवगीत हस्ताक्षर हैं, बल्कि गीत विधा के गहरे समीक्षक भी।" नवगीत के इस महान शिल्पी को विनम्र श्रद्धांजलि।
रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई।
तुम जैसे गये वैसे तो जाता नहीं कोई।।
दिनेश सिंह के दो नवगीत:
1. लो वही हुआ
लो वही हुआ जिसका था ड़र
ना रही नदी, ना रही लहर।
ना रही नदी, ना रही लहर।
सूरज की किरन दहाड़ गई
गरमी हर देह उघाड़ गई
उठ गया बवंड़र, धूल हवा में
अपना झंडा़ गाड़ गई
गौरइया हाँफ रही ड़र कर
ना रही नदी, ना रही लहर।
हर ओर उमस के चर्चे हैं
बिजली पंखों के खर्चे हैं
बूढे महुए के हाथों से,
उड़ रहे हवा में पर्चे हैं
"चलना साथी लू से बचकर"
ना रही नदी, ना रही लहर।
संकल्प हिमालय सा गलता
सारा दिन भट्ठी सा जलता
मन भरे हुए, सब ड़रे हुए
किस की हिम्मत बाहर हिलता
है खडा़ सूर्य सर के ऊपर
ना रही नदी, ना रही लहर।
बोझिल रातों के मध्य पहर
छपरी से चन्द्रकिरण छनकर
लिख रही नया नारा कोई
इन तपी हुई दीवारों पर
क्या बाँचूँ सब थोथे आखर
ना रही नदी, ना रही लहर।
2. रण में बसर करते हुए
व्यूह से तो निकलना ही है
समर करते हुए
रण में बसर करते हुए ।
गरमी हर देह उघाड़ गई
उठ गया बवंड़र, धूल हवा में
अपना झंडा़ गाड़ गई
गौरइया हाँफ रही ड़र कर
ना रही नदी, ना रही लहर।
हर ओर उमस के चर्चे हैं
बिजली पंखों के खर्चे हैं
बूढे महुए के हाथों से,
उड़ रहे हवा में पर्चे हैं
"चलना साथी लू से बचकर"
ना रही नदी, ना रही लहर।
संकल्प हिमालय सा गलता
सारा दिन भट्ठी सा जलता
मन भरे हुए, सब ड़रे हुए
किस की हिम्मत बाहर हिलता
है खडा़ सूर्य सर के ऊपर
ना रही नदी, ना रही लहर।
बोझिल रातों के मध्य पहर
छपरी से चन्द्रकिरण छनकर
लिख रही नया नारा कोई
इन तपी हुई दीवारों पर
क्या बाँचूँ सब थोथे आखर
ना रही नदी, ना रही लहर।
2. रण में बसर करते हुए
व्यूह से तो निकलना ही है
समर करते हुए
रण में बसर करते हुए ।
हाथ की तलवार में
बाँधे क़लम
लोहित सियाही
सियासत की चाल चलते
बुद्धि कौशल के सिपाही
बाँधे क़लम
लोहित सियाही
सियासत की चाल चलते
बुद्धि कौशल के सिपाही
ज़हर-सा चढ़ते गढ़े जज़्बे
असर करते हुए
रण में बसर करते हुए ।
बदल कर पाले
घिनाते सब
उधर के प्यार पर
अकीदे की आँख टिकती
जब नए सरदार पर
असर करते हुए
रण में बसर करते हुए ।
बदल कर पाले
घिनाते सब
उधर के प्यार पर
अकीदे की आँख टिकती
जब नए सरदार पर
कसर रखकर निभाते
आबाद घर करते हुए
रण में बसर करते हुए ।
धार अपनी माँज कर
बारीक करना
तार-सा
निकल जाना है
सुई की नोक के उस पार सा
ज़िन्दगी जी जाएगी
इतना सफ़र करते हुए
आबाद घर करते हुए
रण में बसर करते हुए ।
धार अपनी माँज कर
बारीक करना
तार-सा
निकल जाना है
सुई की नोक के उस पार सा
ज़िन्दगी जी जाएगी
इतना सफ़र करते हुए
रण में बसर करते हुए ।
पूर्वाभास से अवनीश सिंह चौहान की पोस्ट ब्लॉगहित में साभार। नुक्कड़ समूह दिनेश सिंह जी के प्रति आदरांजलि अर्पित करता है।
हार्दिक श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंदिनेश जी हमारे ही इलाके के थे और उन्हें मैं उनके जाने के बाद जान पा रहा हूँ,इसमें मेरी ही गलती है.उनके नवगीत वास्तव में बहुत अच्छे हैं !
सादर नमन |
जवाब देंहटाएंआज चर्चा मंच पर भी चर्चा है ||
विनम्र श्रद्धांजलि ...!
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