अभी मात्र आधा घंटे पहले 6 बजे के लगभग मेरे मोबाइल नंबर पर आया और शुक्रवार पत्रिका के 25 से 31 मई 2012 अंक में प्रकाशित मेरी रचना 'काले-काले रसीले कार्टून' में प्रकाशित विचारों की तारीफ की गई। मैंने उनका शुक्रिया अदा करते हुए जानना चाहा कि आप कौन हैं और कहां से बात कर रही हैं, सच मानिए उनका जवाब सुनकर मैं विस्मित रह गया जब उन्होंने कहा कि मैं मुंबई से प्रकाशवती विद्यार्थी बोल रही हैं और आजकल कानपुर से अपनी बेटी के पास आई हुई हूं, मेरी उम्र 95 वर्ष है। और जब उन्होंने कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम लिया तो मैं दंग रह गया। मैंने उन्हें बतलाया कि शायद ही कोई हिंदी साहित्य और पत्रकारिता से जुड़ा हो और जो विद्यार्थी जी के बारे में नहीं जानता हो। उन्होंने बतलाया कि यहां पर लखनऊ से 'शुक्रवार' मंगाते हैं क्योंकि यहां पर मिलता नहीं है। उसी में अभी जब आपकी रचना पढ़ी तो वाचस्पति साहब आपको फोन करने से रोक नहीं पाई। मैं भाव विह्वल हो उठा और कहा कि मैं तो आपके पुत्र-तुल्य हूं तथा उन्हें मन से प्रणाम किया और आशीर्वाद प्राप्त किया।
इससे पहले भी श्री विनोद कुमार अग्रवाल, 75 वर्षीय एक पाठक का 'शुक्रवार' में प्रकाशित रचना को पसंद करने का फोन मेरे पास आया था । इसके अतिरिक्त बदायूं, बलरामपुर, प्रतापगढ़, इलाहाबाद, मेरठ, दिल्ली इत्यादि कई स्थानों से जिन कई पाठकों के सराहना फोन आए हैं, इनमें कई अध्यापक भी हैं।
आज संचार माध्यम के इतना सहज और सस्ता होने का लाभ उन पाठकों को अवश्य हुआ है जिनके फोन रचनाओं के साथ अखबार व पत्रिकाएं प्रकाशित कर रही हैं और उन पर तुरंत प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। लेखकों को मिलने वाले पारिश्रमिक में चाहे बढ़ोतरी न हुई हो, कई प्रकाशन संस्थानों की नीति ही नहीं होती है कि लेखकों को उनकी रचना पर पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए। लेकिन क्या वे पाठकों से मिल रहे इस प्रकार के पारिश्रमिक के मिलने पर रोक लगा पाएंगे क्योंकि रचनाएं उन संपादकों/प्रकाशकों को पसंद आती हैं, तभी वे प्रकाशित करते हैं।
इस प्रकार लेखकों को मानराशि नहीं लेकिन पाठकों से मान-सम्मान तो मिल रहा है और इससे लेखकों का पाठकों के प्रति उत्तरदायित्व बढ़ गया है जो कि समाज के लिए निश्चित तौर पर हितकर है। 'शुक्रवार' में प्रकाशित उल्लखित रचना और अन्य मेरी प्रकाशित रचनाओं का लिंक यहां पर दे रहा हूं जिससे जिज्ञासु पाठक रचनाओं को लगातार पढ़ सकें। वे भी जिनके पास सभी अखबार और पत्रिकाएं नहीं पहुंचती हैं।
बढ़िया व्यंग्य है। बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंअब कैसे सफाई दूं कि यह व्यंग्य नहीं है, आप मेरे से माननीया प्रकाशवती जी का नंबर लेकर बात कर सकते हैं।
हटाएंunhone patrika me chhape huye ko hi vyangya kaha hai.
हटाएंधन्यवाद संतोष जी...कल से अपनी बुद्धि पर सशंकित था।:)
हटाएंइनके साथ रहो तो ऎसा हो जाना कोइ नयी बात नहीं है । हमे तो अपने पास बुद्धी नहीं है का पता इनकी संगति से ही पता चल पाया।
हटाएंआपसे नम्बर लेकर मैंने भी उनसे बात करी है.आप तो धन्य हुए ,मैं भी हो गया !
जवाब देंहटाएंबातचीत का विवरण पेश कीजिए संतोष भाई
हटाएंअरे वाह अविनाश भाई!!!!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शाहनवाज जी
हटाएंशुभकामनाएं ||
जवाब देंहटाएंशुभकामनाओं के लिए आभार रविकर भाई
हटाएंबढ़िया व्यंग्य है
जवाब देंहटाएं