लोग ख्याति से क्यों इतना जलते हैं
अपने कदम उनसे जरा न संभलते हैं
करते-कहते हैं उल्टा सीधा उटपटांग
बतलाते हैं सामने वाले को ही रांग
जंग करते हैं वह बिना पिए भंग
फिर भी कलुषित ही बहते हैं रंग
रहते हैं संग उनके फिर भी अच्छे नहीं ढंग
मन में उठती है विकृत विचारों की तरंग
बाबा पर करते हैं शक बे-वजह आंख मूंद
बाबा से लिपटते हैं देकर धन जैसे फफूंद
करते हैं सच में पैदा इतनी कलह
मन में शांति के लिए रहे न जगह
चढ़ना चाहते हैं कूद कूद कर सीढ़ी
बने साहित्यकार उनकी अगली पीढ़ी
संदेश ब्लॉगवासियों के लिए : याद रहे ऊपर ले जाने वाली सीढ़ी नीचे भी लाती है।
बाबा पर करते हैं शक बे-वजह आंख मूंद
जवाब देंहटाएंबाबा से लिपटते हैं देकर धन जैसे फफूंद
करते हैं सच में पैदा इतनी कलह
मन में शांति के लिए रहे न जगह
..haalat hi kuch aise nazar aate hai aajkal..
sateek samyik prastuti..
ई वाली कविता भी बड़ी बोल्ड है,सीढी की चढ़ाई और 'बोल्ड' !
जवाब देंहटाएंअरे आपने कविता ही बनाई है ये:)
जवाब देंहटाएंआज 15/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक की गया हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
करते-कहते हैं उल्टा सीधा उटपटांग
जवाब देंहटाएंबतलाते हैं सामने वाले को ही रांग
इसी को कहते है समझदारी :)
जोरदार रचना...
जवाब देंहटाएंसादर।
यह टिप्पडी भी तो बिना अर्थ समझे ही कर रहा हूँ
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
आदरणीय अविनाशजी,
जवाब देंहटाएंफ़ोन पर आज ही आपसे बात कर मुझे बहुत अच्छा लगा। नुक्कड में शामिल होने का निमंत्रण का ई मेल भी मिल गया है।
मुझे आपसे परामर्श चाहिये। मेरे सभी चिकित्सा आलेख अर्जुनलाल जाट नामक व्यक्ति ने अपने नाम से अपने ब्लाग पर डाल दिये हैं। इन्टरनेट के कानून कायदे के अनुसार मैं इस विषय में क्या कर सकता हूं? परामर्श देने की कृपा करेंगे।