नेता और जन आक्रोश

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  • राजीव गुप्ता
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  • जब खाने-पीने की चीजों के दामों में आग लग जाय और रसोई के चूल्हे की आग गैस सिलेंडर महंगा होने से बुझ जाय , सरकार के मंत्री के घोटालो के चलते पूरी सरकार भ्रष्टाचार में डूबी हो , विदेशों में जामा काले धन को स्वदेश में लाने के लिए सरकार टालमटोल का रवैया अपनाये तो ऐसा में जनता में आक्रोश होना लाजमी है ! अगर सरकार अब भी न चेती तो कही हालात नियंत्रण से बाहर न हो जाय जिसका आगाज़ एक शख्स  ने वर्तमान कृषि मंत्री शरद पावर जी पर थप्पड़ मार कर अपने आक्रोश का इजहार तो कर दिया जो कि बहुत ही निंदनीय है परन्तु सरकार को अब जागना ही होगा अन्यथा कही ये हालात और भड़क कर बेकाबू न हो जाय !   

    फ़्रांस की 1756 की क्रांति का इतिहास साक्षी है , जो कि कोई सुनियोजित न होकर जनता के आक्रोश का परिणाम थी !  जब जनता किंग लुईस के शासन में महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान होकर सडको पर उतरी और तो पूरे राजघराने को ही मौत के घाट उतारते हुए अपने साथियों को ब्रूस्सील ( Brusseel ) जेल को तोड़कर बाहर निकाल कर क्रांति  की शुरुआत की ! परिणामतः वहां  लोकतंत्र  के साथ - साथ  तीन नए शब्द  Liberty , Equality ,  Fraternity  अस्तित्व में आये ! वास्तव में उस समय राजघराने का जनता की तकलीफों से कोई सरोकार नहीं था ! इसका अंदाजा हम उस समय की महारानी मेरिया एंटोनियो के उस वक्तव्य से लगा सकते है जिसमे उन्होंने भूखमरी और महंगाई से बेहाल जनता से कहा था कि " अगर ब्रेड नहीं मिल रही तो केक क्यों नहीं खाते ! "

    ऐसी ही एक और क्रांति सोवियत संघ में भी हुई थी ! जिसका परिणाम वहां की जारशाही का अंत के रूप में हुआ था ! कारण लगभग वहां भी वही थे जो कि फ़्रांस में थे जैसे खाने-पीने की वस्तुओं का आकाल , भ्रष्टाचार में डूबी सत्ता और सत्ता के द्वारा जनता के अधिकारों का दमन ! सोवियत संघ में लोकतंत्र तो नहीं आया परन्तु वहां कम्युनिस्टों  की सरकार बनीं !

    जब अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर हो , मंहगाई के साथ - साथ बेरोजगारी दिन - प्रतिदिन बढ़ रही  आगे पढने के लिए क्लिक करें 

     
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