यंग इंडिया, नवजीवन में महात्मा गांधी के संपादकीय और लेख पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों से जो़ड़ने की पुष्टि करते हैं। हरिजन, हरिजन सेवक और हरिजन बंधु में व्यक्त किए गए गांधी जी के विचार समाज के कमजोर तबके तक के उनके चिंतन की व्यापकता को दर्शाते ही नहीं, उनकी सार्थकता भी सिद्ध करते हैं। गांधी जी विरचित अन्य रचनाओं में भी गांधीजी ने इन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर अपने उपयोगी विचार जाहिर किए हैं।
आज डॉक्टर (चाहे फर्जी ही सही) आजाद हैं – मरीजों की जेब काटने और उन्हें जान से मारने के लिए। इससे सरकार की उन नीतियों को भी समर्थन मिलता है जिनमें कहा जाता है कि परिवार नियोजन करना चाहिए, क्योंकि जनसंख्या बढ़ रही है। नियोजन बन गया है डॉक्टरों द्वारा पैसे का संयोजन। लूट पर टैक्स देने जैसी कोई नीति नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए परंतु लूट तो बंद होनी चाहिए। इससे सरकारी नीतियों के अधकचरी होने पर जनता में रोष है और सरकार टैक्स का नुकसान भी उठा रही है लेकिन आज की पत्रकारिता इन स्थितियों के सुधार के लिए प्रयास ही नहीं कर रही अपितु उनका प्रचार और प्रसार करके सहयोगी बन रही है। डॉक्टरों की संपत्ति की जांच की जाए तो जरूर अरबों की राशि निकलेगी। फर्जी डॉक्टर और अन्य व्यवसाय किसी आतंकवादी गतिविधि से कम नहीं हैं लेकिन सरकार उनसे इस तरह से नहीं निबट रही है क्योंकि वो आतंकवाद से भी नहीं निबट पा रही है। वर्तमान पत्रकारिता को इस और ऐसी अनेक बुराईयों से कारगर तरीके से निबटने के लिए जोरदार कदम उठाने की जरूरत है। जो कि गांधी जी की पत्रकारिता के मूल्यों का समाजहित में अनुसरण करना ही होगा।
अगर आज गांधी जी होते तो अवश्य ही इस बारे में मुहिम चलाते या अनशन करते। यह कार्य करने की कमान अब जनता के हित के लिए पत्रकारों को संभाल लेनी चाहिए। अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के निदान के लिए शुरू की गई मुहिम अन्य बुराईयों के समाज से निवारण के लिए समाजसेवियों द्वारा अवश्य चलाई जाएगी, ऐसी आशा की जा सकती है।
गांधी जी के समय की पत्रकारिता सत्य और सामाजिक सरोकारों तथा निर्बल को बल प्रदान कराने की पत्रकारिता थी। जबकि आज की पत्रकारिता को झूठ की पत्रकारिता कहने में भी संकोच नहीं होता। झूठ के साथ ही यह नोट की पत्रकारिता बन चुकी है। नोट मतलब सुविधा और आज पत्रकारिता के जरिए सुविधा पाने को ध्येय बना लिया गया है। जो कि समाज के लिए चिंता का सबब है, इस पर विमर्श किया जाना चाहिए। गांधी जी की पत्रकारिता का अध्ययन करने पर स्पष्ट है कि उसमें सत्य बतलाने का उद्देश्य और भाव समाहित रहता था परंतु अब नोट कमाने और टीआरपी बढ़ाने का दुर्भाव बलशाली हो गया है। उस समय पत्रकार को भटकाने के लिए इतने साधन और संपन्नबाजार मौजूद नहीं था। टीवी और उनके चैनलों का तो अस्तित्व ही नहीं था, फोन भी कम ही थे। संचार धीमा और सीमित होते हुए भी मर्यादित था। कहीं कोई चिंगारी उठती थी तो उसे पूरी तरह सुलगने और ज्वालामुखी बनकर फटने में काफी समय लगता था। संचार के सशक्त और प्रभावशाली माध्यम के तौर पर टेलेक्स, फैक्स और मोबाइल फोन का आविष्कार नहीं हुआ था। उस समय सिर्फ श्वेत रंग की उज्ज्वल धवल पत्रकारिता थी। आज की तरह पीत या नीच पत्रकारिता का निशान नहीं था। आज चहुं ओर सिर्फ वही है। इसी में धन और माल है। माल है तो मलाई भी यहीं है और यही मलाई ही बुराई की जड़ है, जिसे न कोई काटना चाहता है और न ही यह किसी के काटे से कट ही रही है। आज बाजार ही है, बाजार से जुड़ी संभावनाएं हैं और विकास है लेकिन सब बाजारवाद की अंधेरी सुरंग में मतवाले होकर बढ़े जा रहे हैं।
ऐसा लगता है कि जैसे तब विकास नहीं था। इन सब ठठाकर्म के बिना सबका समय कैसे बीतता था, जिसे अब पास किया जाता है। तब प्रकृति से जुड़े रहकर सब कर्म किए जाते थे और पत्रकारिता में व्यवस्था से अधिक एक मिशन का भाव समाहित रहता था। पत्रकारिता वही जो समाज की उन्नति में सहायक बने, जीवन मूल्यों का विकास करे, प्रकृति से जोड़े न कि तोड़े। आम जन से जुड़े। सामाजिक सरोकारों का उन्नयन, जिसका पावन ध्येय हो। कमजोर तबकों को इसका भरपूर लाभ मिले।
निष्कर्ष यही है कि गांधी जी की पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता रही है। आज की पत्रकारिता विकारों की पत्रकारिता बन गई है। विचारों से विकारों की अधोगति तक आने के लिए इसको अधिक समय नहीं लगा है जबकि अगर चाहें कि यह विकारों से विचारों की ओर उन्नति करे, तो काफी कठिनाई आएगी और काफी बहुमूल्य वक्त लगाकर भी उस स्थिति को हासिल कर पाने में मिलने वाली सफलता भी संदिग्ध लगती है। इसमें संशय की जिम्मेदारी के कारक आज के बाजार में घुले मिले हुए हैं। पत्रकारिता आजकल कमजोर तबके के लिए मंगल नहीं, अपितु बाजारवाद के पोषकों के लिए कमंडल भरने की निमित्त बन चुकी है।
सच्चे पत्रकार का दायित्व है कि अहिंसा के जरिए, हिंसात्मक होते समाज के विघटित मूल्यों के ताप को हरने वाला बने। संताप को ताप और फिर प्रताप की ओर अहिंसात्मक वीरता के साथ अग्रसर होना ही होगा। यह आज की एक महती आवश्यकता है।
मेरा तो साफतौर यह भी मानना है कि महात्मा गांधी जी के समय में चैनल मीडिया होता तो वे इसकी मनमानी और अराजकता व बाजारवाद से जुड़ाव से समाज को बचाने के लिए इनका पूर्ण बहिष्कार अवश्य करते और इसमें सफल भी रहते।
पत्रकार हमारे समाज के पथ-प्रदर्शक और हंटर मारने वाले हैं,यदि यही भ्रष्ट हो गए तो कुछ नहीं बचेगा !प्रभाष जोशी,राजेंद्र माथुर जैसे पत्रकार इसीलिए अलग मुकाम रखते हैं. लोग आजकल इसे धंधा बनाने पर तुले हैं !
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